श्री चिन्तपूर्णी देवी मंदिर Chintapurni Devi temple
हमारे देश में माँ आदिशक्ति दुर्गा के 51 शक्ति पीठ हैं। सभी के सभी शक्तिपीठ देवी सती के ही स्वरूप माने जाते हैं।आज हम आपको जिन देवी की कथा सुनानेवाले हैं, जिनकी महिमा गाने वाले हैं, जिनके पावन धाम का दर्शन करनेवाले हैं. वहा देवी हैं माता चिंतपूर्णी माता चिंतपूर्णी को छिन्मस्तिका के नाम से भी जाना जाता है,अर्थात वह देवी जिनका मस्तक नहीं है। माता चिंतपूर्णी का पावन धाम भी देवभूमि तपोभूमि हिमाचल प्रदेश के ऊना जिले में स्थित है। चिंतपूर्णी अर्थात चिंता को दूर करने वाली माता। कहा जाता है कि माता चिंतपूरनी शरण में आनेवाले भक्तों को सारी चिंताओं से मुक्त कर देती हैं। इसीलिए माता को चिंतपूर्णी माता नाम से जाना जाता है।
माता चिंतपूर्णी मंदिर से जुड़ी पौराणिक कथा
माँ के भक्तों! पुराणों के अनुसार सभी माताओ की उत्पति की एक ही कथा है। चिंतपूर्णी देवी माता सती का ही रूप है। कहानी कुछ इस तरह है की भगवान शिव का वाघ दान (विवाह) माता सती से हुवा था माता सती के पिता का नाम राजा दक्ष प्रजापती था वो भगवान शिव को अपने तुल्य नहीं मानता थे। एक बार दक्ष प्रजापति ने एक बहुत बड़ा यज्ञ का आयोजन किया उन्होंने सभी देवी देवताओं की निमंत्रण भेजा किन्तु भगवान शिव और माता सती को निमंत्रण नहीं भेजा गया। यह देखकर माता सती को बहुत क्रोध आया और उन्होंने वह जाकर अपने पिता से इस अपमान का कारण पूछने के लिए उन्होंने शिव भगवान से वह जाने की आज्ञा मांगी किन्तु भगवान शिव ने उन्हें वह जाने से मना किया किन्तु माता सती के बार बार आग्रह करने पर शिव भगवान ने उन्हें जाने दिया।जब बिना बुलाए यज्ञ में पहुंची तो उनके पिता दक्ष ने उन्हें काफी बुरा भला कहा और साथ ही साथ भगवान शिव के लिए काफी बुरी भली बातें कही जिसे माता सती सहन नहीं कर पाई और उन्होंने उसी यज्ञ की आग में कूद कर अपनी जान दे दी। यह देख कर भगवान शिव को बहुत क्रोध आया और उन्होंने माता सती का जला हुआ शरीर अग्नी कुंड से उठा कर चारों और तांडव करने लग गये जिस कारण सारे ब्रह्मांड में हाहाकार मच गया यह देख कर लोग भगवान विष्णु के पास भागे. तब भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से माता सती के शरीर के ५१ टुकड़े कर दिये ये टुकड़े जहाँ जहाँ गिरे वह पर शक्ति पीठ बन गए।मान्यता है चिंतपूरणी धाम में माता के चरण गिरे थे।
श्री चिन्तपूर्णी देवी से जुड़ी एक और कथा
माता चिंतपूरणीभी आदिशक्ति पार्वती का ही एक रूप हैं। माँ के चिंतपूरणी नाम के पीछे भी एक कथा है। मार्कन्डेय पुराण, देवीभागवत और दुर्गासप्तशती के देवी महात्म्य के अनुसार देवताओं और असुरो के बीच सो वर्षो तक युद्ध हुआ।जिसमे असुरो की विजय हुई।उस समय असुरो का राजा शक्तिशाली महिषासुर था जो जीत कर स्वर्ग का राजा बन बैठा।और सभी देवता धरती पर रह कर मनुष्यों की भांति ही अपना जीवन यापन करने लगे असुर देवताओं पर बहुत अत्याचार करते थे।देवताओं ने एक दिन बैठ कर आपस में विचार विमर्श किया और इस कष्ट से मुक्ति पाने के लिए भगवान विष्णु के पास जाने का निर्णय किया।वह सब भगवान विष्णु जी के पास गये और अपने सरे कष्ट बता कर उन्हें कुछ उपाय बताने का आग्रह किया।भगवान विष्णु ने उन्हें देवी की आराधना करने को कहा।तब देवताओं ने भगवान विष्णु से उस देवी के बारे में पूछा की ” हें प्रभु हमे उस देवी के बारे में बताए ” जो हमे हमारे कष्टों से मुक्ति दिला सकती है।सभी देवताओं ने भगवान के कहे अनुसार देवी की स्तुति की जिसके फलस्वरूप भगवान विष्णु जी , ब्रह्मा जी और शिव जी तीनों त्रिदेवो के अंदर से एक दिव्य प्रकाश उत्पन्न हुआ जो सबके देखते देखते ही एक स्त्री के रूप में बदल गया।जैसे ही देवी प्रकट हुई सभी ने माता की स्तुति करना आरम्भ कर दिया सभी देवी देवताओं ने माता को कुछ ना कुछ भेंट देना आरम्भ कर दिया शिव भगवान ने सिंह दिया विष्णु जी ने कमल, इंद्र देव ने घंटा , सागर देवता ने माता को बहुत ही सुंदर माला दी इस प्रकार सभी ने देवी को कुछ ना कुछ उपहार भेंट किये।सब ने हाथ जोड़ कर माता से अपनी रक्षा करने के लिए माता से आग्रह किया।माता ने प्रसन होकर उन्हें उनके कष्टों से मुक्ति दिलाने का वरदान दिया ।इसके बाद माता ने महिषासुर से कई समय तक युद्ध किया और अंत में उसका वध कर दिया।सभी ने माता की जय जय कार की… तभी से माता का नाम महिषासुर मर्दनी भी पड़ा।
माता चिंतपूर्णी मंदिर में वट वृक्ष का महत्व
मंदिर के साथ ही में वट का वृक्ष है जहां पर श्रद्धालु कच्ची मोली अपनी मनोकामना की पूर्ति के लिए बांधते हैं। आगे पश्चिम की और बढने पर बड़ का वृक्ष है जिसके अंदर भैरों और गणेश के दर्शन होते हैं। मंदिर का मुख्य द्वार पर सोने की परत चढी हुई है। इस मुख्य द्वार का प्रयोग नवरात्रि के समय में किया जाता है। यदि मौसम साफ हो तो आप यहां से धौलाधर पर्वत श्रेणी को देख सकते हैं। मंदिर की सीढियों से उतरते वक्त उत्तर दिशा में पानी का तालाब है। भक्त माईदास की समाधि भी तालाब के पश्चिम दिशा की ओर है। भक्त माईदास द्वारा ही माता के इस पावन धाम की खोज की गई थी।
पुराणों के अनुसार यह स्थान चार महारुद्र के मध्य स्थित है। एक तरफ कालेश्वर महादेव, दूसरी तरफ शिववाड़ी, तीसरी तरफ नारायण महादेव औरचौथी तरफ मुचकंद महादेव विराजमान हैं।
छिन्नमस्तिका नाम का कारण
मार्कंडेय पुराण के अनुसार माँ चंडी जब सभी दैत्यों का संहारकर सभी दुष्टों पर विजय प्राप्त कर ली. लेकिन माँ की दो सहायक योगिनियों अजया और विजया की रक्त पीने की इच्छा शांत नहीं हो पाई थी तब माँ चंडी ने, योगिनियों की रक्त पीने की इच्छा को तृप्त करने के लिए, अपनी गर्दन काटकर दी और अजया तथा विजया को अपना रक्त पिलाकर तृप्त किया जबसे माँ चंडी ने अपना गर्दन काटकर अपनी सहायक योगिनियों अजया और विजया की प्यास बुझाई तभी से माँ का नाम छिन्नमस्ता/ छिन्मस्तिका पड़ाहै।
श्री चिन्तपूर्णी देवी मंदिर का नवरात्रि विशेष महत्व
चिंतपूर्णी मंदिर में शरदीय और ग्रीष्मऋतु नवरात्रि काफी धूमधाम से मनाये जाते हैं। नवरात्रि में यहां पर विशाल मेले का आयोजन किया जाता है। नवरात्रि में जहांदिनभर हवन पूजन, अनुष्ठान व चंडीपाठ चलता है तो वहीं प्रत्येक रात्रि को जागरण का आयोजन किया जाता है। नवरात्रि के दिनो में यहां पर आने वाने श्रद्धालुओं कि संख्या में काफी वृद्धि हो जाती है।माता के भक्त मंदिर के अंदर निरंतर भजन कीर्तन करते रहते हैं। इन भजनो को सुनकर मंदिर में आने वाले भक्तो को दिव्य आंनद की प्राप्ति होती है और कुछ पलो के लिए वह सब कुछ भूल कर अपने को देवी को समर्पित कर देते हैं|
श्री चिन्तपूर्णी देवी मंदिर का सड़क मार्ग
चिंतपूर्णी तक जाने के बहुत से मार्ग हैं। यदि आप दिल्ली से चिंतपूर्णी आते हैं। तो आपको दिल्ली से चंडीगढ़, रोपड़, नंगल, ऊना, मुबारकपुर, भरवानी होते हुए चिंतपूर्णी आना होगा। आप सड़क मार्ग तय करके 5 घंटे में चंडीगढ़ से चिंतपूर्णी पहुंच सकते हैं। हिमाचल प्रदेश ट्राँसपोर्ट विभाग द्वारा भी यहां तक के लिए बस सुविधा मुहैया कराई गई है। जालंधर से भी यहाँ तक के लिए एक सीधा रास्ता है।
श्री चिन्तपूर्णी देवी जी की आरती
चिन्तपूर्णी चिन्ता दूर करनी,
जन को तारो भोली माँ॥
काली दा पुत्र पवन दा घोडा,
सिंह पर भई असवार, भोली माँ॥१॥ ….