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मंगलवार, अक्टूबर 14, 2025

त्वमेव ब्रूहि स्तोत्रम्

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त्वमेव ब्रूहि स्तोत्रम् Tvameva Bruhi Stotram

श्री गणेशाय नमः ।

आसीद्धराधामललामरूपो नासीदहो कस्य गुरुर्गरीयान् ।
देशः स एवाद्य त्वदीयप्रेयान् हेयानधस्तिष्ठति सर्वदेशात् ॥१॥

अभूदयोध्या भवदीयमेध्या पुरी पुरा देवपुरादपीह ।
म्लेच्छैरुपेतामवलोक्यते तां नो दूयते किं वद चारु चेतः ॥२॥

पुरा सुराक्रान्तवसुन्धराया व्यथा त्वया किं न निराकृता सा ।
तत्ते बलं क्वास्ति खरः शरो वा गोघातिनो हन्त कथं न हन्सि ॥३॥

मन्ये महापापकलापकारी चेद्रावणो हन्त हतस्त्वयैव ।
किं तद्विधानद्य न पश्यसीह यद्वा त्वमस्माकमिवासि भीतः ॥४॥

सीतातिमीता दशकन्धरेण वीता त्वया शान्तिमितो न भेदः ।
नानाबला हाद्य खला हरन्ति नायांसि कारुण्यमितोऽस्ति खेदः ॥५॥

नोचेद् दयाघन दयामधुना करोषि सन् दीनबन्धुरपि निष्ठुरतां तनोसि ।
कस्यान्तिकं व्रजतु भारतमेतदद्य लोकाभिराम घनश्याम त्वमेव ब्रूहि ॥६॥

॥श्रीराजमणिशर्मकृतं त्वमेवब्रूहिस्तोत्रं सम्पूर्णम् ॥

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