श्री अन्नपूर्णा माता है अन्न की देवी
मां अन्नपूर्णा को हिन्दू धर्म में अन्न की देवी माना जाता है। वे भगवान शंकर की महाशक्ति माता पार्वती के अंश अवतार हैं। उनका नाम “अन्नपूर्णा” शाब्दिक अर्थ है – “धान्य” (अन्न) की अधिष्ठात्री। वे सम्पूर्ण विश्व के सभी प्राणियों को आहार प्रदान करने वाली देवी हैं।
श्री अन्नपूर्णा माता का मंदिर
मां अन्नपूर्णा का मंदिर काशी (वाराणसी) में स्थित है। यह मंदिर भगवान विश्वनाथ जी के मन्दिर के निकट है। अगहन पूर्णिमा के दिन ही धरती पर अन्न की देवी मां अन्नपूर्णा देवी का अवतरण हुआ था, जिनके आते ही धरतीवासियों के सभी दुखों का नाश हो गया था।
श्री अन्नपूर्णा माता की महिमा
मां अन्नपूर्णा की उपासना से इंसान को ऐश्वर्य, योग, अनंत ज्ञान, और धर्म-विवेक की प्राप्ति होती है। वे अपने भक्तों को सिद्धि-बुद्धि, धन-बल, और ज्ञान-विवेक प्रदान करती हैं। उनके प्रभाव से इंसान ऐश्वर्य की प्राप्ति करता है और उसकी तरक्की होती है।
श्री अन्नपूर्णा माता का मंत्र
भोजन ग्रहण करने से पहले मां अन्नपूर्णा के मंत्रों का जाप करना बहुत शुभ माना जाता है।
श्रीअन्नपूर्णा स्तोत्रम
अन्नपूर्णे सदा पूर्णे शंकरप्राणवल्लभे!।
ज्ञान वैराग्य-शिद्ध्यर्थं भिक्षां देहिं च पार्वति॥
अर्थ : हे माँता श्री अन्नपूर्णा, आप अन्न और करुणा से सदा पूर्ण हैं, आप भगवान शंकर की प्रिय है। हे माँता अन्नपूर्णा, आप हमें भिक्षा दें, जिससे हमारे ज्ञान-वैराग्य की शुद्धि हो जाए।
श्री अन्नपूर्णा चालीसा Sri Annapurna Chalisa Lyrics
॥ दोहा ॥
विश्वेश्वर-पदपदम की रज निज शीश-लगाय।
अन्नपूर्णे! तव सुयश बरनौं कवि-मतिलाय ।।
॥ चौपाई ॥
नित्य अनंद करिणी माता, वर-अरु अभय भाव प्रख्याता।
जय! सौंदर्य सिंधु जग जननी, अखिल पाप हर भव भय हरनी।
श्वेत बदन पर श्वेत बसन पुनि, संतन तुव पद सेवत ऋषिमुनि ।
काशी पुराधीश्वरी माता, माहेश्वरी सकल जग-त्राता ।
बृषभारूढ़ नाम रुद्राणी, विश्व विहारिणि जय ! कल्याणी ।
पदिदेवता सुतीत शिरोमनि, पदवी प्राप्त कीह्न गिरि-नंदिनी ।
पति-विछोह दुख सहि नहि पावा, योग अग्नि तब बदन जरावा।
देह तजत शिव-चरण सनेहू, राखेहु जाते हिमगिरी-गेहू।
प्रकटी गिरिजा नाम धरायो, अति आनंद भवन मँह छायो ।
नारद ने तब तोहिं भरमायहु, ब्याह करन हित पाठ पढ़ायहु।
ब्रह्मा-वरुण-कुबेर-गनाये, देवराज आदिक कहि गाय।
सब देवन को सुजस बखानी, मतिपलटन की मन मँह ठानी।
अचल रहीं तुम प्रण पर धन्या, कीह्नी सिद्ध हिमाचल कन्या ।
निज कौ तव नारद घबराये, तब प्रण-पूरण मंत्र पढ़ाये।
करन हेतु तप तोहिं उपदेशेउ, संत-बचन तुम सत्य परेखेहु ।
गगनगिरा सुनि टरी न टारे, ब्रह्मा, तब तुव पास पधारे।
कहेउ पुत्रि वर माँगु अनूपा, देहुँ आज तुव मति अनुरूपा।
तुम तप कीह्न अलौकिक भारी, कष्ट उठायेहु अति सुकुमारी।
अब संदेह छाँड़ि कछु मोसों, है सौगंध नहीं छल तोसों।
करत वेद विद ब्रह्मा जानहु, वचन मोर यह सांचो मानहु ।
तजि संकोच कहहु निज इच्छा, देहों मैं मन मानी भिक्षा ।
सुनि ब्रह्मा की मधुरी बानी, मुखसों कछु मुसुकायि भवानी।
बोली तुम का कहहु विधाता, तुम तो जगके स्रष्टाधाता।
मम कामना गुप्त नहिं तोंसों, कहवावा चाहहु का मोसों।
इज्ञ यज्ञ महँ मरती बारा, शंभुनाथ पुनि होहिं हमारा।
सो अब मिलहिं मोहिं मनभाय, कहि तथास्तु विधि धाम सिधाये।
तब गिरिजा शंकर तव भयऊ, फल कामना संशय गयऊ।
चन्द्रकोटि रवि कोटि प्रकाशा, तब आनन महँ करत निवासा।
माला पुस्तक अंकुश सोहै, करमँह अपर पाश मन मोहे।
अन्नपूर्णे! सदपूर्णे, अज-अनवद्य अनंत अपूर्णे ।
कृपा सगरी क्षेमंकरी माँ, भव-विभूति आनंद भरी माँ।
कमल बिलोचन विलसित बाले, देवि कालिके !
चण्डि कराले। तुम कैलास मांहि है गिरिजा, विलसी आनंदसाथ सिंधुजा ।
स्वर्ग-महालछमी कहलायी, मर्त्य-लोक लछमी पदपायी।
विलसी सब मँह सर्व सरूपा, सेवत तोहिं अमर पुर-भूपा।
जो ण्ढ़हहिं यह तुव चालीसा, फल पइहहिं शुभ साखी ईसा ।
प्रात समय जो जन मन लायो, पढ़िहहिं भक्ति सुरुचि अधिकायो।
स्त्री-कलत्र पनि मित्र-पुत्र युत, परमैश्वर्य लाभ लहि अद्भुत ।
राज विमुखको राज दिवावै, जस तेरो जन-सुजस बढ़ावै ।
पाठ महा मुद मंगल दाता, भक्त मनो वांछित निधिपाता ।
॥ दोहा ॥
जो यह चालीसा सुभग, पढ़ि नावहिंगे माथ।
तिनके कारज सिद्ध सब साखी काशी नाथ ॥