“रश्मिरथी” द्वितीय सर्ग के भाग 4 में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ उस सामाजिक, राजनीतिक और नैतिक संघर्ष की गूंज प्रस्तुत करते हैं जो ब्राह्मणों और राजाओं के बीच की शक्ति-संरचना को लेकर है। यह अंश कर्ण के दृष्टिकोण को उभारता है, जो तत्कालीन समाज में विद्यमान असमानताओं और अन्याय पर एक गहरी दृष्टि डालता है।

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 4 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 4
खड्ग बड़ा उद्धृत होता है, उद्दत होते हैं राजे,
इसीलिए तो सदा बनाते रहते वे रण के बाजे।
और करे ज्ञानी ब्राह्मण क्या? असि-विहीन मन डरता है,
राजा देता मान, भूप का वह भी आदर करता है।
‘सुनता कौन यहाँ ब्राह्मण की, करते सब अपने मन की,
डुबो रही शोणित में भू को भूपों की लिप्सा रण की।
औ’ रण भी किसलिए? नहीं जग से दुख-दैन्य भगाने को,
परशोषक, पथ-भ्रान्त मनुज को नहीं धर्म पर लाने को।
रण केवल इसलिए कि राजे और सुखी हों, मानी हों,
और प्रजाएँ मिलें उन्हें, वे और अधिक अभिमानी हों।
रण केवल इसलिए कि वे कल्पित अभाव से छूट सकें,
बढ़े राज्य की सीमा, जिससे अधिक जनों को लूट सकें।
रण केवल इसलिए कि सत्ता बढ़े, नहीं पत्ता डोले,
भूपों के विपरीत न कोई, कहीं, कभी, कुछ भी बोले।
ज्यों-ज्यों मिलती विजय, अहं नरपति का बढ़ता जाता है,
और जोर से वह समाज के सिर पर चढ़ता जाता है।
अब तो है यह दशा कि जो कुछ है, वह राजा का बल है,
ब्राह्मण खड़ा सामने केवल लिए शंख-गंगाजल है।
कहाँ तेज ब्राह्मण में, अविवेकी राजा को रोक सके,
धरे कुपथ पर जभी पाँव वह, तत्क्षण उसको टोक सके।
और कहे भी तो ब्राह्मण की बात कौन सुन पाता है?
यहाँ रोज राजा ब्राह्मण को अपमानित करवाता है।
चलती नहीं यहाँ पंडित की, चलती नहीं तपस्वी की,
जय पुकारती प्रजा रात-दिन राजा जयी यशस्वी की!

मुख्य विचार
- कवि कर्ण के माध्यम से उस व्यवस्था की आलोचना करते हैं जिसमें शक्ति (बल) को ही नैतिकता और अधिकार का आधार बना दिया गया है।
- यह खंड केवल ब्राह्मण बनाम राजा का संघर्ष नहीं है, बल्कि “बुद्धि बनाम बल”, “धर्म बनाम सत्ता”, और “न्याय बनाम अहंकार” की द्वंद्वात्मकता को प्रस्तुत करता है।
- यह सवाल करता है कि जब ज्ञान और नैतिकता को दबा दिया जाए, तो समाज किस दिशा में जाएगा?
संदर्भ के अनुसार कर्ण का आक्रोश:
कर्ण स्वयं एक महान योद्धा है, पर ब्राह्मणों द्वारा शापित, क्षत्रियों द्वारा अपमानित और समाज द्वारा तिरस्कृत। उसके भीतर यह पीड़ा गहराई से बैठी है कि समाज केवल जाति और सत्ता से प्रभावित होता है, न कि गुण और न्याय से। अतः यह अंश केवल सामाजिक व्याख्या नहीं है, यह कर्ण की आत्म-चेतना और पीड़ा का उद्घाटन भी है।
रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की लेखनी समाज के गहरे द्वंद्व को उजागर करती है। द्वितीय सर्ग का यह भाग विशेष रूप से उस अन्यायपूर्ण व्यवस्था की आलोचना है जहाँ शक्ति का संकेन्द्रण नैतिक मूल्यों को कुचल देता है। यह भाग आज भी प्रासंगिक है और सत्ता-नैतिकता के संबंध पर पुनर्विचार की माँग करता है।