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गुरूवार, फ़रवरी 13, 2025

श्री देव्यथर्वशीर्षम्

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Sri Devi Atharva Sheersham in Hindi

श्री देव्यथर्वशीर्षम्(Sri Devi Atharva Sheersham) हिन्दू धर्मग्रंथों में एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है, जो देवी उपासना की परंपरा से जुड़ा हुआ है। यह ग्रंथ अथर्ववेद के अंतर्गत आता है और इसमें देवी की महिमा, स्वरूप, शक्ति और कृपा का वर्णन किया गया है। इसे देवी उपनिषद के नाम से भी जाना जाता है। यह पाठ मुख्यतः शाक्त संप्रदाय के अनुयायियों द्वारा पढ़ा जाता है और नवरात्रि, दुर्गा पूजा तथा अन्य देवी साधनाओं में इसका विशेष महत्व होता है।

श्री देव्यथर्वशीर्षम् कुल मिलाकर प्रश्नोत्तर शैली में लिखा गया है, जहाँ ऋषि देवी से उनके स्वरूप, शक्तियों और प्रभाव के बारे में प्रश्न पूछते हैं, और देवी स्वयं उत्तर देकर अपने तत्व को प्रकट करती हैं। इसमें निम्नलिखित विषयों पर प्रकाश डाला गया है—

  1. देवी का स्वरूप – देवी अपने स्वरूप को समस्त ब्रह्मांड की आधारशिला के रूप में प्रस्तुत करती हैं। वे कहती हैं कि संपूर्ण सृष्टि उन्हीं से प्रकट हुई है और वे ही इस जगत की अधिष्ठात्री शक्ति हैं।
  2. शक्तियों का वर्णन – देवी स्वयं को माया, ज्ञान, बुद्धि, शक्ति, सर्वज्ञता और परब्रह्म के रूप में वर्णित करती हैं।
  3. उपासना का महत्व – इसमें यह भी बताया गया है कि जो व्यक्ति इस स्तोत्र का नियमित रूप से पाठ करता है, उसे सभी सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और वह देवी की कृपा का पात्र बनता है।
  4. देवी की अखिल शक्ति – इसमें यह सिद्ध किया गया है कि देवी ही समस्त देवताओं की शक्ति हैं और वे ही सृजन, पालन और संहार करती हैं।

श्री देव्यथर्वशीर्षम् – Sri Devi Atharva Sheersham

ॐ सर्वे वै देवा देवीमुपतस्थुः कासि त्व-म्महादेवीति ॥ १ ॥

सा-ऽब्रवीदह-म्ब्रह्मस्वरूपिणी ।
मत्तः प्रकृतिपुरुषात्मक-ञ्जगत् ।
शून्य-ञ्चाशून्य-ञ्च ॥ २ ॥

अहमानन्दानानन्दौ ।
अहं-विँज्ञानाविज्ञाने ।
अह-म्ब्रह्माब्रह्मणि वेदितव्ये ।
अह-म्पञ्चभूतान्यपञ्चभूतानि ।
अहमखिल-ञ्जगत् ॥ 3 ॥

वेदो-ऽहमवेदो-ऽहम् ।
विद्या-ऽहमविद्या-ऽहम् ।
अजा-ऽहमनजा-ऽहम् ।
अधश्चोर्ध्व-ञ्च तिर्यक्चाहम् ॥ ४ ॥

अहं रुद्रेभिर्वसुभिश्चरामि ।
अहमादित्यैरुत विश्वदेवैः ।
अह-म्मित्रावरुणावुभौ बिभर्मि ।
अहमिन्द्राग्नी अहमश्विनावुभौ ॥ ५ ॥

अहं सोम-न्त्वष्टार-म्पूषण-म्भग-न्दधामि ।
अहं-विँष्णुमुरुक्रम-म्ब्रह्माणमुत प्रजापति-न्दधामि ॥ ६ ॥

अ॒ह-न्द॑धामि॒ द्रवि॑णं ह॒विष्म॑ते सुप्रा॒व्ये॒3 यज॑मानाय सुन्व॒ते ।
अ॒हं राष्ट्री॑ स॒ङ्गम॑नी॒ वसू॑ना-ञ्चिकि॒तुषी॑ प्रथ॒मा य॒ज्ञिया॑नाम् ।
अ॒हं सु॑वे पि॒तर॑मस्य मू॒र्धन्मम॒ योनि॑र॒प्स्वन्त-स्स॑मु॒द्रे ।
य एवं-वेँद । स देवीं सम्पदमाप्नोति ॥ ७ ॥

ते देवा अब्रुवन्
नमो देव्यै महादेव्यै शिवायै सतत-न्नमः ।
नमः प्रकृत्यै भद्रायै नियताः प्रणता-स्स्म ताम् ॥ ८ ॥

ताम॒ग्निव॑र्णा॒-न्तप॑सा ज्वल॒न्तीं-वैँ॑रोच॒नी-ङ्क॑र्मफ॒लेषु॒ जुष्टा᳚म् ।
दु॒र्गा-न्दे॒वीं शर॑ण-म्प्रप॑द्यामहे-ऽसुरान्नाशयित्र्यै ते नमः ॥ ९ ॥

(ऋ.वे.८.१००.११)
दे॒वीं-वाँच॑मजनयन्त दे॒वास्तां-विँ॒श्वरू॑पाः प॒शवो॑ वदन्ति ।
सा नो॑ म॒न्द्रेष॒मूर्ज॒-न्दुहा॑ना धे॒नुर्वाग॒स्मानुप॒ सुष्टु॒तैतु॑ ॥ १० ॥

कालरात्री-म्ब्रह्मस्तुतां-वैँष्णवीं स्कन्दमातरम् ।
सरस्वतीमदिति-न्दक्षदुहितर-न्नमामः पावनां शिवाम् ॥ ११ ॥

महालक्ष्म्यै च विद्महे सर्वशक्त्यै च धीमहि ।
तन्नो देवी प्रचोदयात् ॥ १२ ॥

अदितिर्​ह्यजनिष्ट दक्ष या दुहिता तव ।
ता-न्देवा अन्वजायन्त भद्रा अमृतबन्धवः ॥ १3 ॥

कामो योनिः कमला वज्रपाणि-
र्गुहा हसा मातरिश्वाभ्रमिन्द्रः ।
पुनर्गुहा सकला मायया च
पुरूच्यैषा विश्वमातादिविद्योम् ॥ १४ ॥

एषा-ऽऽत्मशक्तिः ।
एषा विश्वमोहिनी ।
पाशाङ्कुशधनुर्बाणधरा ।
एषा श्रीमहाविद्या ।
य एवं-वेँद स शोक-न्तरति ॥ १५ ॥

नमस्ते अस्तु भगवति मातरस्मान्पाहि सर्वतः ॥ १६ ॥

सैषाष्टौ वसवः ।
सैषैकादश रुद्राः ।
सैषा द्वादशादित्याः ।
सैषा विश्वेदेवा-स्सोमपा असोमपाश्च ।
सैषा यातुधाना असुरा रक्षांसि पिशाचा यक्षा सिद्धाः ।
सैषा सत्त्वरजस्तमांसि ।
सैषा ब्रह्मविष्णुरुद्ररूपिणी ।
सैषा प्रजापतीन्द्रमनवः ।
सैषा ग्रहनक्षत्रज्योतींषि । कलाकाष्ठादिकालरूपिणी ।
तामह-म्प्रणौमि नित्यम् ।
पापापहारिणी-न्देवी-म्भुक्तिमुक्तिप्रदायिनीम् ।
अनन्तां-विँजयां शुद्धां शरण्यां शिवदां शिवाम् ॥ १७ ॥

वियदीकारसं​युँक्तं-वीँतिहोत्रसमन्वितम् ।
अर्धेन्दुलसित-न्देव्या बीजं सर्वार्थसाधकम् ॥ १८ ॥

एवमेकाक्षर-म्ब्रह्म यतय-श्शुद्धचेतसः ।
ध्यायन्ति परमानन्दमया ज्ञानाम्बुराशयः ॥ १९ ॥

वाङ्माया ब्रह्मसूस्तस्मा-थ्षष्ठं-वँक्त्रसमन्वितम् ।
सूर्यो-ऽवामश्रोत्रबिन्दुसं​युँक्तष्टात्तृतीयकः ।
नारायणेन सम्मिश्रो वायुश्चाधरयुक्ततः ।
विच्चे नवार्णको-ऽर्ण-स्स्यान्महदानन्ददायकः ॥ २० ॥

हृत्पुण्डरीकमध्यस्था-म्प्रातस्सूर्यसमप्रभाम् ।
पाशाङ्कुशधरां सौम्यां-वँरदाभयहस्तकाम् ।
त्रिनेत्रां रक्तवसना-म्भक्तकामदुघा-म्भजे ॥ २१ ॥

नमामि त्वा-म्महादेवी-म्महाभयविनाशिनीम् ।
महादुर्गप्रशमनी-म्महाकारुण्यरूपिणीम् ॥ २२ ॥

यस्या-स्स्वरूप-म्ब्रह्मादयो न जानन्ति तस्मादुच्यते अज्ञेया ।
यस्या अन्तो न लभ्यते तस्मादुच्यते अनन्ता ।
यस्या लक्ष्य-न्नोपलक्ष्यते तस्मादुच्यते अलक्ष्या ।
यस्या जनन-न्नोपलभ्यते तस्मादुच्यते अजा ।
एकैव सर्वत्र वर्तते तस्मादुच्यते एका ।
एकैव विश्वरूपिणी तस्मादुच्यते नैका ।
अत एवोच्यते अज्ञेयानन्तालक्ष्याजैका नैकेति ॥ २3 ॥

मन्त्राणा-म्मातृका देवी शब्दाना-ञ्ज्ञानरूपिणी ।
ज्ञानाना-ञ्चिन्मयातीता शून्यानां शून्यसाक्षिणी ।
यस्याः परतर-न्नास्ति सैषा दुर्गा प्रकीर्तिता ॥ २४ ॥

ता-न्दुर्गा-न्दुर्गमा-न्देवी-न्दुराचारविघातिनीम् ।
नमामि भवभीतो-ऽहं संसारार्णवतारिणीम् ॥ २५ ॥

इदमथर्वशीर्​षं-योँ-ऽधीते स पञ्चाथर्वशीर्​षजपफलमाप्नोति ।
इदमथर्वशीर्​षमज्ञात्वा यो-ऽर्चां स्थापयति ।
शतलक्ष-म्प्रजप्त्वा-ऽपि सो-ऽर्चासिद्धि-न्न विन्दति ।
शतमष्टोत्तर-ञ्चास्य पुरश्चर्याविधि-स्स्मृतः ।
दशवार-म्पठेद्यस्तु सद्यः पापैः प्रमुच्यते ।
महादुर्गाणि तरति महादेव्याः प्रसादतः । २६ ॥

सायमधीयानो दिवसकृत-म्पाप-न्नाशयति ।
प्रातरधीयानो रात्रिकृत-म्पाप-न्नाशयति ।
साय-म्प्रातः प्रयुञ्जानो अपापो भवति ।
निशीथे तुरीयसन्ध्याया-ञ्जप्त्वा वाक्सिद्धिर्भवति ।
नूतनाया-म्प्रतिमाया-ञ्जप्त्वा देवतासान्निध्य-म्भवति ।
प्राणप्रतिष्ठाया-ञ्जप्त्वा प्राणाना-म्प्रतिष्ठा भवति ।
भौमाश्विन्या-म्महादेवीसन्निधौ जप्त्वा महामृत्यु-न्तरति ।
स महामृत्यु-न्तरति ।
य एवं-वेँद ।
इत्युपनिषत् ॥ २७ ॥

इति देव्यथर्वशीर्​षम् ।

श्री देव्यथर्वशीर्षम् का महत्व

  1. शक्ति साधना का मूल आधार – यह पाठ शक्ति साधकों के लिए अत्यंत आवश्यक है क्योंकि इसमें देवी को परमशक्ति के रूप में स्वीकार किया गया है।
  2. नवरात्रि एवं विशेष अनुष्ठान – नवरात्रि, चंडी पाठ और दुर्गा उपासना के समय श्री देव्यथर्वशीर्षम् का पाठ विशेष फलदायी माना जाता है।
  3. संकटमोचक ग्रंथ – यह पाठ व्यक्ति के जीवन से समस्त संकटों को दूर करता है और उसमें आत्मविश्वास एवं आध्यात्मिक ऊर्जा भरता है।
  4. भौतिक एवं आध्यात्मिक उन्नति – इसका नित्य पाठ करने से व्यक्ति को लौकिक और पारलौकिक दोनों प्रकार के लाभ प्राप्त होते हैं।

पाठ विधि

श्री देव्यथर्वशीर्षम् का पाठ करने के लिए विशेष नियमों का पालन करना आवश्यक है—

  • स्वच्छता और सात्त्विकता का ध्यान रखें।
  • देवी की मूर्ति, चित्र या यंत्र के सामने बैठकर पाठ करें।
  • नवरात्रि, पूर्णिमा, अमावस्या, शुक्रवार एवं चंडी पाठ के समय इसका पाठ विशेष फलदायी होता है।
  • पाठ के बाद देवी की आरती और पुष्पांजलि अर्पण करें।

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