Go Suktam In Hindi
गो सूक्तम्(Go Suktam) ऋग्वेद और अथर्ववेद में वर्णित एक महत्वपूर्ण सूक्त है, जो गौ माता की महिमा का वर्णन करता है। यह सूक्त वेदों में वर्णित गौ-संस्कृति और गौ-रक्षा के महत्व को दर्शाता है। गाय को सनातन धर्म में अत्यंत पूजनीय माना गया है और इसे ‘गावो विश्वस्य मातरः’ अर्थात् “गाय सम्पूर्ण विश्व की माता है” कहा गया है।
गो सूक्तम् का शाब्दिक अर्थ
- गो का अर्थ है “गाय”।
- सूक्त का अर्थ है “वेदों में वर्णित स्तुति”।
अतः गो सूक्तम् का अर्थ हुआ “गाय की महिमा का वर्णन करने वाला वेद मंत्रों का समूह”।
गो सूक्तम् का आध्यात्मिक एवं सामाजिक महत्व
- आध्यात्मिक दृष्टिकोण:
- गो माता की सेवा करने से पापों का नाश होता है और पुण्य की प्राप्ति होती है।
- गौ-दर्शन से मनुष्य के जीवन में सुख-शांति और आध्यात्मिक उन्नति होती है।
- सामाजिक एवं आर्थिक दृष्टिकोण:
- गौ-पालन से कृषि को बढ़ावा मिलता है और पर्यावरण संतुलित रहता है।
- गोबर और गोमूत्र का उपयोग जैविक खेती, चिकित्सा और ऊर्जा उत्पादन में किया जाता है।
- भारतीय समाज में गौशालाओं की स्थापना से रोजगार और अर्थव्यवस्था को बढ़ावा मिलता है।
गो सूक्तम् का पाठ करने के लाभ
- घर में सुख-शांति और समृद्धि आती है।
- मन की अशुद्धियों का नाश होता है और सकारात्मक ऊर्जा का संचार होता है।
- गौ-सेवा से भगवान श्रीकृष्ण, शिव और अन्य देवी-देवताओं की कृपा प्राप्त होती है।
- जीवन में ऐश्वर्य, बुद्धि और स्वास्थ्य की वृद्धि होती है।
गो सूक्तम् – Go Suktam
(ऋ.६.२८.१)
आ गावो॑ अग्मन्नु॒त भ॒द्रम॑क्र॒न्त्सीद॑न्तु गो॒ष्ठे र॒णय॑न्त्व॒स्मे ।
प्र॒जाव॑तीः पुरु॒रुपा॑ इ॒ह स्यु॒रिन्द्रा॑य पू॒र्वीरु॒षसो॒ दुहा॑नाः ॥ 1
इन्द्रो॒ यज्व॑ने पृण॒ते च॑ शिक्ष॒त्युपेद्द॑दाति॒ न स्व-म्मा॑षुयति ।
भूयो॑भूयो र॒यिमिद॑स्य व॒र्धय॒न्नभि॑न्ने खि॒ल्ये नि द॑धाति देव॒युम् ॥ 2
न ता न॑शन्ति॒ न द॑भाति॒ तस्क॑रो॒ नासा॑मामि॒त्रो व्यथि॒रा द॑धर्षति ।
दे॒वांश्च॒ याभि॒र्यज॑ते॒ ददा॑ति च॒ ज्योगित्ताभिः॑ सचते॒ गोप॑ति-स्स॒ह ॥ 3
न ता अर्वा॑ रे॒णुक॑काटो अश्नुते॒ न सं॑स्कृत॒त्रमुप॑ यन्ति॒ ता अ॒भि ।
उ॒रु॒गा॒यमभ॑य॒-न्तस्य॒ ता अनु॒ गावो॒ मर्त॑स्य॒ वि च॑रन्ति॒ यज्व॑नः ॥ 4
गावो॒ भगो॒ गाव॒ इन्द्रो॑ म अच्छा॒-न्गाव॒-स्सोम॑स्य प्रथ॒मस्य॑ भ॒क्षः ।
इ॒मा या गाव॒-स्स ज॑नास॒ इन्द्र॑ इ॒च्छामीद्धृ॒दा मन॑सा चि॒दिन्द्र॑म् ॥ 5
यू॒य-ङ्गा॑वो मेदयथा कृ॒श-ञ्चि॑दश्री॒र-ञ्चि॑त्कृणुथा सु॒प्रती॑कम् ।
भ॒द्र-ङ्गृ॒ह-ङ्कृ॑णुथ भद्रवाचो बृ॒हद्वो॒ वय॑ उच्यते स॒भासु॑ ॥ 6
प्र॒जाव॑ती-स्सू॒यव॑सं रि॒शन्तीः॑ शु॒द्धा अ॒प-स्सु॑प्रपा॒णे पिब॑न्तीः ।
मा वः॑ स्ते॒न ई॑शत॒ माघशं॑सः॒ परि॑ वो हे॒ति रु॒द्रस्य॑ वृज्याः ॥ 7
उपे॒दमु॑प॒पर्च॑नमा॒सु गोषूप॑ पृच्यताम् ।
उप॑ ऋष॒भस्य॒ रेत॒स्युपे॑न्द्र॒ तव॑ वी॒र्ये॑ ॥ 8
ॐ शान्ति॒-श्शान्ति॒-श्शान्तिः॑ ॥