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शुक्रवार, मई 16, 2025

पवमान सूक्तम्

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Pavamana Suktam

पवमान सूक्तम्(Pavamana Suktam) ऋग्वेद, सामवेद और यजुर्वेद में वर्णित एक प्रमुख सूक्त है, जिसे सोम देवता की स्तुति में रचा गया है। यह सूक्त वेदों में विशेष रूप से महत्वपूर्ण स्थान रखता है क्योंकि यह सोम रस के शुद्धिकरण और उसके महत्व को प्रकट करता है। पवमान का अर्थ होता है ‘शुद्ध करने वाला’ या ‘पवित्र करने वाला’, और यह सूक्त सोम को पवित्र करने की प्रक्रिया का वर्णन करता है।

पवमान सूक्तम् का महत्व और अर्थ Pavamana Suktam Importance

पवमान सूक्त का मुख्य उद्देश्य सोम रस के माध्यम से आत्मा और शरीर को शुद्ध करना है। वैदिक युग में सोम रस एक दिव्य पेय माना जाता था, जो शरीर को ऊर्जा प्रदान करने के साथ-साथ मन और आत्मा को भी शुद्ध करता था। इस सूक्त में सोम की तुलना नदी के प्रवाह, प्रकाश और अमृत से की गई है।

सूक्त में वर्णित कुछ प्रमुख बिंदु:

  1. सोम की शुद्धता: सोम को शुद्ध करने की प्रक्रिया का वर्णन किया गया है। इसे पवित्र करने के लिए छानने (सत्रवन) का उल्लेख किया गया है।
  2. सृष्टि और ब्रह्मांड: सोम को सृष्टि के मूल और ब्रह्मांड के संचालन में सहायक बताया गया है।
  3. आध्यात्मिक लाभ: सोम को पीने से आत्मा को शांति, मन को स्थिरता और आध्यात्मिक ज्ञान प्राप्त होता है।
  4. देवताओं की स्तुति: सूक्त में देवताओं, विशेषकर इंद्र, वरुण और अग्नि की भी महिमा का वर्णन है, जो सोम के सेवन से बल और ऊर्जा प्राप्त करते हैं।

ऋचाओं का भावार्थ Pavamana Suktam Meaning

पवमान सूक्त की ऋचाएं अत्यंत काव्यमय और गहन अर्थ लिए हुए हैं। उदाहरणस्वरूप:

  • ऋचाओं में सोम की गति और प्रवाह को नदी के जल के समान बताया गया है।
  • सोम को अमृत के समान अमोघ शक्ति देने वाला कहा गया है।
  • इसके माध्यम से ऋषि देवताओं की कृपा और साधकों की आध्यात्मिक उन्नति की कामना करते हैं।

पवमान सूक्त का यज्ञों में उपयोग

पवमान सूक्त का पाठ विशेष रूप से यज्ञों में किया जाता है। सोम यज्ञ के दौरान, जब सोम रस को निचोड़ा और छाना जाता है, तब इस सूक्त का उच्चारण किया जाता है। इसे यज्ञ की पवित्रता बनाए रखने और देवताओं को संतुष्ट करने के लिए महत्वपूर्ण माना गया है।

पवमान सूक्त संस्कृत में Pavamana Suktam In Sanskrit

ओम् ॥ हिर॑ण्यवर्णा॒-श्शुच॑यः पाव॒का
यासु॑ जा॒तः क॒श्यपो॒ यास्विन्द्रः॑ ।
अ॒ग्निं-याँ गर्भ॑ओ दधि॒रे विरू॑पा॒स्ता
न॒ आप॒श्शग्ग् स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥

यासा॒ग्ं॒ राजा॒ वरु॑णो॒ याति॒ मध्ये॑
सत्यानृ॒ते अ॑व॒पश्य॒-ञ्जना॑नाम् ।
म॒धु॒श्चुत॒श्शुच॑यो॒ याः पा॑व॒कास्ता
न॒ आप॒श्शग्ग् स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥

यासा᳚-न्दे॒वा दि॒वि कृ॒ण्वन्ति॑ भ॒क्षं
या अ॒न्तरि॑क्षे बहु॒धा भव॑न्ति ।
याः पृ॑थि॒वी-म्पय॑सो॒न्दन्ति शु॒क्रास्ता
न॒ आप॒श्शग्ग् स्यो॒ना भ॑वन्तु ॥

शि॒वेन॑ मा॒ चक्षु॑षा पश्यतापश्शि॒वया॑
त॒नुवोप॑ स्पृशत॒ त्वच॑ओ मे ।
सर्वाग्॑ओ अ॒ग्नीग्ं र॑प्सु॒षदो॑ हुवे वो॒ मयि॒
वर्चो॒ बल॒मोजो॒ निध॑त्त ॥

पव॑मान॒स्सुव॒र्जनः॑ । प॒वित्रे॑ण॒ विच॑र्​षणिः ।
यः पोता॒ स पु॑नातु मा । पु॒नन्तु॑ मा देवज॒नाः ।
पु॒नन्तु॒ मन॑वो धि॒या । पु॒नन्तु॒ विश्व॑ आ॒यवः॑ ।
जात॑वेदः प॒वित्र॑वत् । प॒वित्रे॑ण पुनाहि मा ।
शु॒क्रेण॑ देव॒दीद्य॑त् । अग्ने॒ क्रत्वा॒ क्रतू॒ग्ं॒ रनु॑ ।
यत्ते॑ प॒वित्र॑म॒र्चिषि॑ । अग्ने॒ वित॑तमन्त॒रा ।
ब्रह्म॒ तेन॑ पुनीमहे । उ॒भाभ्या᳚-न्देवसवितः ।
प॒वित्रे॑ण स॒वेन॑ च । इ॒द-म्ब्रह्म॑ पुनीमहे ।
वै॒श्व॒दे॒वी पु॑न॒ती दे॒व्यागा᳚त् ।
यस्यै॑ ब॒ह्वीस्त॒नुवो॑ वी॒तपृ॑ष्ठाः ।
तया॒ मद॑न्त-स्सध॒माद्ये॑षु ।
व॒यग्ग् स्या॑म॒ पत॑यो रयी॒णाम् ।
वै॒श्वा॒न॒रो र॒श्मिभि॑र्मा पुनातु ।
वातः॑ प्रा॒णेने॑षि॒रो म॑यो॒ भूः ।
द्यावा॑पृथि॒वी पय॑सा॒ पयो॑भिः ।
ऋ॒ताव॑री य॒ज्ञिये॑ मा पुनीताम् ॥

बृ॒हद्भिः॑ सवित॒स्तृभिः॑ । वर्‍षि॑ष्ठैर्देव॒मन्म॑भिः । अग्ने॒ दक्षैः᳚ पुनाहि मा । येन॑ दे॒वा अपु॑नत । येनापो॑ दि॒व्यङ्कशः॑ । तेन॑ दि॒व्येन॒ ब्रह्म॑णा । इ॒द-म्ब्रह्म॑ पुनीमहे । यः पा॑वमा॒नीर॒द्ध्येति॑ । ऋषि॑भि॒स्सम्भृ॑त॒ग्ं॒ रसम्᳚ । सर्व॒ग्ं॒ स पू॒तम॑श्नाति । स्व॒दि॒त-म्मा॑त॒रिश्व॑ना । पा॒व॒मा॒नीर्यो अ॒ध्येति॑ । ऋषि॑भि॒स्सम्भृ॑त॒ग्ं॒ रसम्᳚ । तस्मै॒ सर॑स्वती दुहे । क्षी॒रग्ं स॒र्पिर्मधू॑द॒कम् ॥

पा॒व॒मा॒नीस्स्व॒स्त्यय॑नीः । सु॒दुघा॒हि पय॑स्वतीः । ऋषि॑भि॒स्सम्भृ॑तो॒ रसः॑ । ब्रा॒ह्म॒णेष्व॒मृतग्॑ओ हि॒तम् । पा॒व॒मा॒नीर्दि॑शन्तु नः । इ॒मं-लोँ॒कमथो॑ अ॒मुम् । कामा॒न्‍थ्सम॑र्धयन्तु नः । दे॒वी‍र्दे॒वै-स्स॒माभृ॑ताः । पा॒व॒मा॒नीस्स्व॒स्त्यय॑नीः । सु॒दुघा॒हि घृ॑त॒श्चुतः॑ । ऋषि॑भि॒-स्सम्भृ॑तो॒ रसः॑ । ब्रा॒ह्म॒णेष्व॒मृतग्॑ओ हि॒तम् । येन॑ दे॒वाः प॒वित्रे॑ण । आ॒त्मान॑-म्पु॒नते॒ सदा᳚ । तेन॑ स॒हस्र॑धारेण । पा॒व॒मा॒न्यः पु॑नन्तु मा । प्रा॒जा॒प॒त्य-म्प॒वित्रम्᳚ । श॒तोद्या॑मग्ं हिर॒ण्मयम्᳚ । तेन॑ ब्रह्म॒ विदो॑ व॒यम् । पू॒त-म्ब्रह्म॑ पुनीमहे । इन्द्र॑स्सुनी॒ती स॒हमा॑ पुनातु । सोम॑स्स्व॒स्त्या व॑रुणस्स॒मीच्या᳚ । य॒मो राजा᳚ प्रमृ॒णाभिः॑ पुनातु मा । जा॒तवे॑दा मो॒र्जय॑न्त्या पुनातु । भूर्भुव॒स्सुवः॑ ॥

ओ-न्तच्छं॒-योँरावृ॑णीमहे । गा॒तुं-यँ॒ज्ञाय॑ । गा॒तुं-यँ॒ज्ञप॑तये ।
दैवी᳚स्स्व॒स्तिर॑स्तु नः । स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः । ऊ॒र्ध्व-ञ्जि॑गातु भेष॒जम् । शन्नो॑ अस्तु द्वि॒पदे᳚ । श-ञ्चतु॑ष्पदे ॥
ॐ शान्ति॒-श्शान्ति॒-श्शान्तिः॑ ॥

पवमान सूक्त यह सिखाता है कि जैसे सोम रस को छानकर शुद्ध किया जाता है, वैसे ही मनुष्य को अपने विचारों और कर्मों को भी शुद्ध करना चाहिए। आत्मा की शुद्धि और मन की पवित्रता से ही जीवन में सच्ची शांति और मोक्ष प्राप्त किया जा सकता है।

पवमान सूक्त वेदों की उन ऋचाओं में से है जो न केवल वैदिक ज्ञान का प्रतीक हैं, बल्कि आज भी मानव जीवन में आध्यात्मिक प्रेरणा प्रदान करती हैं। यह सूक्त हमें सिखाता है कि शुद्धता, पवित्रता और ईश्वर की स्तुति से जीवन को सार्थक बनाया जा सकता है।

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