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रविवार, अक्टूबर 6, 2024

मांडूक्योपनिषद

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मांडूक्योपनिषद का सार Mandukya Upanishad Saar

मांडूक्योपनिषद, उपनिषदों में से एक महत्वपूर्ण ग्रंथ है। इसका संबंध अथर्ववेद से है और यह अद्वैत वेदांत के प्रमुख उपनिषदों में से एक है। यह ग्रंथ केवल 12 मंत्र(श्लोकों) का है, लेकिन इसकी गहराई और महत्व अद्वितीय है। आइए, इस अद्भुत ग्रंथ की विस्तार से जानकारी प्राप्त करें। मांडूक्योपनिषद अथर्ववेद से संबंधित एक लघु उपनिषद है। मांडूक्योपनिषद की विशेषता यह है कि यह मानव जीवन के तीन अवस्थाओं – जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति – के साथ एक चतुर्थ अवस्था, तुरीय, का भी उल्लेख करता है। इसका प्रधान विषय ओंकार (प्रणव) की महिमा का वर्णन है । इस उपनिषद में ओंकार को अक्षर ब्रम्ह परमात्मा का श्रेष्ठ संबोधन सिद्ध करते हुए उसकी चार अवस्थाओं की व्याख्या और उनकी मात्राओ का विवेचन किया गया है । यह उपनिषद अद्वैत वेदांत का सार प्रस्तुत करता है और आत्मा तथा ब्रह्म की एकता पर बल देता है।

मांडूक्योपनिषद के मंत्र: अद्वैत वेदांत की कुंजी Mandukya Upanishad Mantra

प्रथम श्लोक उपनिषद व्याख्या

मांडूक्योपनिषद का प्रथम श्लोक हमें बताता है कि “ॐ” का स्वरूप सम्पूर्ण सृष्टि का आधार है। ‘ॐ’ को समस्त ब्रह्माण्ड का प्रतीक माना गया है और इसे ही ब्रह्म के स्वरूप के रूप में प्रस्तुत किया गया है। यह केवल वर्तमान में ही नहीं, बल्कि भूत, भविष्य और वर्तमान तीनों कालों में भी विद्यमान है। “ॐ” न केवल इस संसार का प्रतीक है, बल्कि त्रिकालातीत और असीमित ब्रह्म का भी प्रतीक है। यह मंत्र इस बात पर जोर देता है कि ‘ॐ’ तीनों अवस्थाओं (जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति) और चतुर्थ अवस्था (तुरीय) का प्रतिनिधित्व करता है।

ॐ इत्येतदक्षरमिदं सर्वं तस्योपव्याख्यानं भूतं भवद्भविष्यदिति सर्वमोङ्कार एव ।
यच्चान्यत् त्रिकालातीतं तदप्योङ्कार एव ॥ 1 ॥

अर्थ: “ॐ” यह अक्षर ही सब कुछ है। इसका विस्तार (विवरण) यह है: भूत, भविष्य और वर्तमान, ये सभी “ॐ” ही हैं। और जो कुछ त्रिकालातीत (तीनों कालों से परे) है, वह भी “ॐ” ही है।

दितीय श्लोक उपनिषद व्याख्या

द्वितीय श्लोक में आत्मा और ब्रह्म की एकता का वर्णन किया गया है। यह आत्मा जो ब्रह्म है, चतुष्पात अर्थात चार भागों में विभाजित है। यह विभाजन आत्मा के विभिन्न अवस्थाओं और रूपों को दर्शाता है।

सर्वं ह्येतद्ब्रह्मायमात्मा ब्रह्म सोऽयमात्मा चतुष्पात् ॥ 2 ॥

अर्थ: यह सब ब्रह्म है, यह आत्मा ब्रह्म है, और यह आत्मा चार भागों में विभाजित है।

तृतीय श्लोक(वैश्वानर – जाग्रत अवस्था) उपनिषद व्याख्या

इस श्लोक में आत्मा की जाग्रत अवस्था का वर्णन किया गया है। जाग्रत अवस्था में आत्मा बाहरी दुनिया का अनुभव करती है। यह अवस्था सात अंगों (सात लोकों या सात धातुओं) और उन्नीस मुखों (पांच ज्ञानेन्द्रियाँ, पांच कर्मेन्द्रियाँ, पांच प्राण, मन, बुद्धि, चित्त, और अहंकार) के माध्यम से स्थूल भोग का अनुभव करती है। वैश्वानर इस अवस्था का प्रतिनिधित्व करता है।

जाग्रतस्थानो बहिष्प्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः स्थूलभुग्वैश्वानरः प्रथमः पादः ॥ 3 ॥

अर्थ: जाग्रत अवस्था वह है जिसमें बाह्य विषयों का ज्ञान होता है। यह सात अंगों और उन्नीस मुखों (इन्द्रियों) वाला होता है और स्थूलभुग (स्थूल भोग करने वाला) कहलाता है। इसे वैश्वानर (विराट पुरुष) कहा जाता है। यह आत्मा का प्रथम पाद (भाग) है।

चतुर्थ श्लोक (तैजस – स्वप्न अवस्था) उपनिषद व्याख्या

स्वप्न अवस्था में आत्मा आंतरिक अनुभवों और विचारों का अनुभव करती है। यह अवस्था भी जाग्रत अवस्था की तरह सात अंगों और उन्नीस मुखों से युक्त होती है, लेकिन यहाँ भोग सूक्ष्म होता है। तैजस स्वप्न अवस्था का प्रतीक है, जो आत्मा की आंतरिक प्रज्ञा और अनुभवों का प्रतिनिधित्व करता है।

स्वप्नस्थानोऽन्तःप्रज्ञः सप्ताङ्ग एकोनविंशतिमुखः प्रविविक्तभुक् तैजसों द्वितीयः पादः ॥ 4 ॥

अर्थ: स्वप्न अवस्था वह है जिसमें आंतरिक विषयों का ज्ञान होता है। यह भी सात अंगों और उन्नीस मुखों वाला होता है और सूक्ष्म भोग का अनुभव करता है। इसे तैजस (तेजस्वी) कहा जाता है। यह आत्मा का द्वितीय पाद है।

पंचम श्लोक (प्राज्ञ – सुषुप्ति अवस्था) उपनिषद व्याख्या

सुषुप्ति अवस्था में आत्मा गहन निद्रा में होती है, जहाँ न कोई स्वप्न होता है और न कोई इच्छा। यह अवस्था पूर्ण शांति और आनंद की होती है, जिसमें आत्मा अपनी प्रज्ञा और आनंद में लीन होती है। प्राज्ञ इस अवस्था का प्रतीक है, जो आत्मा की गहन प्रज्ञा और आनंद को दर्शाता है।

यस्मिन् सुप्तः न कञ्चन कामं कामयते न कञ्चन स्वप्नं पश्यति तत् सुषुप्तम् ।
सुषुप्तस्थानः एकीभूतः प्रज्ञानघनः एवाऽऽनन्दमयो ह्यानन्दभुक् चेतोमुखः प्राज्ञस्तृतीयः पादः ॥ 5 ॥

अर्थ: सुषुप्ति अवस्था वह है जिसमें सोया हुआ व्यक्ति न किसी कामना की कामना करता है और न कोई स्वप्न देखता है। यह आत्मा की तृतीय अवस्था है, जिसमें सभी इच्छाएँ और स्वप्न विलीन हो जाते हैं। यह अवस्था पूर्ण प्रज्ञा और आनंद से युक्त होती है। इस अवस्था को प्राज्ञ कहा जाता है।

षष्टम श्लोक (तुरीया अवस्था) उपनिषद व्याख्या

तुरीया अवस्था आत्मा की सबसे गहन और सर्वोच्च अवस्था है। यह अवस्था न जाग्रत है, न स्वप्न, न सुषुप्ति। यह अवस्था सभी अनुभवों और धारणाओं से परे है। तुरीया सर्वेश्वर, सर्वज्ञ, और समस्त सृष्टि का आधार है। यह अवस्था शान्त, शिव, और अद्वैत है। इस अवस्था को जानना ही आत्मा का सच्चा ज्ञान है।

एष सर्वेष्वरः एष सर्वज्ञः एषोऽन्तर्याम्येष योनिः सर्वस्य प्रभवाप्ययौ हि भूतानाम् ।
नान्तः प्रज्ञं न बहिष्प्रज्ञं न उभयतः प्रज्ञं न प्रज्ञानघनं न प्रज्ञं नाप्रज्ञम् ।
अदृष्टम् अव्यवहार्यमग्राह्यमलक्षणं अचिन्त्यमव्यपदेश्यमेकात्मप्रत्ययसारं प्रपञ्चोपशमं शान्तं शिवमद्वैतम् चतुर्थं मन्यन्ते स आत्मा स विज्ञेयः ॥ 7 ॥

अर्थ: यह सर्वेश्वर, सर्वज्ञ, अंतर्यामी और समस्त सृष्टि की उत्पत्ति और प्रलय का कारण है। यह अवस्था न आंतरिक प्रज्ञा है, न बाह्य प्रज्ञा, न दोनों का मिश्रण, न प्रज्ञानघन, न प्रज्ञा और न ही अप्रज्ञा है। यह अव्यक्त, अव्यवहार्य, अग्राह्य, अलक्षण, अचिन्त्य, अव्यपदेश्य, एकात्मप्रत्ययसार, प्रपञ्चोपशम, शान्त, शिव और अद्वैत है। इसे तुरीया कहा जाता है और इसे जानना चाहिए।

मांडूक्योपनिषद में वर्णित आत्मा की चार अवस्थाएँ—जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति और तुरीया—हमारे जीवन और अनुभवों की विविधता को दर्शाती हैं। यह उपनिषद हमें आत्मा के वास्तविक स्वरूप का ज्ञान कराती है और ओंकार (ॐ) की महिमा को उद्घाटित करती है। यह उपनिषद अद्वैत वेदांत का प्रमुख ग्रंथ है और इसके अध्ययन से हमें आत्मा और ब्रह्म की एकता का ज्ञान होता है।

मांडूक्योपनिषद का अध्ययन और उसकी व्याख्या करने से हम अपने जीवन की गहरी सच्चाईयों को समझ सकते हैं और आत्मा के वास्तविक स्वरूप का अनुभव कर सकते हैं। यह उपनिषद हमें यह भी सिखाती है कि आत्मा केवल जाग्रत, स्वप्न, और सुषुप्ति अवस्थाओं में ही नहीं है, बल्कि तुरीया अवस्था में भी विद्यमान है, जो सम्पूर्ण शांति और आनंद का स्रोत है।

अद्वैत वेदांत का सार The essence of Advaita Vedanta

मांडूक्योपनिषद का दर्शन अद्वैत वेदांत के सिद्धांतों पर आधारित है, जहाँ आत्मा और परमात्मा को एक ही माना जाता है। इसमें आत्मज्ञान और मोक्ष के महत्व पर विशेष बल दिया गया है। उपनिषद कहता है कि आत्मा और ब्रह्म एक ही हैं, और इसे तुरीय अवस्था में अनुभव किया जा सकता है। इस अवस्था में द्वैत का अंत होता है और अद्वैत की प्राप्ति होती है।

गौड़पादाचार्य की कारिका

मांडूक्योपनिषद पर गौड़पादाचार्य द्वारा रचित “मांडूक्य कारिका” एक महत्वपूर्ण टीका है, जो उपनिषद के गूढ़ तात्त्विक और दार्शनिक विचारों को विस्तार से समझाती है। इसमें चार प्रकरण हैं: आगम, वैतथ्य, अद्वैत, और अलातशांति। इन प्रकरणों में अद्वैत वेदांत के गूढ़ सिद्धांतों का विश्लेषण और स्पष्टीकरण दिया गया है।

Mandukya Upanishad1

मांडूक्योपनिषद पीडीएफ Mandukya Upanishad PDF

मांडूक्योपनिषद पर अक्सर पूछे जाने वाले प्रश्न Mandukya Upanishad FAQs

१. मांडूक्योपनिषद क्या है?

मांडूक्योपनिषद अथर्ववेद से संबंधित एक लघु उपनिषद है जो अद्वैत वेदांत और ओंकार की महिमा का वर्णन करता है।

२. अद्वैत वेदांत क्या है?

अद्वैत वेदांत एक दार्शनिक सिद्धांत है जो आत्मा और ब्रह्म की एकता पर आधारित है।

३. ओंकार की चार अवस्थाएँ क्या हैं?

ओंकार की चार अवस्थाएँ हैं जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति, और तुरीय।

४. तुरीय अवस्था का महत्व क्या है?

तुरीय अवस्था आत्मा की वास्तविक स्थिति है और यह अद्वैत वेदांत का सार है।

५. मांडूक्योपनिषद का अध्ययन क्यों करना चाहिए?

मांडूक्योपनिषद का अध्ययन आत्मज्ञान, आंतरिक शांति, और आध्यात्मिक विकास के लिए महत्वपूर्ण है।

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