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बुधवार, मई 7, 2025

रश्मिरथी

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रश्मिरथी

रश्मिरथी, जिसका अर्थ “सूर्य की सारथी(सूर्यकिरण रूपी रथ का सवार)” है, हिन्दी के महान कवि रामधारी सिंह दिनकर द्वारा 1952 में प्रकाशित हुआ प्रसिद्ध खण्डकाव्य है। इसका नायक महाभारत का पात्र कर्ण है तथा इसमें सात सर्ग हैं। इस महाकाव्य में कर्ण का जीवन-दर्शन, संघर्ष और नैतिक पराक्रम का वर्णन किया गया हैं। कथा के अनुसार अविवाहित कुन्ती के गर्भ से जन्मे कर्ण को समाज की लज्जा से बचने के लिए गंगा में बहा दिया गया था, जहां उसे अधिरथ नामक सारथि दम्पति ने गोद लिया वहा से उनका लालन पालन और संस्कारो का सिंचन हुवा और वही से कर्ण को “राधेय” का दूसरा नाम भी मिल। कर्ण बाल्य से ही असाधारण वीर था, उनेक पश्चात गुरु द्रोंण के पास से शस्त्र विधा का आग्रह किया परन्तु राजपुत्र और क्षत्रिय ना होने के कारण मना करने के बाद गुरु परसुराम के पास से शिक्षा ग्रहण की बाद में दुर्योधन का सच्चा मित्र बन गया और उसे अंग देश का राजा नियुक्त किया गया। दिनकर ने इस महाकाव्य में स्पष्ट किया है कि कर्म से ही मनुष्य की सार्थकता होती है – “जन्म-अवैधता से कर्म की वैधता नष्ट नहीं होती, अपने कर्मों से मनुष्य मृत्यु-पूर्व जन्म में एक और जन्म ले लेता है”। जाति-पाति से ऊपर उठकर व्यक्ति का मूल्यांकन उसके आचरण और योगदान से होना चाहिए।

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ का परिचय

रामधारी सिंह ‘दिनकर’ (23 सितंबर 1908 – 24 अप्रैल 1974) हिन्दी के एक प्रसिद्ध निबंधकार एवं कवि थे। वे स्वतंत्रता के पूर्वी काल के वीररस के प्रधान कवि के रूप में गिने जाते है, जिनकी कविताओं में अंग्रेज के खिलाफ विद्रोह और क्रांति की पुकार रहती थी। उनकी प्रमुख कृतियों में परशुराम की प्रतीक्षा, कुरुक्षेत्र, उर्वशी और रश्मिर शामिल हैं। दिनकर का जन्म बिहार के एक छोटे से गाव सिमरिया में हुआ था और उन्होंने स्वतंत्रता संग्राम में भाग लिया। उन्हें 1959 में पद्मभूषण और 1972 में ज्ञानपीठ पुरस्कार से सम्मानित किया गया है। अपने युग के कवि के रूप में दिनकर ने परंपराओं और सामाजिक अन्याय के विरुद्ध मुखर लेखनी अपनाई, जिससे उनकी रचनाएँ अपने समय में और बाद में भी उच्च प्रशंसा पाती रहीं। और एक उच्च कवीओ में स्थान प्राप्त किया।

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Image credit : Tathyatarang

रश्मिरथी का प्रमुख पात्र (कर्ण)

इस खण्डकाव्य का केंद्रबिंदु अर्जुन के समकक्ष वीर योद्धा कर्ण है, जिसे दिनकर ने उत्तम चरित्र, महान् दानवीरता और सामाजिक अन्याय के शिकार के रूप में बखूबी उभारा है। कर्ण सूर्यदेव के पुत्र थे,जो की विवाह के पूर्व मंत्र शक्ति द्वारा अविवाहित कुन्ती से हुवा था समाज के डर से कुंती ने उनको गंगा में बहा दिया था उसके पश्चात उसका पालन-पोषण अधिरथ और राधा ने एक सारथी पुत्र की भाँति किया। दिनकर ने कर्ण को ‘नई मानवता की स्थापना’ का प्रतीक माना है। गुरुकुल में कर्ण परशुराम के शिष्य थे, पर अपने ग़लत आरोपण के कारण गुरुदेव का क्रोध झेलते है। परशुराम उससे कहते हैं: “यह शाप अटल है… जो कुछ मैंने कहा, उसे सिर पर ले कर सादर वहन करो”। इस श्राप का भी कर्ण पर कोई तीव्र प्रभाव नहीं पड़ता। वह दानवीरता के लिए विख्यात था। देवराज इन्द्र जब उसके तेजस्वी और अजेय जन्म जात पाए गए कवच-कुण्डल माँगने आए, तब भी कर्ण ने उनसे कहा कि “जीवन देकर भी वचन का पालन करना एक कर्म निष्ठ मनुष्य का कर्त्तव्य है”। अन्य पात्रों में दुर्योधन कर्ण का सखा और संरक्षक है, जिसने कर्ण को राजा बनाया और उसके अस्तित्व को सम्मान दिया। कुन्ती कर्ण की गोद माता है, जो अन्तिम सर्ग में उससे मिलती है, किंतु कर्ण अपनी निष्ठा नहीं छोड़ता। महाभारत में श्रीकृष्ण ने कर्ण को शांतिपूर्वक पक्ष बदलने का प्रस्ताव दिया, पर कर्ण ने अपने धर्म और मित्रता की मजबूरी बताकर उसे अस्वीकार कर दिया। इन प्रमुख पात्रों एवं घटनाओं के ज़रिए दिनकर ने सामाजिक बन्धनों, दानशीलता, निष्ठा और आत्मसम्मान के प्रश्न उठाए हैं।

रश्मिरथी के प्रमुख प्रसंग एवं घटनाएँ

दिव्य घटनाओं में “रश्मिरथी” के चौथे सर्ग में इन्द्र और कर्ण की कथा है। देवतागण युद्ध में विजयी बनने के लालच में इन्द्र कर्ण से कवच-कुण्डल दान में देने को कहते हैं, जिसे कर्ण बिना हिचकिचाहट त्याग देता है। । इसके बदले में देवराज इंद्र ने उसे विजयी होने के लिए वरदान स्वरूप शक्ति प्रदान करते हैं। पांचवे सर्ग में कर्ण से उसकी मां कुन्ती मिलती है पर कर्ण अपना कर्तव्य निभाते हुए दुर्योधन का साथ नहीं छोड़ता। अंतिम सातवें सर्ग में महाभारत के युद्धभूमि में कर्ण का वध होता है। इन प्रसंगों के माध्यम से कवि ने कर्ण की दुविधा, त्याग और मानवीय भावों को दर्शाया गया है।

दिनकर की भाषा शैली एवं साहित्यिक विशेषताएँ

दिनकर की भाषा शुद्ध और द्विवार्षिक छंदों वाली एवं वीर रसप्रधान है। उन्होंने अपने काव्य में सुद्ध संस्कृत शब्दों और विराट अलंकारों का भरपूर रूप से उपयोग किया है। उनकी कविताओं में ओजपूर्ण भाव और विद्रोह भरे शिल्प तत्व स्पष्ट रूप से दिखाई देते हैं। ‘रश्मिरथी’ में भी कर्ण के संवादों और वर्णनों में यथार्थपरक एवं प्रभावशाली शब्दचित्र हैं। कुल मिलाकर, दिनकर की शैली में शक्ति, उत्साह एवं राष्ट्रभक्ति का समागम है, जो पाठकों को गहरे प्रभावित करता है।

रचनात्मकता और पौराणिक परिप्रेक्ष्य

दिनकर ने महाभारत की प्राचीन कथा को नए दृष्टिकोण से फिर से प्रस्तुत किया है। जैसा कहा गया है की, “कहानी पुरानी है, काव्य प्रस्तुति नई है”। कर्ण को यहाँ एक कर्मनिष्ठ और दार्शनिक नायक की भाँति उभारा गया है। दिनकर ने मिथकीय घटनाओं के माध्यम से आधुनिक चिंताओं जैसे जातिवाद, सामाजिक न्याय और व्यक्तित्व के संघर्ष को सामने रखा है। रचनात्मकता की दृष्टि से भी यह काव्य विशिष्ट है, क्योंकि इसमें पुरातन कथा को व्यक्तिगत अनुभव और समकालीन मूल्यों के संदर्भ में जीवंत किया गया है।

रश्मिरथी के आलोचनात्मक दृष्टिकोण एवं समकालीन प्रासंगिकता

कुछ लोग के मुताबिक ‘रश्मिरथी’ को दलित उद्धारवादी और जाति भेदभाव विरोधी रचना माना है। दिनकर ने खुद कहा कि कर्ण का चरित्र “नई मानवता की स्थापना” का एक उतकृष्ट उदाहरण है। उनकी कविताओं का मुख्‍य स्वर अन्याय के प्रति आवाज उठाना है, अतः इस काव्य में भी सामाजिक अन्याय, निष्ठा और व्यक्तिगत संघर्ष की भावना स्पष्ट झलकती है। आज के समय में जहाँ जातीय और सामाजिक असमानताएँ बनी हुई हैं, ‘रश्मिरथी’ का संदेश उतना ही प्रासंगिक है। यह काव्य न केवल वीरता और त्याग का स्मारक है, बल्कि अस्मिता, सम्मान और धर्म की बहस भी है, जो आधुनिक पाठकों को प्रेरित करता है।

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Image Source : Amazon

अनुक्रमणिका

प्रथम सर्ग
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 1
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 2
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 3
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 4
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 5
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 6
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 7
द्वितीय सर्ग
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 1
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 2
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 3
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 4
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 5
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 6
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 7
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 8
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 9
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 10
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 11
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 12
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 13
तृतीय सर्ग
रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 1
रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 2
रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 3
रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 4
रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 5
रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 6
रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 7
चतुर्थ सर्ग
रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 1
रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 2
रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 3
रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 4
रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 5
रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 6
रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 7
पंचम सर्ग
रश्मिरथी – पंचम सर्ग – भाग 1
रश्मिरथी – पंचम सर्ग – भाग 2
रश्मिरथी – पंचम सर्ग – भाग 3
रश्मिरथी – पंचम सर्ग – भाग 4
रश्मिरथी – पंचम सर्ग – भाग 5
रश्मिरथी – पंचम सर्ग – भाग 6
रश्मिरथी – पंचम सर्ग – भाग 7
षष्ठ सर्ग
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 1
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 2
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 3
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 4
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 5
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 6
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 7
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 8
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 9
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 10
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 11
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 12
रश्मिरथी – षष्ठ सर्ग – भाग 13
सप्तम सर्ग
रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 1
रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 2
रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 3
रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 4
रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 5
रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 6
रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 7
रश्मिरथी – सप्तम सर्ग – भाग 8

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