30.1 C
Gujarat
मंगलवार, जून 3, 2025

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 5 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 5

Post Date:

“रश्मिरथी” द्वितीय सर्ग – भाग 5 एक अत्यंत महत्वपूर्ण और वैचारिक खंड है, जिसमें कवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ समाज के पतन, नीति, और सत्ताधारियों की संवेदनहीनता पर तीखा प्रहार करते हैं। यह खंड न केवल कर्ण की सामाजिक पीड़ा का प्रतिनिधित्व करता है, बल्कि समूचे समाज की विकृतियों पर भी गहन दृष्टिपात करता है।

Rashmirathi thumb

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 5 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 5

सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।
जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।
चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;
पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।

जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,
ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।
अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।
सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,

कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,
कनक नहीं, कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,
इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,
राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,

तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।
थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,
भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्ग की भाषा को।

रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,
ग्रीवाहर, निष्टुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।
इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्ग धरो,
हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।

रोज कहा करते हैं गुरुवर, ‘खड्ग महाभयकारी है,
इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।
वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,
जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।


hq720

सिर था जो सारे समाज का, वही अनादर पाता है।
जो भी खिलता फूल, भुजा के ऊपर चढ़ता जाता है।

यहाँ कर्ण जैसे उस व्यक्ति की बात हो रही है, जो समाज के लिए नेतृत्वकारी हो सकता था, परन्तु उसे ही समाज में अपमान सहना पड़ता है। कवि कहते हैं कि समाज में शक्तिशाली और बलिष्ठ (भुजा) को ही उन्नति मिलती है, न कि उस व्यक्ति को जो सच्चे अर्थों में ‘सिर’ है यानी बौद्धिक या नैतिक रूप से श्रेष्ठ है।


चारों ओर लोभ की ज्वाला, चारों ओर भोग की जय;
पाप-भार से दबी-धँसी जा रही धरा पल-पल निश्चय।

यह पंक्तियाँ समाज के नैतिक पतन की ओर इशारा करती हैं। लोभ और भोग की प्रधानता इतनी बढ़ गई है कि पृथ्वी (या समाज) पाप के बोझ से दब रही है। यह एक गहन चेतावनी है कि यदि लोभ और भोग ही समाज का मूलमंत्र बने रहेंगे तो पतन निश्चित है।

जब तक भोगी भूप प्रजाओं के नेता कहलायेंगे,
ज्ञान, त्याग, तप नहीं श्रेष्ठता का जबतक पद पायेंगे।

कवि साफ कहते हैं कि जब तक भोग-विलासी राजा (या शासक वर्ग) समाज का नेतृत्व करते रहेंगे, और ज्ञान, त्याग व तपस्या को श्रेष्ठता का दर्जा नहीं मिलेगा, तब तक समाज का कल्याण संभव नहीं।

अशन-वसन से हीन, दीनता में जीवन धरनेवाले।
सहकर भी अपमान मनुजता की चिन्ता करनेवाले,

ये पंक्तियाँ उन महापुरुषों की महिमा करती हैं जो अपनी व्यक्तिगत कठिनाइयों और अपमानों को सहते हुए भी मानवता की चिंता करते हैं — जैसे त्यागी संत, कवि, दार्शनिक, वैज्ञानिक आदि।

कवि, कोविद, विज्ञान-विशारद, कलाकार, पण्डित, ज्ञानी,
कनक नहीं, कल्पना, ज्ञान, उज्ज्वल चरित्र के अभिमानी,

यहाँ दिनकर स्पष्ट करते हैं कि जिनके पास धन (कनक) नहीं, बल्कि कल्पना, ज्ञान और उज्ज्वल चरित्र है — वही असली पूज्य व्यक्ति हैं। वे समाज के असली स्तंभ हैं।

इन विभूतियों को जब तक संसार नहीं पहचानेगा,
राजाओं से अधिक पूज्य जब तक न इन्हें वह मानेगा,

जब तक समाज इन विभूतियों को सच्चा सम्मान नहीं देगा, और इनको राजाओं से भी ऊँचा नहीं मानेगा — तब तक समाज की स्थिति नहीं सुधरेगी।

तब तक पड़ी आग में धरती, इसी तरह अकुलायेगी,
चाहे जो भी करे, दुखों से छूट नहीं वह पायेगी।

यहाँ धरती को जलती अग्नि में व्याकुल दिखाया गया है — जो प्रतीक है सामाजिक पीड़ा और असंतुलन का। कवि कहते हैं, जब तक मूल समस्याओं को नहीं समझा जाएगा, तब तक दुखों से मुक्ति संभव नहीं।

थकी जीभ समझा कर, गहरी लगी ठेस अभिलाषा को,
भूप समझता नहीं और कुछ, छोड़ खड्ग की भाषा को।

शासकों को बार-बार समझाया गया, लेकिन वे नहीं समझते। वे केवल तलवार (बल) की भाषा समझते हैं। इसलिए अब ज्ञान, तर्क या नीति से उन्हें बदला नहीं जा सकता।

रोक-टोक से नहीं सुनेगा, नृप समाज अविचारी है,
ग्रीवाहर, निष्टुर कुठार का यह मदान्ध अधिकारी है।

राजा या शासक वर्ग अब अविवेकी, अहंकारी और निर्दयी बन चुका है। वह कठोरता से ही शासन समझता है और किसी भी रोक-टोक को नहीं सुनता।

इसीलिए तो मैं कहता हूँ, अरे ज्ञानियों! खड्ग धरो,
हर न सका जिसको कोई भी, भू का वह तुम त्रास हरो।

यह पंक्तियाँ आवाहन हैं कवि कहता है कि हे ज्ञानीजन! अब तलवार उठाओ, अब तुम्हारी बारी है अत्याचार मिटाने की। क्योंकि जिनसे आशा थी, वे असफल रहे।

रोज कहा करते हैं गुरुवर, ‘खड्ग महाभयकारी है,
इसे उठाने का जग में हर एक नहीं अधिकारी है।

कवि गुरु (या समाज की नीति) का सन्दर्भ देते हुए कहते हैं कि तलवार एक भयावह वस्तु है, और इसे उठाने का अधिकार सबको नहीं।

वही उठा सकता है इसको, जो कठोर हो, कोमल भी,
जिसमें हो धीरता, वीरता और तपस्या का बल भी।

तलवार उन्हीं को उठानी चाहिए जिनमें कठोरता के साथ कोमलता हो, धैर्य और वीरता हो, साथ ही तप और त्याग का भी बल हो। यह सत्य नेतृत्व के गुण हैं।


यह खंड “रश्मिरथी” के केवल कर्ण की व्यथा नहीं कहता, बल्कि कवि का सामाजिक चिंतन और राजनीतिक दृष्टिकोण भी प्रकट करता है। दिनकर यहाँ न्याय, बौद्धिकता, मानवीयता और सच्चे नेतृत्व की वकालत करते हैं। वे चेताते हैं कि जब तक समाज में भोगी राजा और धनिक वर्ग सर्वोच्च रहेंगे, और ज्ञानियों, कलाकारों, त्यागियों को उचित स्थान नहीं मिलेगा तब तक धरती दुखी ही रहेगी।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

Share post:

Subscribe

Popular

More like this
Related

लक्ष्मी द्वादश नाम स्तोत्रम्

लक्ष्मी द्वादश नाम स्तोत्रम् लक्ष्मी द्वादश नाम स्तोत्रम् एक अत्यंत...

अष्टलक्ष्मी स्तुति

अष्टलक्ष्मी स्तुति अष्टलक्ष्मी स्तुति एक अत्यंत प्रभावशाली और लोकप्रिय स्तोत्र...

लक्ष्मी विभक्ति वैभव स्तोत्रम्

लक्ष्मी विभक्ति वैभव स्तोत्रम् लक्ष्मी विभक्ति वैभव स्तोत्रम् एक अत्यंत...

दुर्गा प्रणति पंचक स्तोत्रम

Durga Pranati Panchaka Stotram दुर्गा प्रणति पंचक स्तोत्रम एक अत्यंत...
error: Content is protected !!