छान्दोग्योपनिषद् का परिचय The Chandogya Upanishad
छान्दोग्योपनिषद् हिन्दू धर्म के प्रमुख उपनिषदों में से एक है, छान्दोग्योपनिषद् सामवेदीय तलवकार बराद्यणकेः अंतर्गत आता है। केनोपनिषद् भी तर्वकारशाखाकी ही दै । इसी लिए इन दोनों का एक ही शान्तिपाठ है। यह वैदिक साहित्य का एक महत्वपूर्ण हिस्सा है। यह उपनिषद् बहुत ही महच्वपूणं है। इसकी वर्णनशेली अत्यंत क्रमबद्ध और युक्तिमुक्त है। इसमें तत्वज्ञान और तदुपयोगी कर्म तथा उपासनाओ का बड़ा विसद और विस्तृत वर्णन है। यद्यपि आजकल के समय में औपनिषद कर्म और उपासनाका प्रायःसंपूर्ण लोप होने के कारण इसके ज्ञान का स्वरूप और रहस्य प्रखंड पंडित और विचारको ही है । छान्दोग्योपनिषद् में 8 अध्याय हैं, जो विभिन्न प्रकार की उपासनाओं और साधनाओं का वर्णन करते हैं।
मुख्य शिक्षाएँ और सिद्धांत
अद्धैतवेदान्त की प्रक्रियाके अलुखार जीव अविधाकी तीन शक्तियोसे आवृत है, उन्हें मल, विक्षेप ओर आवरण कहते है। इनमे
- मल: अर्थात अन्तःकरणके मलिन संस्कारजनित दोषोकी निवृत्ति निष्काम कर्मसे होती है,
- विक्षेप : अर्थात् चित्तचाञ्चस्यका नाश उपासनासे होता है,
- आवरण : अर्थात् स्वरूप विस्मृति या फिर अज्ञानता का नास ज्ञानसे होता हे!
इस प्रकार चित्तके इन त्रिविध दोषोके लिये ये अलग अलग तीन प्रकार की गतिया होती है। सकाम कर्मी लोग धूम मार्ग से स्वर्गादी लोको को प्राप्त होकर पुण्य क्षीण होने पर पुनः जन्म लेते है। निष्काम कर्मी और उपासक अचिरादी मार्ग से अपने उपास्य देव के लोक में जाकर अपने अधिकारनुसार सालोक्य,सामीप्य, सारुप्य या सायुज्य मुक्ति प्राप्त करते है।
इन दोना गतियो का इस उपनिषद्कं पांचवें अध्यायमै विशदरूपसे वर्णन किया गया हे । इन दोनोँसे अलग जो तत्वज्ञानी होते है उनके प्राणोका उत्कमण ( लोकान्तरमे गमन.) नदीं होता; उनके शरीर यही अपने-अपने तत्वों में लीन हो जाते है और उन्हे यहाँ ही कैवल्यपद् प्राप्त दोता है ।
अद्धेतसिद्धान्त के अनुसार मोक्ष का ज्ञान
अद्धेतसिद्धान्तके अनुसार मोक्षका साक्षात् साघन ज्ञान ही है, इस विषयमै,
"ऋते ज्ञानान्न मुक्तिः ज्ञानादेव तु केवल्यम
अथ येऽन्यथातो विदुरन्यराजानस्ते क्षप्यलोका
भवन्ति सर्व एते पुण्यछोका भवन्ति ब्रह्मसंस्थोऽमृतत्वमेति"
यह श्रुतिया जेसी और बहोत सी श्रुतिया प्रमाण है की निष्काम कर्म और उपासना मल ओर विक्षेपकी निच्र्ति करके शानद्वारा मुक्ति देते है। ज्ञान से ही आत्मसाक्षात्कार होता है और फिर उसकी द्रष्टिमें संसार और संसार वन्धनका अत्यन्ता भाव होकर सर्व अरोषः विरोष-शून्य एक अखण्ड चिदानन्दधन सता ही रह जाती है ।
छान्दोग्योपनिषद् के अध्यायों का सारांश
पहला अध्याय: उपासना और साधना
पहले अध्याय में उपासना और साधना के विभिन्न तरीकों का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार से व्यक्ति ध्यान और साधना के माध्यम से ब्रह्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।
दूसरा अध्याय: समिधा और यज्ञ
दूसरे अध्याय में समिधा और यज्ञ की महत्ता बताई गई है। इसमें यज्ञ के विभिन्न प्रकार और उनके लाभों का विवरण है। यज्ञ के माध्यम से व्यक्ति आत्मशुद्धि और आत्मज्ञान की ओर अग्रसर होता है।
तीसरा अध्याय: ज्ञान की महत्ता
तीसरे अध्याय में ज्ञान की महत्ता पर जोर दिया गया है। इसमें बताया गया है कि केवल यज्ञ और उपासना से ही नहीं, बल्कि सही ज्ञान से भी व्यक्ति ब्रह्म की प्राप्ति कर सकता है।
चौथा अध्याय: जीवन का रहस्य
चौथे अध्याय में जीवन के रहस्यों का वर्णन है। इसमें जीवन के विभिन्न पहलुओं और आत्मा के मार्ग को स्पष्ट किया गया है।
पाँचवा अध्याय: सांसारिक और आध्यात्मिक ज्ञान
पाँचवे अध्याय में सांसारिक और आध्यात्मिक ज्ञान की तुलना की गई है। इसमें बताया गया है कि कैसे व्यक्ति सांसारिक मोह माया से मुक्त होकर आत्मज्ञान प्राप्त कर सकता है।
छठा अध्याय: सत्य की खोज
छठे अध्याय में सत्य की खोज और उसे पाने के उपाय बताए गए हैं। इसमें ध्यान और साधना के माध्यम से सत्य की प्राप्ति की विधियाँ बताई गई हैं।
सातवाँ अध्याय: मनुष्य और ब्रह्म
सातवें अध्याय में मनुष्य और ब्रह्म के बीच के संबंध को स्पष्ट किया गया है। इसमें बताया गया है कि मनुष्य के भीतर ही ब्रह्म का निवास है और उसे पहचानने के लिए आत्मज्ञान आवश्यक है।
आठवाँ अध्याय: आत्मा का अनुसंधान
आठवें अध्याय में आत्मा के अनुसंधान की विधियों का वर्णन है। इसमें बताया गया है कि आत्मा की खोज और उसकी प्राप्ति के लिए व्यक्ति को किस प्रकार का जीवन जीना चाहिए।
छान्दोग्योपनिषद् में वर्णित कथाएँ
छान्दोग्योपनिषद् भारतीय वेदों के उपनिषदों में से एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसमें अनेक गूढ़ और रहस्यमयी कथाएँ मिलती हैं, जो दार्शनिक और आध्यात्मिक ज्ञान से भरपूर होती हैं। इन कथाओं का उद्देश्य मनुष्य को आत्मज्ञान की दिशा में प्रेरित करना है। आइए, कुछ प्रमुख कथाओं पर एक दृष्टि डालें।
सत्यकाम और गौतम ऋषि की कथा का शक्षीप्त रूप
एक बार सत्यकाम नामक बालक ने गौतम ऋषि से शिक्षा प्राप्त करने की इच्छा प्रकट की। सत्यकाम की माँ ने उसे कहा कि वह स्वयं अपने पिता का नाम नहीं जानती। जब सत्यकाम ने गौतम ऋषि के पास जाकर अपनी सत्यता बताई, तो ऋषि ने उसकी सत्यनिष्ठा और पवित्रता की सराहना की और उसे शिष्य के रूप में स्वीकार किया। इस कथा से हमें सत्य और ईमानदारी के महत्त्व का पाठ मिलता है।
उद्दालक और श्वेतकेतु की कथा का संशिप्त रूप
उद्दालक ऋषि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को वेदों का ज्ञान दिया। एक दिन उद्दालक ने श्वेतकेतु से पूछा, “क्या तुम उस तत्व को जानते हो, जिससे सब कुछ उत्पन्न होता है?” श्वेतकेतु ने उत्तर दिया, “नहीं, पिताजी।” तब उद्दालक ने उसे तत्त्वज्ञान का उपदेश दिया और बताया कि ब्रह्म ही समस्त सृष्टि का मूल कारण है। यह कथा हमें ब्रह्म और आत्मा के एकत्व का ज्ञान कराती है।
राजा अश्वपति और पंचाल का संशिप्त रूप
एक बार पंचाल देश के राजा अश्वपति के पास अनेक ऋषि-मुनि ज्ञान प्राप्त करने आए। राजा ने उन्हें ब्रह्मविद्या का उपदेश दिया। अश्वपति ने बताया कि आत्मा ही परम सत्य है और इसके ज्ञान से ही मोक्ष प्राप्त होता है। यह कथा हमें आत्मविद्या के महत्त्व का बोध कराती है।
नारद और सनतकुमार संशिप्त रूप
नारद मुनि एक बार सनत्कुमार के पास ज्ञान प्राप्त करने आए। सनत्कुमार ने नारद से पूछा, “तुम्हें क्या ज्ञात है?” नारद ने उत्तर दिया, “मैं वेद, वेदांग, पुराण, इतिहास आदि का ज्ञान रखता हूँ, परंतु आत्मज्ञान से वंचित हूँ।” तब सनत्कुमार ने नारद को आत्मज्ञान का उपदेश दिया और बताया कि आत्मा ही सभी कष्टों से मुक्त कर सकती है। यह कथा हमें आत्मज्ञान की श्रेष्ठता का बोध कराती है।
शिखिद्वज और चूड़ाल संशिप्त रूप
एक समय की बात है, शिखिद्वज नामक राजा अपनी रानी चूड़ाल के साथ राज्य करते थे। राजा शिखिद्वज जीवन की अस्थायीत्वता और मृत्यु के विचार से चिंतित रहते थे। उन्होंने राजपाट छोड़कर वन में तपस्या करने का निश्चय किया। रानी चूड़ाल ने राजा को समझाने का प्रयास किया, परंतु राजा ने अपनी जिद्द नहीं छोड़ी।
चूड़ाल ने राजा की चिंता का समाधान करने के लिए एक योजना बनाई। वह एक योगिनी का रूप धारण कर शिखिद्वज के पास गई और उन्हें आत्मज्ञान का उपदेश देने लगी। उन्होंने बताया कि सच्ची शांति और संतोष बाहरी तपस्या में नहीं, बल्कि आंतरिक आत्मज्ञान में है। राजा शिखिद्वज ने उनकी बातें सुनी और आत्मचिंतन में लीन हो गए। अंततः उन्हें ब्रह्म और आत्मा का सत्यज्ञान हुआ। इस कथा से हमें यह शिक्षा मिलती है कि जीवन का सच्चा सुख और शांति आंतरिक जागरूकता और आत्मज्ञान में ही निहित है।
स्वेतकेतु और उदालक की शिक्षा
उदालक ऋषि ने अपने पुत्र श्वेतकेतु को वेदों का अध्ययन करने के लिए गुरुकुल भेजा। वर्षों बाद जब श्वेतकेतु वापस आया, तो उसे अपने ज्ञान पर गर्व था। उदालक ने उससे पूछा, “क्या तुम उस तत्व को जानते हो, जिससे सारा संसार उत्पन्न होता है?” श्वेतकेतु ने नकारात्मक उत्तर दिया। तब उदालक ने उसे बताया कि सभी वस्तुएं एक ही मूल तत्व से उत्पन्न होती हैं, जिसे ब्रह्म कहते हैं। उन्होंने यह भी सिखाया कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं। यह कथा हमें ब्रह्म और आत्मा के एकत्व का बोध कराती है और यह बताती है कि संसार की सभी वस्तुएं मूलतः एक ही तत्व से निर्मित हैं।