ब्राह्मण और बिच्छूकी कथा – Brahman Aur Bichchho ki Katha
विश्वपावनी बाराणसिमें संत एक थे करते वास ।
राम-चरण-तल्लीन-चित्त थे, नाम-निरत, नय-निपुण, निरास ॥ १ ॥
नित सुरसरिमें अवगाहन कर, विश्वेश्वर-अर्चन करते ।
क्षमाशील, पर-युक्त-कातर थे, नहीं किसीसे से डरते ॥
एक दिवस श्रीभागीरथिमें ब्राह्मण विक्ष्य नहाते थे ।
दबासिंधु देबकिनं दनके गोप्य गुणोंको गाते थे ॥
देखा, एक बहा जाता है वृश्चिक जल-धाराके साथ ।
दीन समझकर उसे उठाया संत विप्रने हाथों-हाथ ॥ २ ॥
रखकर उसे इथेलीपर फिर, संत पोंछने लगे निशंक ।
खल, कृतघ्न, पापी वृश्चिकने मारा उनके भीषण डंक ॥
काँप उठा तत्काल हाथ, गिर पड़ा अधम वह जलके बीच ।
लगा डूबने अथाह जलमें निज करनीवश निष्ठुर नीच ॥ ३ ॥
देखा मरणासन्न, संक्का चित करुणा से भर आया ।
प्रबल वेदना भूल उसे फिर उठा हाथपर, अपनाया ॥
ज्यों ही सम्हला, चेत हुआ, फिर उसने वही डंक मारा ।
हिला हाथ, गिर पड़ा, बहाने लगी उसे जलकी धारा ॥ ४ ॥
देखा पुनः संतने उसको जलमें बहते दीन-मलीन ।
लगे उठाने फिर भी ब्राह्मण क्षमामूर्ति प्रतिहिंसाहीन ॥
नहा रहे थे लोग निकट सब, बोले, ‘क्या करते हैं आप ।
हिंसक जीव बचाना कोई ? धर्म नहीं, है पूरा पाप’ ॥ ५ ॥
चक्खा हाथों-हाथ विषम फल, तब भी करते हैं फिर भूल ।
धर्म-कर्मको डुबा चुका भारत इस कायरताके कूल ॥
भाई ! क्षमा, नहीं कायरता, यह तो बीरोंका बाना ।
स्वल्प महापुरुषोंने है इसका सच्चा स्वरूप जाना ॥ ६ ॥
कभी न डूबा क्षमा-धर्मसे, भारतका वह सच्चा धर्म ।
डूबा, जब भ्रमसे था इसने पहना कायरताका वर्म ॥
भक्तराज प्रहलाद क्षमाके परम मनोहर थे आदर्श ।
जिनसे धर्म बचा था, जो खुद जीत चुके थे हर्षामर्ष ॥ ७ ॥
बोले जब हँसकर यों ब्राह्मण, कहने लगे दूसरे लोग ।
आप जानते हैं तो करिये, हमें बुरा लगता यह योग ॥
कहा संतने, भाई ! मैंने नहीं बड़ा कुछ काम किया ।
निज स्वभाव ही बरता मैंने, इसने भी तो वही किया ॥ ८ ॥
मेरी प्रकृति बचानेकी है, इसकी डंक मारनेकी ।
मेरी इसे हरानेकी है, इसकी सदा हारनेकी ॥
क्या इस हिंसकके बदलेमें मैं भी हिंसक बन जाऊँ ।
क्या अपना कर्त्तव्य भूलकर प्रतिहिसाम सन जाऊँ ॥ ९ ॥
जितनी बार डंक मारेगा, उतनी बार बचाऊँगा ।
आखिर अपने क्षमा-धर्मसे निश्वय इसे हराऊँगा ॥
संतोंके दर्शन-स्पर्शन- भाषण दुर्लभ जगतीतलमें ।
वृश्चिक छूट गया पापोंसे संत-मिलनसे उस पलमें ॥ १० ॥
खुले ज्ञानके नेत्र, जন্ম- जन्मांतरकी स्मृति हो आई।
छूटा दुष्ट स्वभाव, सरलता, शुचिता सब ही तो आई ॥
संत-चरणमें लिपट गया वह करनेको निज पावन तन ।
छूट गया भवव्याधि विषमसे, हुआ रुचिर वह भी हरि-जन ॥ ११ ॥
जय हिंसक जड़ जंतु क्षमासे हो सकते हैं साधु-सुजान ।
हो सकते क्यों नहीं मनुज तत्र, माने जाते जो सज्ञान ।
पढ़कर वृश्चिक और संतका यह नितांत सुखकर संवाद ।
अच्छा लगे मानिये, तज प्रति- हिंसा-वैर-विवाद-विषाद ॥१२॥