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मंगलवार, जून 24, 2025

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 9 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 9

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महाभारत के पात्र कर्ण को ब्रह्मास्त्र विद्या सीखने की तीव्र लालसा थी। परंतु उस समय समाज में जातीय व्यवस्था इतनी कठोर थी कि परशुराम जैसे गुरु केवल ब्राह्मणों और क्षत्रियों को ही उच्च युद्ध विद्या सिखाते थे। इसलिए कर्ण ने झूठ बोलकर स्वयं को ब्राह्मण बताया और परशुराम से दीक्षा ली।

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रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 9 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 9

सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है,
किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है।
सह सकता जो कठिन वेदना, पी सकता अपमान वही,
बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।

तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,
किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?
कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है?
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।

तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा,
परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।’
क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!’ गिरा कर्ण गुरु के पद पर,
मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!

सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,
जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ
छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ,
आया था विद्या-संचय को, किन्तु, व्यर्थ बदनाम हुआ।

बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का,
तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।
पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे,
महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।

बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,
करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी।
पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ,
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।

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भावार्थ एवं व्याख्या

“सहनशीलता को अपनाकर ब्राह्मण कभी न जीता है,
किसी लक्ष्य के लिए नहीं अपमान-हलाहल पीता है।”

यहाँ परशुराम कहते हैं कि ब्राह्मण सहनशील जरूर होता है, परंतु वह अपमान का ज़हर केवल किसी ऊँचे उद्देश्य के लिए ही पी सकता है। वह बिना कारण तिल-तिल जलने वाला नहीं होता। यह संकेत है कि कर्ण का झूठ परशुराम के आत्मसम्मान को ठेस पहुँचा चुका है।

“बुद्धि चलाती जिसे, तेज का कर सकता बलिदान वही।”

यहाँ परशुराम उस व्यक्तित्व की बात करते हैं जो बुद्धि और आत्मबल से प्रेरित होकर अपनी प्रतिष्ठा तक का बलिदान कर सकता है। यानी केवल वही वीर वास्तविक क्षत्रिय होता है, जो कठिन अपमान और वेदना को भी धैर्यपूर्वक सह सके।

“तेज-पुञ्ज ब्राह्मण तिल-तिल कर जले, नहीं यह हो सकता,
किसी दशा में भी स्वभाव अपना वह कैसे खो सकता?”

इस पंक्ति में परशुराम स्पष्ट करते हैं कि ब्राह्मण अपने तेज (ज्ञान और तप) के कारण जल सकता है, परंतु अपने स्वभाव से विचलित नहीं हो सकता। वह अगर ठगा जाए, अपमानित हो तो क्रोध में नहीं आता, बल्कि त्याग करता है। परंतु उन्हें जो धोखा मिला, वह एक ब्राह्मण के लिए असहनीय है।

“कसक भोगता हुआ विप्र निश्चल कैसे रह सकता है?
इस प्रकार की चुभन, वेदना क्षत्रिय ही सह सकता है।”

यहाँ एक महत्वपूर्ण कथन है – परशुराम कहते हैं कि अपमान और चोट की यह तीव्रता केवल क्षत्रिय ही सह सकता है, ब्राह्मण नहीं। यह पंक्ति कर्ण के वास्तविक क्षत्रिय होने की ओर संकेत करती है।

“तू अवश्य क्षत्रिय है, पापी! बता, न तो, फल पायेगा,
परशुराम के कठिन शाप से अभी भस्म हो जायेगा।'”

यहाँ परशुराम को अब सच्चाई समझ में आ जाती है कि कर्ण ब्राह्मण नहीं है – वह क्षत्रिय है। लेकिन चूँकि उसने छल से शिक्षा ली, इसलिए परशुराम उसे शाप देते हैं कि जब वह सबसे अधिक अपने ज्ञान का प्रयोग करना चाहेगा – तब उसे वह ज्ञान याद नहीं आएगा।

“‘क्षमा, क्षमा हे देव दयामय!’ गिरा कर्ण गुरु के पद पर,
मुख विवर्ण हो गया, अंग काँपने लगे भय से थर-थर!”

यहाँ कर्ण अपनी भूल स्वीकार कर गुरु के चरणों में गिर पड़ता है। उसका मुख पीला पड़ गया है और शरीर भय से कांप रहा है। यह उसका पश्चात्ताप है।

“सूत-पूत्र मैं शूद्र कर्ण हूँ, करुणा का अभिलाषी हूँ,
जो भी हूँ, पर, देव, आपका अनुचर अन्तेवासी हूँ”

कर्ण विनम्रता से कहता है कि वह सूतपुत्र है और गुरु के प्रति समर्पित है। वह करुणा की याचना करता है। वह अपने शुद्ध भावों को प्रस्तुत करता है – वह कहता है कि उसने छल नहीं किया, वह केवल ज्ञान का इच्छुक था।

“छली नहीं मैं हाय, किन्तु छल का ही तो यह काम हुआ,
आया था विद्या-संचय को, किन्तु, व्यर्थ बदनाम हुआ।”

कर्ण कहता है कि उसका उद्देश्य छल नहीं था, केवल ज्ञान प्राप्त करना था। परंतु परिस्थिति ऐसी रही कि वह छल के आरोप में बदनाम हो गया।

“बड़ा लोभ था, बनूँ शिष्य मैं कार्त्तवीर्य के जेता का,
तपोदीप्त शूरमा, विश्व के नूतन धर्म-प्रणेता का।”

कर्ण यह बताता है कि उसे यह आकांक्षा थी कि वह परशुराम जैसे महान तपस्वी और योद्धा का शिष्य बने। उसके लिए यह गर्व की बात थी।

“पर, शंका थी मुझे, सत्य का अगर पता पा जायेंगे,
महाराज मुझ सूत-पुत्र को कुछ भी नहीं सिखायेंगे।”

कर्ण स्पष्ट करता है कि उसने झूठ इसलिए बोला क्योंकि उसे आशंका थी कि उसकी जाति जानकर परशुराम उसे शिक्षा नहीं देंगे। समाज की कठोर व्यवस्था के कारण उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा।

“बता सका मैं नहीं इसी से प्रभो! जाति अपनी छोटी,
करें देव विश्वास, भावना और न थी कोई खोटी।”

कर्ण इस बात पर जोर देता है कि उसकी भावना में कोई छल नहीं था, बस जातिगत भेदभाव से बचने के लिए उसने जाति छुपाई।

“पर इतने से भी लज्जा में हाय, गड़ा-सा जाता हूँ,
मारे बिना हृदय में अपने-आप मरा-सा जाता हूँ।”

कर्ण का यह कथन अत्यंत मार्मिक है – वह कहता है कि वह भीतर से शर्म और अपराधबोध से मरता जा रहा है। यह उसकी आत्मपीड़ा का साक्षात्कार है।

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