आदित्य हृदय स्तोत्रम् Aditya Hridaya Stotram
आदित्य ह्रदय स्तोत्र वाल्मीकि द्वारा रचित श्रीमद्रामायण का एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली भाग है, जो ‘युद्ध काण्ड’ में वर्णित है। यह स्तोत्र सूर्य देव की स्तुति और उपासना पर आधारित है। जब भगवान श्रीराम और रावण के बीच घोर युद्ध चल रहा था, तब भगवान राम के मानसिक और शारीरिक बल को बढ़ाने के लिए महर्षि अगस्त्य ने उन्हें यह स्तोत्र सुनाया था। यह स्तोत्र भगवान सूर्य की महिमा का वर्णन करता है और इसके जप से संकटों का नाश, विजय प्राप्ति और जीवन में ऊर्जा का संचार होता है।
आदित्य ह्रदय स्तोत्र का प्रासंगिक संदर्भ:
वाल्मीकि रामायण के युद्ध काण्ड में यह वर्णन आता है। जब भगवान राम रावण के साथ भीषण युद्ध में लगे थे और थोड़े हताश दिख रहे थे, तब ऋषि अगस्त्य ने उन्हें यह मंत्र दिया। इस स्तोत्र का पाठ करके भगवान राम ने अपने साहस को पुनः जाग्रत किया और रावण का वध किया।
आदित्य ह्रदय स्तोत्र का महत्त्व:
- शौर्य और बल: यह स्तोत्र मानसिक और शारीरिक बल को बढ़ाने का एक महत्वपूर्ण साधन है। भगवान सूर्य के आशीर्वाद से साधक में आत्मविश्वास और ऊर्जा का संचार होता है।
- विजय प्राप्ति: भगवान राम ने इसी स्तोत्र के प्रभाव से रावण को पराजित किया था। अतः यह स्तोत्र विजयी बनने की शक्ति प्रदान करता है।
- आध्यात्मिक और भौतिक उन्नति: इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से साधक को मानसिक शांति, आत्मबल और आध्यात्मिक उन्नति मिलती है। साथ ही, यह स्वास्थ्य, धन और समृद्धि भी प्रदान करता है।
- समस्याओं का नाश: यह स्तोत्र दुर्गम संकटों और कष्टों का नाश करने वाला माना जाता है।
आदित्य ह्रदय स्तोत्र की रचना:
आदित्य ह्रदय स्तोत्र में कुल 31 श्लोक हैं, जिनमें भगवान सूर्य की महिमा, उनकी दिव्यता और उनके द्वारा सभी जीवों को प्रदान की जाने वाली ऊर्जा और जीवन का वर्णन किया गया है। स्तोत्र में यह कहा गया है कि भगवान सूर्य तीनों लोकों के साक्षी हैं, वे सभी प्राणियों के जीवन का आधार हैं और उनकी आराधना से जीवन की सभी बाधाएं समाप्त होती हैं।
आदित्य ह्रदय स्तोत्र का पाठ:
स्तोत्र का नियमित पाठ किसी भी रविवार, सप्तमी या विशेष अवसरों पर किया जा सकता है। इसका पाठ प्रातःकाल सूर्योदय के समय किया जाता है, जब सूर्य की प्रथम किरणें आकाश में फैलने लगती हैं। इसके पाठ से व्यक्ति को अद्भुत मानसिक और शारीरिक शक्ति प्राप्त होती है।
आदित्य हृदय स्तोत्रम् Aditya Hridaya Stotram
श्रीगणेशाय नम: ॥
ततो युद्धपरिश्रान्तं समरे चिन्तया स्थितम् ।
रावणं चाग्रतो दृष्ट्वा युद्धाय समुपस्थितम् ॥१॥
दैततैश्च समागम्य द्रष्टुमभ्यागतो रणम् ।
उपगम्याब्रवीद्राममगस्त्यो भगवाँस्तदा ॥२॥
राम राम महाबाहो श्रृणु गुह्मां सनातनम् ।
येन सर्वानरिन्वत्स समरे विजयिष्यसे ॥३॥
आदित्यहृदयं पुण्यं. सर्वशत्रुविनाशनम् ।
जयावहं जपेन्नित्यमक्षयं परमं शिवम् ॥४॥
सर्वमङ्गलमाङ्गल्यं सर्वपापप्रणाशनम् ।
चिन्ताशोकप्रशमनमायुर्वर्धनमुत्तमम् ॥५॥
रश्मिमन्तं समुद्यन्तं देवासुरनमस्कृतम् ।
पुजयस्व विवस्वत्नं भास्करं भुवनेश्वरम् ॥६॥
सर्वदेवात्मको ह्योष तेजस्वी रश्मिभावन: ।
एष देवासुरगणाँल्लोकान्पातु गभस्तिभि: ॥७॥
एष ब्रह्मा च विष्णुश्च शिव: स्कन्द: प्रजापति: ।
महेन्द्रो धनद: कालो यम: सोमो ह्यपांपति: ॥८॥
पितरौ वसव: साध्या अश्विनौ मरुतो मनु: ।
वायुर्वह्नि: प्रजाप्राणा ऋतुकर्ता प्रभाकर: ॥९॥
आदित्य: सविता सुर्य: खग: पुषा गभस्तिमान् ।
सुवर्णस्तपनो भानु: स्वर्णरेता दिवाकर: ॥१०॥
हरिदश्व: सहस्त्रार्चि: सप्तसप्तिर्मरीचिमान् ।
तिमिरोन्मथन: शम्भुस्त्वष्टा मार्तण्डकोंऽशुमान् ॥११॥
हिरण्यगर्भ: शिशिरस्तपनो भास्करो रवि: ।
अग्निगर्भोऽदिते: पुत्र शङ्र्व: शिशिरनाशन: ॥१२॥
व्योमनाथस्तमोभेदी ऋग्यजु:सामपारग: ।
घनवृष्टिरपां मित्रो विन्ध्यवीथीप्लवङ्गम: ॥१३॥
आतपी मण्डली मृत्यु: पिङ्गल: सर्व तापन:।
कविर्विश्वो महातेजा: रक्त: सर्वभवोद्भव: ॥१४॥
नक्षत्रग्रहताराणामधिपो विश्वभावन: ।
तेजसामपि तेजस्वी द्वादशात्मन्न मोऽस्तु ते ॥१५॥
नम: पुर्वाय गिरये पश्चिमायाद्रये नम: ।
ज्योतिर्गणानां पतये दिनाधिपतये नम: ॥१६॥
जयाय जयभद्राय हर्यश्वाय नमो नम: ।
नमो नम: सहस्त्रांशो आदित्याय नमो नम: ॥१७॥
नम उग्राय वीराय सारङ्गाय नमो नम: ।
नम: पद्यप्रबोधाय प्रचण्डाय नमोऽस्तु ते ॥१८॥
ब्रह्मोशानाच्युतेशाय सुरायादित्यवर्चसे ।
भास्वते सर्वभक्षाय रौद्राय वपुषे नम: ॥१९॥
तमोघ्नाय हिमघ्नाय शत्रुघ्नायामितात्मने ।
कृतघ्नघ्नाय देवाय ज्योतिषां पतये नम: ॥२०॥
तप्तचामीकराभाय हरये विश्वकर्मणे ।
नमस्तमोऽभिनिघ्नाय रुचये लोकसाक्षिणे ॥२१॥
नाशयत्येष वै भूतं तदेव सृजति प्रभु: ।
पायत्येष तपत्येष वर्षत्येष गभस्तिभि: ॥२२॥
एष सुप्तेषु जागर्ति भूतेषु परिनिष्ठित: ।
एष चैवाग्निहोत्रं च फलं चैवाग्निहोत्रिणाम् ॥२३॥
देवाश्च क्रतवश्चैव क्रतुनां फलमेव च ।
यानि कृत्यानि लोकेषु सर्वषु परमप्रभु: ॥२४॥
एनमापत्सु कृच्छ्रेषु कान्तारेषु भयुषु च ।
कीर्तयन्पुरुष: कश्चिन्नावसीदति राघव: ॥२५॥
पुजयस्वैनमेकाग्रो देवदेव जगप्ततिम् ।
एतित्रिगुणितं जप्त्वा युद्धेषु विजयिष्यसि ॥२६॥
अस्मिन् क्षणे महाबाहो रावणं त्वं जहिष्यासि ।
एवमुक्ता ततोऽगस्त्यो जगाम स यथागतम् ॥२७॥
एतच्छ्रु त्वा महातेजा नष्टशोकोऽभवत्तदा ॥
धारयामास सुप्रीतो राघव: प्रयतात्मवान् ॥२८॥
आदित्यं प्रेक्ष्य जप्त्वेदं परं हर्षमात्पवान् ।
त्रिराचम्य शुचिर्भुत्वा धनुरादाय वीर्यवान् ॥२९॥
रावणं प्रेक्ष्य हृष्टात्मा युद्धार्थं समुपागतम् ।
सर्वयत्नेन महता वधे तस्य वृतोऽभवत् ॥३०॥
अथ रविरवदन्निरीक्ष्य रामं मुदितमना: परमं प्रहृष्यमाण: ।
निशिचरपतिसंक्षयं विदित्वा सुरगणमध्यगतो वचस्त्वरेति ॥३१॥
इत्यार्षे वाल्मीकीयेश्रीमद्रामायणे आदित्यहृदयस्तोत्रं समाप्तम् ।
आदित्य ह्रदय स्तोत्र के लाभ:
- आरोग्य: इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से रोगों से मुक्ति मिलती है और शरीर में ऊर्जा का संचार होता है।
- विजय: युद्ध, विवाद या किसी प्रकार की चुनौती में विजय प्राप्त करने के लिए इस स्तोत्र का पाठ करना अत्यंत लाभकारी माना जाता है।
- आध्यात्मिक उन्नति: यह स्तोत्र आध्यात्मिक जागृति और आत्मबल को प्रोत्साहित करता है।
- नकारात्मकता से मुक्ति: यह स्तोत्र व्यक्ति के जीवन से नकारात्मक ऊर्जाओं और विचारों को दूर कर सकारात्मकता का संचार करता है।