यज्ञोपवीत (जनेऊ) Janeu Or Yajnopavita
हिन्दू धर्म में शिखा और सूत्र दो प्रमुख प्रतीक हैं। सुन्नत होने से किसी को मुस्लिम माना जा सकता है, जबकि सिख धर्मानुयायी पंच-केशों के माध्यम से अपनी धार्मिक मान्यता प्रकट करते हैं। पुलिस, फौज, जहाज, और रेल जैसे विभागों के कर्मचारियों को उनकी पोशाक से पहचाना जाता है। इसी तरह, हिन्दू धर्मानुयायी अपने इन दो प्रतीकों के माध्यम से अपनी धार्मिक निष्ठा को प्रकट करते हैं। शिखा का महत्व अलग ट्रैक्ट में विवेचना की जा रही है, यहाँ हम यज्ञोपवीत पर ध्यान केंद्रित कर रहे हैं।
यज्ञोपवीत(जनेऊ) की उपयोगिता और आवश्यकता Importance of Janeu Yajnopavita
यज्ञोपवीत के धागों में नीति का सारा सार समाहित किया गया है। जैसे कि कागज और स्याही के सहारे किसी नगण्य से पत्र या तुच्छ-सी लगने वाली पुस्तक में अत्यंत महत्वपूर्ण ज्ञान-विज्ञान भरा जाता है, उसी प्रकार सूत्र के इन नौ धागों में जीवन विकास का सम्पूर्ण मार्गदर्शन समाहित किया गया है। इन धागों को कंधों पर, हृदय पर, कलेजे पर, और पीठ पर प्रतिष्ठापित करने का उद्देश्य यह है कि सन्निहित शिक्षाओं का यज्ञोपवीत के ये धागे हमें हर समय स्मरण कराएं और हम उन्हीं के आधार पर अपनी रीति-नीति का निर्धारण करते रहें।
मनुष्य जन्म से ही एक प्रकार के पशु के रूप में आता है। उसमें स्वार्थपरता की प्रवृत्ति अन्य जीव-जन्तुओं की तरह होती है, लेकिन उत्कृष्ट आदर्शवादी मान्यताओं के द्वारा वह मनुष्य बनता है। जब मानव की आस्था यह बन जाती है कि उसे इंसान की तरह ऊँचा जीवन जीना है और उसी आधार पर वह अपनी कार्य पद्धति निर्धारित करता है, तभी कहा जा सकता है कि इसने पशु-योनि को छोड़कर मनुष्य योनि में प्रवेश किया है, अन्यथा नर-पशुओं से तो यह संसार भरा ही पड़ा है। स्वार्थ संकीर्णता से निकलकर परमार्थ की महानता में प्रवेश करने को, पशुता को त्याग कर मनुष्यता ग्रहण करने को हम दूसरा जन्म कहते हैं।
माता-पिता के रज-वीर्य से मनुष्य का शरीर उत्पन्न होता है, जैसे कि अन्य जीवों का शरीर। आदर्शवादी जीवन के लक्ष्य को प्राप्त करने की प्रतिज्ञा लेना ही वास्तविक मनुष्य जन्म में प्रवेश करने का माध्यम है। इसी को ‘द्विजत्व’ कहते हैं। हर हिन्दू धर्मानुयायी को आदर्शवादी जीवन जीने की प्रतिज्ञा लेनी चाहिए, और उन्हें द्विज बनना चाहिए। इस मूल तथ्य को अपनाने की प्रक्रिया को ‘समारोहपूर्वक यज्ञोपवीत संस्कार’ के नाम से सम्पन्न किया जाता है। यह व्रत-बंधन आजीवन स्मरण रखने और व्यवहार में लाने की प्रतिज्ञा है, और तीन लड़ों वाले यज्ञोपवीत की उपेक्षा करने का अर्थ है – आदर्श जीवन जीने की प्रतिज्ञा से इनकार करना। ऐसे लोगों को किसी समय में सामाजिक बहिष्कार किया जाता था, उन्हें लोग छूते तक भी नहीं थे और उन्हें अपने पास नहीं बिठाते थे। इस सामाजिक दण्ड का प्रयोजन यही था कि वे प्रताइना-दबाव में आकर पुनः मानवीय आदर्शों पर चलने की प्रतिज्ञा करें – यज्ञोपवीत धारण को स्वीकार करें। आज जो अन्त्यज, चाण्डाल आदि दिखते हैं, वे किसी समय के ऐसे ही बहिष्कृत व्यक्ति रहे होंगे। दुर्भाग्य से उनका दण्ड कितनी ही पीड़ियों से बीत गया हो, लेकिन उनकी सन्तानें उन्हें झेलनी पड़ रही हैं।
अथर्ववेद में वर्णित यज्ञोपवीत का श्लोक
मातुरग्रेऽधिजननम् द्वितीयस् मौञ्जि बन्धनम् ।
आचार्य उपनयमानो ब्रह्मचारिणम् कृणुते गर्भमन्तः ।
त रात्रीस्तिस उदरे विभर्ति तं जातद्रष्टुर्मभ संयन्ति देवाः ।।
अथर्व ११।३।५।३
अर्धात्-पहला जन्म माता के उदर से और दूसरा यज्ञोपवीत धारण से होता है ।
अर्थात् गर्भ में रहकर माता और पिता के सम्बन्ध से मनुष्य का पहला जेन्म होता है । दूसरा जन्म विद्या रूपी माता और आचार्य रूप पिता द्वारा गुरुकुल में उपनयन और विद्याभ्यास द्वारा होता है । “सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र” में लिखा है कि यज्ञोपवीत के नौ धागों में नौ देवता निवास करते हैं ।
(१) ओझमकार (२) अग्नि (३) अनन्त (४) चन्र (५) पितृ (६) प्रजापति (७) वायु (८) सूर्य (९) सब देवताओं का समूह । वेदमन्त्रों से अभिमंत्रित एवं संस्कारपूर्वक कराये यज्ञोपवीत में ९ शक्तियों का निवास होता है । जिस शरीर पर ऐसी समस्त देवों की सम्मिलित प्रतिमा की स्थापना है, उस शरीर रूपी देवालय को परम श्रेय साधन ही समझना चाहिए । “सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र” में यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में एक और महत्वपूर्ण उल्लेख है।
“सामवेदीय छान्दोग्य सूत्र” में यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में एक और महत्वपूर्ण उल्लेख है
ब्रह्मणोत्पादितं सूत्रं विष्णुना त्रिगुणी कूतम् ।
कृतो ग्रन्थिस्त्रनेत्रेण गायत्र्याचाभि मन्त्रितम् ।।
अर्थात्-ब्रह्माजी ने तीन वेदों से तीन धागे का सूत्र बनाया । विष्णु ने ज्ञान, कर्म, उपासना इन तीनों काण्डों से तिगुना किया और शिवजी ने गायत्री से अभिमंत्रित कर उसमें ब्रह्म गाँठ लगा दी । इस प्रकार यज्ञोपवीत नौ तार और ग्रन्थियों समेत वनकर तैयार हुआ ।
देवा एतस्यामवदन्त पूर्वे सप्तत्मृषयस्तपसे ये निषेदुः ।
भीमा जन्या ब्राहणस्योपनीता दुर्धां दर्धात परमे व्योमन् ।।
–ऋग्वेद १०।१०९।४
अर्थातृ-तपस्वी, ऋषि और देवतागणों ने कहा कि यज्ञोपवीत की शक्ति महान है । यह शक्ति शुद्ध चरित्र और कठिन कर्तव्य पालन की प्रेरणा देती है । इस यज्ञोपवीत को धारण करने से जीव-जन भी परम पद को पहुँच जाते हैं ।
यज्ञोपवीतं परमं पवित्रं प्रजापतेर्यत्सहजं परस्तात् ।
आयुष्यमग्रयं प्रति मुञ्च शुञ्चं यज्ञोपवीतं बलमस्तु तेजः ।।
-ब्रह्मोपनिषद्
अर्थात्-यज्ञोपवीत परम पवित्र है, प्रजापति ईश्वर ने इसे सवके लिए सहज बनाया है । यह आयुवर्धक, स्फूर्तिदायक, बन्धनों से छुड़ाने वाला एवं पवित्रता, बल और तेज देता है ।
यज्ञोपवीत(जनेऊ) के गुण
यज्ञोपवीत के परम श्रेष्ठ तीन लक्षण हैं ।
१. सत्य व्यवहार की आकांक्षा
२. अग्नि जैसी तेजस्विता
३. दिव्य गुणों से युक्त प्रसन्नता इसके द्वारा भली प्रकार प्राप्त होती है ।
यज्ञोपवीत(जनेऊ) में तीन लड़, नौ तार और ९६ चौवे ही क्यों?
“यज्ञोपवीत ‘ में नौ ही तन्तु क्यों ? नौ धागे नौ गुणों के प्रतीक हैं | इसके नौ तन्तुओं में नौ देवताओं की कल्पना को गई है, यथा-
ओंकार: प्रथमे तन्तौ द्वितीयेऽग्निस्तथै च ।
तृतीये नागदैवत्यं चतुर्थे सोमदे वता i
पञ्चमे पितृदैवत्यं षष्ठे चैव प्रजापति: ।
सप्तमे मरुतश्चैव अष्टमे सूर्य एव i
सर्वे देवास्तु नवमे इत्येतास्तन्तुदेबताः ॥
– सामवेदीय छान्दोग्यसूत्र परिशिष्ट
पहले तन्तु में ओंकार, दूसरे में अग्नि, तीसरे में अनन्त, चौथे में चन्द्रमा, पाँचवें में पितृगण, छठे में प्रजापति, सातवें में वायुदेव, आठवें में सूर्य और नवें तन्तु में सर्वदेवता प्रतिष्ठित हैं | यज्ञोपवीत धारण करनेवाला बालक यज्ञोपवीत के तन्तुओं में स्थित नौ देवताओं के निम्न गुणों को अपने अन्दर धारण करता है-
१) ओंकार–एकतत्त्व का प्रकाश, ब्रह्मज्ञान |
2) अग्नि–तेज, प्रकाश, पापदहन |
३) अनन्त–अपार धेर्य और स्थिरता |
४) चन्द्रमा–मधुरता, शीतलता, सर्वप्रियता |
५) पितृगण–आशीर्वाद, दान और स्नेहशीलता |
६) प्रजापति–प्रजापालन, स्नेह, सौहार्द |
७) वायु–पवित्रता, बलशालिता, धारणशक्ति, गतिशीलता ।
८) सूर्य–गुणग्रहण, नियमितता, प्रकाश, अन्धकारनाश, मल-शोषण |
९) सर्वदेवता–दिव्य और सात्तिविक जीवन ।
जो यज्ञोपबीत के इन गुणों को स्मरण कर, इनसे प्रेरणा प्राप्त करेगा, उसका जीवन उच्च, महान् यशस्वी और तेजयुक्त क्यों न होगा । यह भी नौ गुण बताये गये हैं । अभिनव संस्कार पद्धति में इनके श्लोकं भी दिये गये हैं ।
यज्ञोपवीत पहनने का अर्थ है-नैतिकता एवं मानवता के पुण्य कर्तव्यों को अपने कन्धों पर परम पवित्र उत्तरदायित्व के रूप में अनुभव करते रहना । अपनी गतिविधियों का सारा ढाँचा इस आदर्शवादिता के अनुरूप ही खड़ा करना । इस उत्तरदायित्व को अनुभव करते रहने की प्रेरणा का यह प्रतीक सूत्र धारण किये रहना हिन्दू का आवश्यक धर्म-कर्तव्य माना गया है । इस लक्ष्य से अवगत कराने के लिए समारोहपूर्वक उपनयन किया जाता है
यज्ञोपवीत(जनेऊ) पाँच गाँठों का रहस्य है
यज्ञोपवीत में पाँच गाँठें होती हैं। पाँच गाँठें पञ्चमहायज्ञों को करने की ओर संकेत कर रही हैं। पितऋण, ऋषिऋण और देवऋण चुकाने के लिए इन यज्ञों का करना अनिवार्य है ।
गृहस्थों को प्रतिदिन पाँच यज्ञों का अनुष्ठान करना चाहिए। पाँच यज्ञ ये हैं-
१. त्रह्मयज्ञ- सन्ध्या और स्वाध्याय |
२. देखयज्ञ-आअग्निहोत्र और विद्वानों का मानसम्मान |
३. पितृयज्ञञ-जीवित माता-पिता, दादा-दादी, परदादा-परदादी-इनका श्राद्ध और तर्पण करना, इनकी सेवा-शुश्रुषा करके इन्हें सदा प्रसन्न रखना और इनका आशीर्वाद प्राप्त करना।
४. बलिवेश्वदेवयज्ञ-घर में जो भोजन बने उसमें से खट्टे और नमकीन पदार्थो को छोड़कर रसोई की अग्नि में दस आहूतियाँ देना और कौआ, कुत्ता, कीट-पतङ्ग, लूले-लङ्गड़े, पापरोगी, चाण्डाल को भी अपने भोजन में से भाग देना।
५. अतिथियज्ञ–घर पर आनेवाले बेद-शास्त्रों के विद्वान्, धार्मिक उपदेशकों का भी आदर-सम्मान करना |
पाँच कोश हैं–अज्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय और आनन्दमय–इनका वियोग कर आत्मा को इनसे पृथक् समझना है ।
पाँच ग्रन्थियों का एक और भी अभिप्राय है। प्रत्येक मनुष्य में काम, क्रोध, लोभ, मोह और अहङ्कार-रूपी पाँच गाँठे हैं । यज्ञोपवीत की ये ग्रन्थियाँ यज्ञोपबीतधारी को यह स्मरण कराती हैं कि इन गाँठों को खोलना है ।
यज्ञोपवीत में चार गाँठें नीचे होती हैं, एक ऊपर | मनुष्य को ज्ञान चाहिए । ज्ञान का स्त्रोत वेद हैं, अत: ज्ञान प्राप्ति के लिए वेद का अध्ययन करें । वेद में ज्ञान कहाँ से आया? वेदों में ज्ञान आया ब्रह्म से । इसीलिए ऊपर की गाँठ को ब्रह्मग्रन्थि कहते हैं । ज्ञान-प्राप्ति के लिए परमात्मा से सम्बन्ध |
यज्ञोपवीत(जनेऊ) ९६ चप्पे का ही क्यों ?
यज्ञोपवीत हाथ की चार अंगुलियों पर ९६ बार लपेटा जाता है। इस प्रकार यज्ञोपबीत का परिमाण ९६ चप्पे होता है । यह ९६ अंगुल ही क्यों होता है, इसके निम्न कारण हैं-प्रत्येक व्यक्ति अपनी अंगुलियों से ९६ अंगुल का होता है यदि सन्देह हो तो मापकर देख लें । ९६ अंगुल का यज्ञोपवीत हमें यह स्मरण कराता है कि यज्ञोपवीत कन्धे से कटिप्रदेश तक ही नहीं है, अपितु शरीर का अङ्ग-प्रत्यङ्ग और प्रत्येक रोम इससे बिंधा हुआ है । छान्दोग्य परिशिष्ट में इस प्रश्न का समाधान करते हुए कहा गया है-
यज्ञोपवीत वाम स्कन्ध से धारित किया जाकर हदय और वक्षस्थल पर होता हुआ कटि-प्रदेश तक पहुंचता है । इसमें भी एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक रहस्य छुपा हुआ है । प्रत्येक मनुष्य के ऊपर तीन प्रकार के बोझ हैं । मनुष्य में भार उठाने की शक्ति कन्थे में है, इसलिए यज्ञोपवीत कन्थे पर डाला जाता है । संसार में बोझ को वही वहन कर सकेगा जो कटिबद्ध है, जिसकी कमर कसी हुई है, इसलिए यज्ञोपवीत कटिप्रदेश तक लटकता है | प्रत्येक यज्ञोपवीतधारी अपने राष्ट्र की उन्नति के लिए, सभ्यता और संस्कृति के प्रचार और प्रसार के लिए तथा मातृभाषा की रक्षा के लिए कटिबद्ध रहे, इसलिए यह यज्ञोपवीत कटि-प्रदेश तक लटकता है |
तिथिवारं च नक्षत्रं तत्त्ववेदगुणान्वितम्।
काळत्रयं च मासाश्च ब्रह्मासूत्रं हि षणणवम्॥
अर्थात् – १५ तिथि, ७ वार, २७ नक्षत्र, २५ तत्त्व, ४ वेद, ३ गुण, ३ काल और १२ मास–इनकी कुल संख्या ९६ होती है । यज्ञोपवीत में ये सन निहित हैं, अत: यज्ञोपवीत ९६ अंगुल का होता है |
यज्ञोपवीत के सम्बन्ध में दो बातें और स्मरणीय हैं । एक यह कि प्रत्येक व्यक्ति को एक समय में एक ही यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए, दो नहीं । दूसरी यह कि यज्ञोपवीत श्वेत होना चाहिए, क्योंकि मन्त्र में उसे ”शुभ्रम्” कहा गया है ।
यज्ञोपवीत(जनेऊ) बाएँ कन्धे पे क्यों रक्खी जाती है ?
तीन ऋणों एवं यज्ञों को हृदय से स्वीकार किया जाता है। हृदय वामभाग में ही होता है, इसलिए यज्ञोपवीत वामस्कन्ध से हृदय पर होता हुआ दाहिनी ओर धारण किया जाता है
संसार में सफलता वही प्राप्त करेगा, जो लक्ष्य को अपने सम्मुख रखेगा और लक्ष्य उसी व्यक्ति के समक्ष रह सकता है जो किसी कार्य को हृदय से करे, इसीलिए यज्ञोपवीत हृदय पर होता है ।
यज्ञोपवीत के कन्थे, हदय और कटि-प्रदेश पर ही ठहराने का एक और भी रहस्य है और वह यह है कि कन्थे के ऊपर ज्ञानेन्द्रियाँ आरम्भ हो जाती हैं; जिह्वा इसका अपवाद है | मनुष्य देव बन जाता है, वह संन्यास ले-लेता है, और यज्ञोपवीत उतार दिया जाता है।
यज्ञोपवीत कटी(कमर) तक ही क्यों पहनी जाती है?
यज्ञोपवीत वाम स्कन्ध से धारित किया जाकर हदय और वक्षस्थल पर होता हुआ कटि-प्रदेश तक पहुंचता है । इसमें भी एक बहुत बड़ा वैज्ञानिक रहस्य छुपा हुआ है । प्रत्येक मनुष्य के ऊपर तीन प्रकार के बोझ हैं । मनुष्य में भार उठाने की शक्ति कन्थे में है, इसलिए यज्ञोपवीत कन्थे पर डाला जाता है । संसार में बोझ को वही वहन कर सकेगा जो कटिबद्ध है, जिसकी कमर कसी हुई है, इसलिए यज्ञोपवीत कटिप्रदेश तक लटकता है | प्रत्येक यज्ञोपवीतधारी अपने राष्ट्र की उन्नति के लिए, सभ्यता और संस्कृति के प्रचार और प्रसार के लिए तथा मातृभाषा की रक्षा के लिए कटिबद्ध रहे, इसलिए यह यज्ञोपवीत कटि-प्रदेश तक लटकता है |
मेखला
उपनयन संस्कार में मौंजी भी धारण करनी पड़ती है। वेद भे मेसळा के गुण इस प्रकार वर्णन किये गये है ।
श्रद्धाया दुहिता तपसोऽधि जाता स्वस ऋषीणां भूतकृता बभूव |
सा नो मेखले मतिमा धेहि मेधामथो नो धेहि तप इन्द्रियं च ॥
यह मेखला श्रद्धा की पुत्री, तप से उत्पन्न होनेताली, यथार्थकारी ऋषियों की बहिन है। यह मेखला हमें बुद्धि, मेधा, कष्टों को सहन करने का सामर्थ्य और इन्द्रियों की विशुद्धता प्रदान कराती है । मेखला- धारण जहां वीर्य-रक्षण में सहायक है तथा अण्डकोष-व॒द्धि आदि रोगों को रोकती है, वहाँ शतपथब्राह्मण के शब्दों में यह आत्मतेज भी प्रदान करता है, इसीलिए उपनयन के समय इसके धारण करने का विधान है।
यज्ञोपवीत (उपनयन) का समय
इस संस्कार का वेदानुकूल समय ब्राह्मण के लिए ८ वर्ष, क्षत्रिय के लिए ११ वर्ष, और वैश्य के लिए १२ वर्ष है । जैसाकि मनुजी महाराज ने लिखा है
गर्भाष्टमे5ब्दे कुर्वीत ब्राह्मणस्योपनायनम्।
गर्भादेकादशे राज्ञो गर्भात्तु द्वादशे विशः ॥
–मनु० २।३६
व्यासस्मृति तथा महाभारत आदि में भी ऐसा ही विधान है, परन्तु यदि उपर्युक्त समय पर यज्ञोपवीत न हो सके तो ब्राह्मण का १६, क्षत्रिय का २२ और वैश्य का २४ वर्ष से पूर्व यज्ञोपवीत हो जाना चाहिए | यदि इस समय तक भी यज्ञोपवीत संस्कार न हो तो ये पतित हो जाते हैं |
क्या स्त्रियों को यज्ञोपवीत का अधिकार है ?
कुछ धर्म के ठेकेदार इस अत्यन्त पवित्र और महत्त्वपूर्ण संस्कार से स्त्रियों को वञ्चित रखना चाहते हैं, परन्तु प्राचीन ग्रन्थों के अवलोकन से पता चलता है कि प्राचीनकाल में पुरुषों की भाँति स्त्रियों को भी यज्ञोपवीत पहनने का अधिकार था, जैसाकि पारस्कर ‘ गृह्यसूत्र में लिखा – स्त्रिया उपनीता अनुपनीताश््च | स्त्रियाँ दो प्रकार की होती हें – यज्ञोपवीत पहननेवाली और यज्ञोपवीत न पहननेबाली |
इसी प्रकार यम-संहिता में लिखा है –
पुराकल्पे तु नारीणां मौञ्जिबन्धनमिष्यते |
अध्यापनं च वेदानां सावित्रीवाचनं तथा ii
अर्थात् प्राचीन समय में कन्याओं का उपनयन संस्कार होता था तथा उन्हें गायत्री का जप और वेदाध्ययन करने को भी आज्ञा थी।
यज्ञोपवीत (उपनयन) और गायत्री
यज्ञोपवीत और गायत्री का परस्पर घनिष्ठ सम्बन्ध हे, अत: यहाँ गायत्री मन्त्र के सम्बन्ध में दो-चार शब्द लिखना अप्रासङ्गिक न होगा।
ओ३म्। भूर्भुवः स्व: |
तत्सवितुर्वरेण्यं भर्गों देवस्य धीमहि।
धियो यो नः प्रचोदयात्॥
इस मन्त्र का सरलार्थ इस प्रकार है-हे सर्वरक्षक | सच्चिदानन्दस्वरूप, सकलजगत् उत्पादक, सूर्यादि प्रकाशकों के भी प्रकाशक ! आपके सर्वश्रेष्ठ पाप-नाशक तेज को हम धारण करते हैं । हे परमात्मन्! आप हमारी बुद्धि और कर्मो को श्रेष्ठ मार्ग में प्रेरित करें। वास्तव में वेद-शास्त्र, पुराण और स्मृतियाँ गायत्री की महिमा से भरे पड़े हैं। इसकी महिमा महान् है । जो इसका जप और अनुष्ठान करता है, वही इसके प्रभाव को जानता है।
यज्ञोपवीत सम्बन्धी कुछ प्रश्नोत्तर FAQs of Yagyopavitra(Upnayana Sanskar)
प्रश्न–क्या मलमूत्र त्यागने से पूर्व यज्ञोपवीत को कान पर चढ़ाना आवश्यक हे ?
उत्तर- नहीं, यह आवश्यक नहीं है | कुछ लोग यज्ञोपवीत को कान पर चढ़ाने में यह हेतु देते हैं कि कर्णेन्द्रिय और मूत्रेन्द्रिय का आपस में सम्बन्ध है और यज्ञोपवीत को कान पर चढ़ाने से किसी नाडीविशेष पर दबाव आदि पड़ने से वीर्यदोषादि रोग नहीं होते, परन्तु आयुर्वेद और पाश्चात्य शरीरविज्ञान-सम्बन्धी ग्रन्थों में ऐसा कोई उल्लेख नहीं है कि कर्णन्द्रिय और मूत्रेन्द्रिय का आपस में कोई सम्बन्ध है। हाँ, इतनी बात अवश्य है कि मलमूत्र विसर्जन करते समय यज्ञोपवीत नाभि से ऊपर रहना चाहिए, जिससे की मूत्र दी के छाटे न लगें।
प्रश्न–यज्ञोपवीत अपवित्र कैसे होता है ?
उत्तर–यदि यज्ञोपवीत-संस्कार होने के पश्चात् तीन दिन तक सन्ध्या न करे तो द्विज शूद्रवत् हो जाता है । वह प्रायश्चित्त करने पर शुद्ध होता है और पुन: संस्कार कराना लिखा है | जन्म-शौच, मरणशौच, रजस्वला-स्पर्श, और टूट जाने पर यज्ञोपवीत अपवित्र हो जाता है; तब उस यज्ञोपवीत को उतारकर नूतन यज्ञोपवीत धारण करना चाहिए |