उपमन्युकृत शिवस्तोत्रम् एक प्राचीन स्तोत्र है, जो भगवान शिव की महिमा का वर्णन करता है। यह स्तोत्र विशेष रूप से ऋषि उपमन्यु द्वारा रचित माना जाता है। उपमन्यु एक महान शिव भक्त थे और उनके द्वारा रचित यह स्तोत्र भगवान शिव की भक्ति और उनकी कृपा का अनुभव कराने वाला माना जाता है।
उपमन्यु ऋषि के बारे में कहा जाता है कि वे बाल्यकाल से ही भगवान शिव के अनन्य भक्त थे और कठिन तपस्या के द्वारा उन्होंने शिव को प्रसन्न किया। उनके शिव भक्ति की कथा पुराणों में वर्णित है, जिसमें उन्होंने कठिन तपस्या और भक्ति द्वारा भगवान शिव की कृपा प्राप्त की थी।
शिवस्तोत्र के माध्यम से उपमन्यु ने भगवान शिव की विभिन्न लीलाओं, उनके शक्ति और रूपों का गुणगान किया है। इसमें शिव को सृष्टि, स्थिति और संहार के त्रिगुणात्मक रूप में पूजा जाता है। शिव की अपार शक्ति, उनकी करुणा, और भक्तों पर उनकी कृपा का सुंदर वर्णन इस स्तोत्र में मिलता है।
इस स्तोत्र के नियमित पाठ से भक्तों को भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है, उनकी मनोकामनाएं पूर्ण होती हैं और जीवन में आने वाली कठिनाइयों का निवारण होता है। शिवस्तोत्र का पाठ करने से मानसिक शांति, ध्यान और एकाग्रता बढ़ती है, और जीवन में भक्ति और आध्यात्मिकता का विकास होता है।
उपमन्युकृत शिवस्तोत्रम् न केवल भगवान शिव की स्तुति के लिए प्रसिद्ध है, बल्कि यह भक्तों के हृदय में भगवान शिव के प्रति अपार प्रेम और श्रद्धा जागृत करने वाला एक महत्वपूर्ण धार्मिक पाठ भी है।
उपमन्युकृत शिवस्तोत्रम् Upamanyukrit Shiv Stotram
श्रीगणेशाय नमः ।
जय शङ्कर पार्वतीपते मृड शम्भो शशिखण्डमण्दन ।
मदनान्तक भक्तवत्सल प्रियकैलास दयासुधाम्बुधे ॥१॥
सदुपायकथास्वपण्डितो हृदये दुःखशरेण खण्डितः ।
शशिखण्डशिखण्डमण्डनं शरणं यामि शरण्यमीश्वरम् ॥२॥
महतः परितः प्रसर्पतस्तमसो दर्शनभेदिनो भिदे ।
दिननाथ इव स्वतेजसा हृदयव्योम्नि मनागुदेहि नः ॥३॥
न वयं तव चर्मचक्षुषा पदवीमप्युपवीक्षितुं क्षमाः ।
कृपयाऽभयदेन चक्षुषा सकलेनेश विलोकयाशु नः ॥४॥
त्वदनुस्मृतिरेव पावनी स्तुतियुक्ता न हि वक्तुमीश सा ।
मधुरं हि पयः स्वभावतो ननु किदृक्सितशर्करान्वितम् ॥५॥
सविषोऽप्यमृतायते भवाञ्छवमुण्डाभरणोऽपि पावनः ।
भव एव भवान्तकः सतां समदृष्टिर्विषमेक्षणोऽपि सन् ॥६॥
अपि शूलधरो सतां निरामयो दृढवैराग्यरतोऽपि रागवान् ।
अपि भैक्ष्यचरो महेश्वरश्चरितं चित्रमिदं हि ते प्रभो ॥७॥
वितरत्यभिवाञ्छितं दृशा परिदृष्टः किल कल्पपादपः ।
हृदये स्मृत एव धीमते नमतेऽभीष्टफलप्रदो भवान् ॥८॥
सहसैव भुजङ्गपाशवान्विनिगृह्णाति न यावदन्तकः ।
अभयं कुरु तावदाशु मे गतजीवस्य पुनः किमौषधैः ॥९॥
सविषैरिव भीमपन्नगैर्विषयैरेभिरलं परिक्षतम् ।
अमृतैरिव संभ्रमेण मामभिषिञ्चाशु दयावलोकनैः ॥१०॥
मुनयो बहवोऽद्य धन्यतां गमिता स्वाभिमतार्थदर्शिनः ।
करुणाकर येन तेन मामवसन्नं ननु पश्य चक्षुषा ॥११॥
प्रणमाम्यथ यामि चापरं शरणं कं कृपणाभयप्रदम् ।
विरहीव विभो प्रियामयं परिपश्यामि भवन्मयं जगत् ॥१२॥
बहवो भवताऽनुकम्पिताः किमितीशान न मानुकम्पसे ।
दधता किमु मन्दराचलं परमाणुः कमठेन दुर्धरः ॥१३॥
अशुचिं यदि मानुमन्यसे किमिदं मूर्ध्नि कपालदाम ते ।
उत शाठ्यमसाधुसङ्गिनं विषलक्ष्मासि न किं द्विजिह्वधृक्॥१४॥
क्व दृशं विदधामि किं करोम्यनुतिष्ठामि कथं भयाकुलः ।
क्व नु तिष्ठसि रक्ष रक्ष मामयि शम्भो शरणागतोऽस्मि ते ॥१५॥
विलुठाम्यवनौ किमाकुलः किमुरो हन्मि शिरश्छिनद्मि वा ।
किमु रोदिमि रारटीमि किं कृपणं मां न यदीक्षसे प्रभो ॥१६॥
शिव सर्वग शर्व शर्मदं प्रणतो देव दयां कुरुष्व मे ।
नम ईश्वर नाथ दिक्पते पुनरेवेश नमो नमोऽस्तु ते ॥१७॥
शरणं तरुणेन्दुशेखरः शरणं मे गिरिराजकन्यका ।
शरणं पुनरेव तावुभौ शरणं नान्यदुपैमि दैवतम् ॥१८॥
उपमन्युकृतं स्तवोत्तमं जपतः शम्भुसमीपवर्तिनः ।
अभिवाञ्छितभाग्यसम्पदः परमायुः प्रददाति शङ्करः ॥१९॥
उपमन्युकृतं स्तवोत्तमं प्रजपेद्यस्तु शिवस्य सन्निधौ ।
शिवलोकमवाप्य सोऽचिरात्सह तेनैव शिवेन मोदते ॥२०॥
इत्युपमन्युकृतं शिवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।