“रश्मिरथी” (अर्थात रश्मियों का रथारूढ़), महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित एक प्रसिद्ध खंडकाव्य है, जो महाभारत के महान योद्धा कर्ण के जीवन और संघर्षों पर आधारित है। यह काव्य हिंदी साहित्य की एक अमूल्य धरोहर है, जिसमें कर्ण के व्यक्तित्व, मनोविज्ञान, सामाजिक विरोधाभासों और नैतिक द्वंद्व को अत्यंत ओजपूर्ण एवं भावनात्मक शैली में प्रस्तुत किया गया है।
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 1
‘जय हो’ जग में जले जहाँ भी, नमन पुनीत अनल को,
जिस नर में भी बसे, हमारा नमन तेज को, बल को।
किसी वृन्त पर खिले विपिन में, पर, नमस्य है फूल,
सुधी खोजते नहीं, गुणों का आदि, शक्ति का मूल।
ऊ॑च-नीच का भेद न माने, वही श्रेष्ठ ज्ञानी है,
दया-धर्म जिसमें हो, सबसे वही पूज्य प्राणी है।
क्षत्रिय वही, भरी हो जिसमें निर्भयता की आग,
सबसे श्रेष्ठ वही ब्राह्मण है, हो जिसमें तप-त्याग।
तेजस्वी सम्मान खोजते नहीं गोत्र बतला के,
पाते हैं जग में प्रशस्ति अपना करतब दिखला के।
हीन मूल की ओर देख जग गलत कहे या ठीक,
वीर खींच कर ही रहते हैं इतिहासों में लीक।
जिसके पिता सूर्य थे, माता कुन्ती सती कुमारी,
उसका पलना हुआ धार पर बहती हुई पिटारी।
सूत-वंश में पला, चखा भी नहीं जननि का क्षीर,
निकला कर्ण सभी युवकों में तब भी अद्भुत वीर।
तन से समरशूर, मन से भावुक, स्वभाव से दानी,
जाति-गोत्र का नहीं, शील का, पौरुष का अभिमानी।
ज्ञान-ध्यान, शस्त्रास्त्र, शास्त्र का कर सम्यक् अभ्यास,
अपने गुण का किया कर्ण ने आप स्वयं सुविकास।
‘रश्मिरथी’ के प्रथम सर्ग की शुरुआत एक अत्यंत उद्घोषात्मक और प्रेरणादायक शैली में होती है। इसमें दिनकर ने सबसे पहले उस महापुरुष को प्रणाम किया है जो समाज की रूढ़ियों से लड़ता है, अकेले अपने भाग्य को बदलने के लिए संघर्ष करता है, और अंततः अपने पराक्रम, ज्ञान और आत्मबल से अपने लिए स्थान बनाता है।
यह सर्ग कर्ण के जन्म, शैशव, और युवावस्था की पृष्ठभूमि को प्रस्तुत करता है। इसमें बताया गया है कि किस प्रकार वह एक सूतपुत्र होते हुए भी क्षत्रियों से बढ़कर प्रतिभावान था। समाज ने उसे सिर्फ उसकी जाति के आधार पर तिरस्कृत किया, लेकिन उसने कभी हार नहीं मानी।