श्री महावीर स्वामी: जैन धर्म के अंतिम तीर्थंकर
श्री महावीर स्वामी, जैन धर्म के अंतिम और 24 वें तीर्थंकर थे। उनका जन्म वैशाली के कुंडग्राम में एक राजकुमार के रूप में हुआ था। उनके जीवन और उपदेशों ने जैन धर्म को एक नई दिशा प्रदान की। उन्होंने अहिंसा, सत्य, अस्तेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह के पांच महाव्रतों का प्रतिपादन किया।
जन्म और युवावस्था
महावीर स्वामी का जन्म चैत्र शुक्ल त्रयोदशी को हुआ था, जिसे जैन समुदाय महावीर जयंती के रूप में मनाता है। उनके पिता सिद्धार्थ और माता त्रिशला ने उन्हें वीर नाम दिया। उनका बचपन राजसी वैभव में बीता, लेकिन उन्होंने जल्द ही सांसारिक मोह-माया को त्याग दिया।
तपस्या और ज्ञान
30 वर्ष की आयु में, महावीर स्वामी ने घर छोड़ दिया और तपस्या में लीन हो गए। 12 वर्षों की कठोर तपस्या के बाद, उन्हें केवलज्ञान प्राप्त हुआ। इस ज्ञान के साथ, वे जीवन और ब्रह्मांड के सच्चे स्वरूप को समझने में सक्षम हुए।
उपदेश और शिष्य
महावीर स्वामी ने अपने ज्ञान को लोगों में बांटना शुरू किया। उन्होंने जीवन के चार आश्रमों – ब्रह्मचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ, और संन्यास – के महत्व को बताया। उनके उपदेशों ने अनेक लोगों को प्रभावित किया और उनके अनुयायी बने।
महावीर स्वामी के सिद्धांत
महावीर स्वामी ने जीवन के प्रति एक अहिंसक दृष्टिकोण का प्रचार किया। उन्होंने सभी जीवों के प्रति करुणा और सम्मान की भावना को महत्वपूर्ण बताया। उनका मानना था कि आत्मा का शुद्धिकरण ही मोक्ष की ओर ले जाता है।
निधन और विरासत
महावीर स्वामी का निधन 72 वर्ष की आयु में पावापुरी में हुआ। उनकी शिक्षाएँ और दर्शन आज भी जैन समुदाय द्वारा अनुसरण किए जाते हैं। उनकी विरासत अहिंसा, सत्य, और करुणा के मूल्यों के रूप में जीवित है।
यह लेख श्री महावीर स्वामी के जीवन और उनके दर्शन का संक्षिप्त परिचय प्रस्तुत करता है। उनके जीवन की गहराई और उनके उपदेशों की विस्तृत व्याख्या के लिए, जैन ग्रंथों और शास्त्रों का अध्ययन आवश्यक है।
श्री महावीर (तीर्थंकर) चालीसा Shree Mahaveer Chalisa Lyrics
॥ दोहा ॥
शीश नवा अरिहन्त को, सिद्धन करूँ प्रणाम।
उपाध्याय आचार्य का, ले सुखकारी नाम ॥
सर्व साधु और सरस्वती, जिन मन्दिर सुखकार।
महावीर भगवान को, मन-मन्दिर में धार ॥
॥चौपाई॥
जय महावीर दयालु स्वामी, वीर प्रभु तुम जग में नामी।
वर्धमान है नाम तुम्हारा, लगे हृदय को प्यारा प्यारा।
शांति छवि और मोहनी मूरत, शान हँसीली सोहनी सूरत।
तुमने वेश दिगम्बर धारा, कर्म-शत्रु भी तुम से हारा।
क्रोध मान अरु लोभ भगाया, महा-मोह तमसे डर खाया।
तू सर्वज्ञ सर्व का ज्ञाता, तुझको दुनिया से क्या नाता ।
तुझमें नहीं राग और द्वेश, वीर रण राग तू हितोपदेश ।
तेरा नाम जगत में सच्चा, जिसको जाने बच्चा बच्चा ।
भूत प्रेत तुम से भय खावें, व्यन्तर राक्षस सब भाग जावें।
महा व्याध मारी न सतावे, महा विकराल काल डर खावे।
काला नाग होय फन-धारी, या हो शेर भयंकर भारी।
ना हो कोई बचाने वाला, स्वामी तुम्हीं करो प्रतिपाला।
अग्नि दावानल सुलग रही हो, तेज हवा से भड़क रही हो।
नाम तुम्हारा सब दुख खोवे, आग एकदम ठण्डी होवे।
हिंसामय था भारत सारा, तब तुमने कीना निस्तारा।
जन्म लिया कुण्डलपुर नगरी, हुई सुखी तब प्रजा सगरी।
सिद्धारथ जी पिता तुम्हारे, त्रिशला के आँखों के तारे।
छोड़ सभी झंझट संसारी, स्वामी हुए बाल-ब्रह्मचारी ।
पंचम काल महा-दुखदाई, चाँदनपुर महिमा दिखलाई।
टीले में अतिशय दिखलाया, एक गाय का दूध गिराया।
सोच हुआ मन में ग्वाले के, पहुँचा एक फावड़ा लेके।
सारा टीला खोद बगाया, तब तुमने दर्शन दिखलाया।
जोधराज को दुख ने घेरा, उसने नाम जपा जब तेरा।
ठंडा हुआ तोप का गोला, तब सब ने जयकारा बोला।
मन्त्री ने मन्दिर बनवाया, राजा ने भी द्रव्य लगाया।
बड़ी धर्मशाला बनवाई, तुमको लाने को ठहराई।
तुमने तोड़ी बीसों गाड़ी, पहिया खसका नहीं अगाड़ी।
ग्वाले ने जो हाथ लगाया, फिर तो रथ चलता ही पाया।
पहिले दिन बैशाख वदी के, रथ जाता है तीर नदी के।
मीना गूजर सब ही आते, नाच-कूद सब चित उमगाते।
स्वामी तुमने प्रेम निभाया, ग्वाले का बहु मान बढ़ाया।
हाथ लगे ग्वाले का जब ही, स्वामी रथ चलता है तब ही।
मेरी है टूटी सी नैया, तुम बिन कोई नहीं खिवैया।
मुझ पर स्वामी जरा कृपा कर, मैं हूँ प्रभु तुम्हारा चाकर।
तुम से मैं अरु कछु नहीं चाहूँ, जन्म-जन्म तेरे दर्शन पाऊँ।
चालीसे को ‘चन्द्र’ बनावे, बीर प्रभु को शीश नवावे।
॥ सोरठा ॥
नित चालीसहि बार, पाठ करे चालीस दिन।
खेय सुगन्ध अपार, वर्धमान के सामने ॥
होय कुबेर समान, जन्म दरिद्री होय।
जोबा जिसके नहिं सन्तान, नाम वंश जग में चले ॥