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शनिवार, जून 21, 2025

श्री विश्वकर्मा चालीसा

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श्री विश्वकर्मा चालीसा

श्री विश्वकर्मा चालीसा हिंदू धर्म में भगवान विश्वकर्मा को समर्पित एक भक्ति भजन और प्रार्थना है। भगवान विश्वकर्मा को शिल्पकला, निर्माण कला और तकनीक का देवता माना जाता है। वे विश्व के प्रथम वास्तुकार और इंजीनियर के रूप में पूजे जाते हैं। विश्वकर्मा चालीसा उनके गुणों, महिमा और कृपा का वर्णन करती है और भक्तों के लिए यह एक शक्तिशाली माध्यम है जिसके जरिए वे उनकी कृपा प्राप्त कर सकते हैं। यह लेख श्री विश्वकर्मा चालीसा के महत्व, इसके बोल, अर्थ और इससे जुड़े सांस्कृतिक पहलुओं पर प्रकाश डालेगा।

चालीसा एक पारंपरिक हिंदू प्रार्थना शैली है जिसमें 40 छंद होते हैं। यह भक्ति और श्रद्धा का प्रतीक है और विभिन्न देवी-देवताओं के लिए अलग-अलग चालीसाएँ प्रचलित हैं, जैसे हनुमान चालीसा, दुर्गा चालीसा आदि। श्री विश्वकर्मा चालीसा विशेष रूप से उन लोगों के बीच लोकप्रिय है जो शिल्पकार, कारीगर, इंजीनियर, वास्तुकार या किसी भी निर्माण कार्य से जुड़े हैं। यह चालीसा उनके कार्यों में सफलता, समृद्धि और सुरक्षा के लिए प्रार्थना करने का साधन है।

भगवान विश्वकर्मा को वेदों में “विश्वकर्मा प्रभु” या “त्वष्टा” के नाम से जाना जाता है। वे ब्रह्मांड के रचनाकार और शिल्प के अधिष्ठाता हैं। मान्यता है कि उन्होंने स्वर्गलोक, लंका, द्वारका और कई दिव्य हथियारों का निर्माण किया था। विश्वकर्मा चालीसा का पाठ उनके प्रति कृतज्ञता और श्रद्धा व्यक्त करने का एक तरीका है।

श्री विश्वकर्मा चालीसा – १

श्री विश्वकर्मा भगवान को सर्जन और निर्माण के देवता के रूप में मन जाता है भगवान शिव के लिए लंका का निर्माण भी विश्वकर्मा जी ने किया था। यह चालीसा विश्वकर्मा पूजा के उद्देश्य से पढ़ी जाती है और भक्त उनकी कृपा को प्राप्त करने की कामना करते हैं।

॥ दोहा ॥
विनय करौं कर जोड़कर मन वचन कर्म संभारि ।
मोर मनोरथ पूर्ण कर विश्वकर्मा दुष्टारि ॥

॥ चौपाई ॥
विश्वकर्मा तव नाम अनूपा, पावन सुखद मनन अनरूपा ।
सुन्दर सुयश भुवन दशचारी, नित प्रति गावत गुण नरनारी।

शारद शेष महेश भवानी, कवि कोविद गुण ग्राहक ज्ञानी।
आगम निगम पुराण महाना, गुणातीत गुणवन्त सयाना ।

जग महँ जे परमारथ वादी, धर्म धुरन्धर शुभ सनकादि ।
नित नित गुण यश गावत तेरे, धन्य-धन्य विश्वकर्मा मेरे।

आदि सृष्टि महँ तू अविनाशी, मोक्ष धाम तजि आयो सुपासी।
जग महँ प्रथम लीक शुभ जाकी, भुवन चारि दश कीर्ति कला की।

ब्रह्मचारी आदित्य भयो जब, वेद पारंगत ऋषि भयो तब।
दर्शन शास्त्र अरु विज्ञ पुराना, कीर्ति कला इतिहास सुजाना।

तुम आदि विश्वकर्मा कहलायो, चौदह विद्या भू पर फैलायो।
लोह काष्ठ अरु ताम्र सुवर्णा, शिला शिल्प जो पंचक वर्णा।

दे शिक्षा दुख दारिद्र नाश्यो, सुख समृद्धि जगमहँ परकाश्यो ।
सनकादिक ऋषि शिष्य तुम्हारे, ब्रह्मादिक जै मुनीश पुकारे।

जगत गुरु इस हेतु भये तुम, तम-अज्ञान-समूह हने तुम।
दिव्य अलौकिक गुण जाके वर, विघ्न विनाशन भय टारन कर।

सृष्टि करन हित नाम तुम्हारा, ब्रह्मा विश्वकर्मा भय धारा।
विष्णु अलौकिक जगरक्षक सम, शिवकल्याणदायक अति अनुपम ।

नमो नमो विश्वकर्मा देवा, सेवत सुलभ मनोरथ देवा।
देव दनुज किन्नर गन्धर्वा, प्रणवत युगल चरण पर सर्वा ।

अविचल भक्ति हृदय बस जाके, चार पदारथ करतल जाके।
सेवत तोहि भुवन दश चारी, पावन चरण भवोभव कारी।

विश्वकर्मा देवन कर देवा, सेवत सुलभ अलौकिक मेवा ।
लौकिक कीर्ति कला भण्डारा, दाता त्रिभुवन यश विस्तारा।

भुवन पुत्र विश्वकर्मा तनुधरि, वेद अथर्वण तत्व मनन करि।
अथर्ववेद अरु शिल्प शास्त्र का, धनुर्वेद सब कृत्य आपका ।

जब जब विपति बड़ी देवन पर, कष्ट हन्यो प्रभु कला सेवन कर।
विष्णु चक्र अरु ब्रह्म कमण्डल, रुद्र शूल सब रच्यो भूमण्डल।

इन्द्र धनुष अरु धनुष पिनाका, पुष्पक यान अलौकिक चाका।
बायुयान मय उड़न खटोले, विद्युत कला तंत्र सब खोले।

सूर्य चन्द्र नवग्रह दिग्पाला, लोक लोकान्तर व्योम पताला।
अग्नि वायु क्षिति जल अकाशा, आविष्कार सकल परकाशा।

मनु मय त्वष्टा शिल्पी महाना, देवागम मुनि पंथ सुजाना।
लोक काष्ठ, शिल ताम्र सुकर्मा, स्वर्णकार मय पंचक धर्मा।

शिव दधीचि हरिश्चन्द्र भुआरा, कृत युग शिक्षा पालेऊ सारा ।
परशुराम, नल, नील, सुचेता, रावण, राम शिष्य सब त्रेता ।

द्वापर द्रोणाचार्य हुलासा, विश्वकर्मा कुल कीन्ह प्रकाशा।
मयकृत शिल्प युधिष्ठिर पायेऊ, विश्वकर्मा चरणन चित ध्यायेऊ ।

नाना विधि तिलस्मी करि लेखा, विक्रम पुतली दृश्य अलेखा ।
वर्णातीत अकथ गुण सारा, नमो नमो भय टारन हारा।

॥ दोहा ॥

दिव्य ज्योति दिव्यांश प्रभु, दिव्य ज्ञान प्रकाश।
दिव्य दृष्टि तिहुँ कालमहँ विश्वकर्मा प्रभास ॥
विनय करो करि जोरि, युग पावन सुयश तुम्हार।
धारि हिय भावत रहे होय कृपा उद्‌गार ।।

॥ छन्द ॥

जे नर सप्रेम विराग श्रद्धा सहित पढ़िहहि सुनि है।
विश्वास करि चालीसा चौपाई मनन करि गुनि है।
भव फंद विघ्नों से उसे प्रभु विश्वकर्मा दूर कर।
मोक्ष सुख देंगे अवश्य ही कष्ट विपदा चूर कर ।।


श्री विश्वकर्मा चालीसा २

।। दोहा ।।

श्री विश्वकर्म प्रभु वन्दऊँ, चरणकमल धरिध्य़ान ।
श्री, शुभ, बल अरु शिल्पगुण, दीजै दया निधान ।।

जय श्री विश्वकर्म भगवाना ।
जय विश्वेश्वर कृपा निधाना ।।
शिल्पाचार्य परम उपकारी ।
भुवना-पुत्र नाम छविकारी ।।

अष्टमबसु प्रभास-सुत नागर ।
शिल्पज्ञान जग कियउ उजागर ।।
अद्रभुत सकल सुष्टि के कर्त्ता ।
सत्य ज्ञान श्रुति जग हित धर्त्ता ।।

अतुल तेज तुम्हतो जग माहीं ।
कोइ विश्व मँह जानत नाही ।।
विश्व सृष्टि-कर्त्ता विश्वेशा ।
अद्रभुत वरण विराज सुवेशा ।।

एकानन पंचानन राजे ।
द्विभुज चतुर्भुज दशभुज साजे ।।
चक्रसुदर्शन धारण कीन्हे ।
वारि कमण्डल वर कर लीन्हे ।।

शिल्पशास्त्र अरु शंख अनूपा ।
सोहत सूत्र माप अनुरूपा ।।
धमुष वाण अरू त्रिशूल सोहे ।
नौवें हाथ कमल मन मोहे ।।

दसवाँ हस्त बरद जग हेतू ।
अति भव सिंधु माँहि वर सेतू ।।
सूरज तेज हरण तुम कियऊ ।
अस्त्र शस्त्र जिससे निरमयऊ ।।

चक्र शक्ति अरू त्रिशूल एका ।
दण्ड पालकी शस्त्र अनेका ।।
विष्णुहिं चक्र शुल शंकरहीं ।
अजहिं शक्ति दण्ड यमराजहीं ।।

इंद्रहिं वज्र व वरूणहिं पाशा ।
तुम सबकी पूरण की आशा ।।
भाँति – भाँति के अस्त्र रचाये ।
सतपथ को प्रभु सदा बचाये ।।

अमृत घट के तुम निर्माता ।
साधु संत भक्तन सुर त्राता ।।
लौह काष्ट ताम्र पाषाना ।
स्वर्ण शिल्प के परम सजाना ।।

विद्युत अग्नि पवन भू वारी ।
इनसे अद् भुत काज सवारी ।।
खान पान हित भाजन नाना ।
भवन विभिषत विविध विधाना ।।

विविध व्सत हित यत्रं अपारा ।
विरचेहु तुम समस्त संसारा ।।
द्रव्य सुगंधित सुमन अनेका ।
विविध महा औषधि सविवेका ।।

शंभु विरंचि विष्णु सुरपाला ।
वरुण कुबेर अग्नि यमकाला ।।
तुम्हरे ढिग सब मिलकर गयऊ ।
करि प्रमाण पुनि अस्तुति ठयऊ ।।

भे आतुर प्रभु लखि सुर–शोका ।
कियउ काज सब भये अशोका ।।
अद् भुत रचे यान मनहारी ।
जल-थल-गगन माँहि-समचारी ।।

शिव अरु विश्वकर्म प्रभु माँही ।
विज्ञान कह अतंर नाही ।।
बरनै कौन स्वरुप तुम्हारा ।
सकल सृष्टि है तव विस्तारा ।।

रचेत विश्व हित त्रिविध शरीरा ।
तुम बिन हरै कौन भव हारी ।।
मंगल-मूल भगत भय हारी ।
शोक रहित त्रैलोक विहारी ।।

चारो युग परपात तुम्हारा ।
अहै प्रसिद्ध विश्व उजियारा ।।
ऋद्धि सिद्धि के तुम वर दाता ।
वर विज्ञान वेद के ज्ञाता ।।

मनु मय त्वष्टा शिल्पी तक्षा ।
सबकी नित करतें हैं रक्षा ।।
पंच पुत्र नित जग हित धर्मा ।
हवै निष्काम करै निज कर्मा ।।

प्रभु तुम सम कृपाल नहिं कोई ।
विपदा हरै जगत मँह जोइ ।।
जै जै जै भौवन विश्वकर्मा ।
करहु कृपा गुरुदेव सुधर्मा ।।

इक सौ आठ जाप कर जोई ।
छीजै विपति महा सुख होई ।।
पढाहि जो विश्वकर्म-चालीसा ।
होय सिद्ध साक्षी गौरीशा ।।

विश्व विश्वकर्मा प्रभु मेरे ।
हो प्रसन्न हम बालक तेरे ।।
मैं हूँ सदा उमापति चेरा ।
सदा करो प्रभु मन मँह डेरा ।।

।। दोहा ।।

करहु कृपा शंकर सरिस, विश्वकर्मा शिवरुप ।
श्री शुभदा रचना सहित, ह्रदय बसहु सुरभुप ।।



श्री विश्वकर्मा चालीसा का महत्व

  1. विश्वकर्मा पूजा: हर साल 17 सितंबर को (या कन्या संक्रांति के दिन) विश्वकर्मा जयंती मनाई जाती है। इस दिन शिल्पकार, कारीगर और इंजीनियर अपने औजारों और मशीनों की पूजा करते हैं और चालीसा का पाठ करते हैं।
  2. शिल्पी समाज: विश्वकर्मा चालीसा शिल्पी समुदाय (जैसे बढ़ई, लोहार, सुनार, मूर्तिकार आदि) के बीच विशेष रूप से लोकप्रिय है। यह उनके पेशे और जीवन से गहराई से जुड़ा है।
  3. आध्यात्मिक शक्ति: यह चालीसा न केवल भौतिक सफलता के लिए, बल्कि मानसिक शांति और आत्मिक उन्नति के लिए भी पढ़ी जाती है।

पाठ करने की विधि

  • नियमितता: रोजाना या विश्वकर्मा जयंती पर विशेष रूप से पाठ करने से लाभ मिलता है।
  • शुद्धता: सुबह स्नान कर स्वच्छ वस्त्र पहनें।
  • पूजा स्थल: विश्वकर्मा जी की मूर्ति या चित्र के सामने दीप जलाएं।
  • प्रार्थना: मन को शांत कर चालीसा का पाठ करें। पाठ के बाद फल, मिठाई और जल अर्पित करें।

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