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बुधवार, नवम्बर 12, 2025

शारदा पादपंकज स्तोत्रम्

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शारदा पादपंकज स्तोत्रम्

Sharada Padapankaja Stotram देवी सरस्वती, जिन्हें शारदा के नाम से भी जाना जाता है, की महिमा में रचित एक पवित्र स्तोत्र है। ‘पादपंकज’ शब्द का अर्थ है कमल जैसे पवित्र चरण, जो ज्ञान, शुद्धता और सौंदर्य का प्रतीक माने जाते हैं। यह स्तोत्र देवी के चरणों में निहित दिव्य ज्ञान और अनंत कृपा का वर्णन करता है, जिससे भक्तों को शिक्षा, कला एवं साहित्य में सफलता एवं आध्यात्मिक उन्नति की प्राप्ति होती है।

स्तोत्र का महत्व और उद्देश्य

  • देवी सरस्वती की स्तुति:
    यह स्तोत्र देवी सरस्वती के चरणों (पादपंकज) की महिमा का गुणगान करता है। माना जाता है कि उनके चरणों से ही ज्ञान, संगीत, कला, और साहित्य का स्रोत प्रवाहित होता है।
  • ज्ञान का प्रतीक:
    पादपंकज के माध्यम से देवी के ज्ञान, शुद्धता, और रचनात्मक ऊर्जा का प्रतीकात्मक वर्णन किया गया है। यह स्तोत्र विद्यार्थियों, शोधकर्ताओं, संगीतकारों, और कलाकारों के लिए विशेष रूप से प्रेरणादायक माना जाता है।
  • आध्यात्मिक और सांस्कृतिक लाभ:
    नियमित पाठ से न केवल मानसिक शांति और आत्मिक संतुलन प्राप्त होता है, बल्कि शिक्षा एवं सांस्कृतिक क्षेत्र में भी उन्नति होती है।

Sharada Padapankaja Stotram

मातस्त्वत्पदपङ्कजं कल्यतां चेतोऽम्बुजे सन्ततं
मानाथाम्बुजसम्भवाद्रितनयाकान्तैः समाराधितम् ।
वाञ्छापूरणनिर्जितामरमहीरुड्गर्वसर्वस्वकम्
वाचः सूक्तिसुधारसद्रवमुचो निर्यान्ति वक्त्रोदरात् ॥

मातस्त्वत्पदपङ्कजं मुनिमनःकासारवासादरं
मायामोहमहान्धकारमिहिरं मानातिगप्राभवम् ।
मातङ्गाभिमतिं स्वकीयगमनैर्निर्मूलयत्कौतुका-
द्वन्देऽमन्दतपःफलाप्यनमनस्तोत्रार्चनाप्रक्रमम् ॥

मातस्त्वत्पदपङ्कजं प्रणमतामानन्दवारान्निधे
राकाशारदपूर्णचन्द्रनिकरं कामाहिपक्षीश्वरम् ।
वृन्दं प्राणभृतां स्वनाम वदतामत्यादरात्सत्वरं
षद्भाषासरिदीश्वरं प्रतिदधत्षाण्मातुरार्च्यं भजे ॥

कामं फालतले दुरक्षरततिर्दैवी ममास्तां न भी-
र्मातस्त्वत्पदपङ्कजोत्थरजसा लुम्पामि तां निश्चितम् ।
मार्कण्डेयमुनिर्यथा भवपदाम्भोजार्चनाप्राभवात्
कालं तद्वदहं चतुर्मुखमुखाम्भोजातसूर्यप्रभे ॥

पापानि प्रशमं नयाशु ममतां देहेन्द्रियप्राणगां
कामादीनपि वैरिणो दृढतरान्मोक्षाध्वविघ्नप्रदान् ।
स्निग्धान्पोषय सन्ततं शमदमध्यानादिमान्मोदतो
मातस्त्वत्पदपङ्कजं हृदि सदा कुर्वे गिरां देवते ॥

मातस्त्वत्पदपङ्कजस्य मनसा वाचा क्रियातोऽपि वा
ये कुर्वन्ति मुदान्वहं बहुविधैर्दिव्यैः सुमैरर्चनाम् ।
शीघ्रं ते प्रभवन्ति भूमिपतयो निन्दन्ति च स्वश्रिया
जम्भारातिमपि ध्रुवं शतमखीकष्टाप्तनाकश्रियम् ॥

मातस्त्वत्पदपकजं शिरसि ये पद्माटवीमध्यत-
श्चन्द्राभं प्रविचिन्तयन्ति पुरुषाः पीयूषवर्ष्यन्यहम् ।
ते मृत्युं प्रविजित्य रोगरहिताः सम्यग्दृढाङ्गाश्चिरं
जीवन्त्येव मृणालकोमलवपुष्मन्तः सुरूपा भुवि ॥

मातस्त्वत्पदपङ्कजं हृदि मुदा ध्यायन्ति ये मानवाः
सच्चिद्रूपमशेषवेदशिरसां तात्पर्यगम्यं मुहुः ।
अत्यागेऽपि तनोरखण्डपरमानन्दं वहन्तः सदा
सर्वं विश्वमिदं विनाशि तरसा पश्यन्ति ते पूरुषाः ॥

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