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शनिवार, अप्रैल 19, 2025

पुरुष सूक्तम्

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Purusha Suktam In Hindi

पुरुष सूक्तम् ऋग्वेद के दसवें मंडल का 90वाँ सूक्त है, जो हिंदू धर्म और वैदिक साहित्य में एक अत्यंत महत्वपूर्ण ग्रंथ माना जाता है। यह सूक्त 16 मंत्रों में विभाजित है और इसे वैदिक काल के ऋषि नारायण द्वारा रचित माना जाता है। पुरुष सूक्तम् का मुख्य विषय ब्रह्मांड की उत्पत्ति, विश्व की संरचना और सर्वोच्च पुरुष (ईश्वर) की महिमा का वर्णन है। यह न केवल एक धार्मिक ग्रंथ है, बल्कि यह दर्शन, समाजशास्त्र और प्रतीकात्मकता का भी एक गहन स्रोत है। आइए, इस अद्भुत सूक्त के विभिन्न पहलुओं पर विस्तार से चर्चा करें।

पुरुष सूक्तम् का अर्थ और संदर्भ

“पुरुष” शब्द का अर्थ है सर्वोच्च प्राणी या ईश्वर, जो सृष्टि के सृजन और संचालन का आधार है। इस सूक्त में “पुरुष” को ब्रह्मांड का मूल स्रोत और सर्वव्यापी शक्ति के रूप में चित्रित किया गया है। यह सूक्त यह दर्शाता है कि समस्त सृष्टि और उसकी विविधता इस एक परम पुरुष से उत्पन्न हुई है। पुरुष सूक्तम् को अक्सर यज्ञ, कर्मकांड और आध्यात्मिक चिंतन से जोड़ा जाता है, और इसे वेदों का एक दार्शनिक आधार माना जाता है।

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पुरुष सूक्तम्(ऋवदे : 10-90, यजवदु अयाय 31)

ॐ तच्छं॒-योँरावृ॑णीमहे । गा॒तुं-यँ॒ज्ञाय॑ । गा॒तुं-यँ॒ज्ञप॑तये । दैवी᳚ स्व॒स्तिर॑स्तु नः । स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः । ऊ॒र्ध्वं जि॑गातु भेष॒जम् । शं नो॑ अस्तु द्वि॒पदे᳚ । शं चतु॑ष्पदे ।
ॐ शांतिः॒ शांतिः॒ शांतिः॑ ॥

स॒हस्र॑शीर्​षा॒ पुरु॑षः । स॒ह॒स्रा॒क्षः स॒हस्र॑पात् ।
स भूमिं॑-विँ॒श्वतो॑ वृ॒त्वा । अत्य॑तिष्ठद्दशांगु॒लम् ॥

पुरु॑ष ए॒वेदग्ं सर्वम्᳚ । यद्भू॒तं-यँच्च॒ भव्यम्᳚ ।
उ॒तामृ॑त॒त्व स्येशा॑नः । यदन्ने॑नाति॒रोह॑ति ॥

ए॒तावा॑नस्य महि॒मा । अतो॒ ज्यायाग्॑श्च॒ पूरु॑षः ।
पादो᳚ऽस्य॒ विश्वा॑ भू॒तानि॑ । त्रि॒पाद॑स्या॒मृतं॑ दि॒वि ॥

त्रि॒पादू॒र्ध्व उदै॒त्पुरु॑षः । पादो᳚ऽस्ये॒हाऽऽभ॑वा॒त्पुनः॑ ।
ततो॒ विष्व॒ङ्​व्य॑क्रामत् । सा॒श॒ना॒न॒श॒ने अ॒भि ॥

तस्मा᳚द्वि॒राड॑जायत । वि॒राजो॒ अधि॒ पूरु॑षः ।
स जा॒तो अत्य॑रिच्यत । प॒श्चाद्भूमि॒मथो॑ पु॒रः ॥

यत्पुरु॑षेण ह॒विषा᳚ । दे॒वा य॒ज्ञमत॑न्वत ।
व॒सं॒तो अ॑स्यासी॒दाज्यम्᳚ । ग्री॒ष्म इ॒ध्मश्श॒रध्ध॒विः ॥

स॒प्तास्या॑सन्परि॒धयः॑ । त्रिः स॒प्त स॒मिधः॑ कृ॒ताः ।
दे॒वा यद्य॒ज्ञं त॑न्वा॒नाः । अब॑ध्न॒न्-पुरु॑षं प॒शुम् ॥

तं-यँ॒ज्ञं ब॒र्॒हिषि॒ प्रौक्षन्॑ । पुरु॑षं जा॒तम॑ग्र॒तः ।
तेन॑ दे॒वा अय॑जंत । सा॒ध्या ऋष॑यश्च॒ ये ॥

तस्मा᳚द्य॒ज्ञाथ्स॑र्व॒हुतः॑ । संभृ॑तं पृषदा॒ज्यम् ।
प॒शूग्ग्-स्ताग्ग्-श्च॑क्रे वाय॒व्यान्॑ । आ॒र॒ण्यान्-ग्रा॒म्याश्च॒ ये ॥

तस्मा᳚द्य॒ज्ञाथ्स॑र्व॒हुतः॑ । ऋचः॒ सामा॑नि जज्ञिरे ।
छंदाग्ं॑सि जज्ञिरे॒ तस्मा᳚त् । यजु॒स्तस्मा॑दजायत ॥

तस्मा॒दश्वा॑ अजायंत । ये के चो॑भ॒याद॑तः ।
गावो॑ ह जज्ञिरे॒ तस्मा᳚त् । तस्मा᳚ज्जा॒ता अ॑जा॒वयः॑ ॥

यत्पुरु॑षं॒-व्यँ॑दधुः । क॒ति॒था व्य॑कल्पयन्न् ।
मुखं॒ किम॑स्य॒ कौ बा॒हू । कावू॒रू पादा॑वुच्येते ॥

ब्रा॒ह्म॒णो᳚ऽस्य॒ मुख॑मासीत् । बा॒हू रा॑ज॒न्यः॑ कृ॒तः ।
ऊ॒रू तद॑स्य॒ यद्वैश्यः॑ । प॒द्भ्याग्ं शू॒द्रो अ॑जायतः ॥

चं॒द्रमा॒ मन॑सो जा॒तः । चक्षोः॒ सूर्यो॑ अजायत ।
मुखा॒दिंद्र॑श्चा॒ग्निश्च॑ । प्रा॒णाद्वा॒युर॑जायत ॥

नाभ्या॑ आसीदं॒तरि॑क्षम् । शी॒र्​ष्णो द्यौः सम॑वर्तत ।
प॒द्भ्यां भूमि॒र्दिशः॒ श्रोत्रा᳚त् । तथा॑ लो॒काग्ं अ॑कल्पयन्न् ॥

वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हांतम्᳚ । आ॒दि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑स॒स्तु पा॒रे ।
सर्वा॑णि रू॒पाणि॑ वि॒चित्य॒ धीरः॑ । नामा॑नि कृ॒त्वाऽभि॒वद॒न्॒, यदाऽऽस्ते᳚ ॥

धा॒ता पु॒रस्ता॒द्यमु॑दाज॒हार॑ । श॒क्रः प्रवि॒द्वा-न्प्र॒दिश॒श्चत॑स्रः ।
तमे॒वं-विँ॒द्वान॒मृत॑ इ॒ह भ॑वति । नान्यः पंथा॒ अय॑नाय विद्यते ॥

य॒ज्ञेन॑ य॒ज्ञम॑यजंत दे॒वाः । तानि॒ धर्मा॑णि प्रथ॒मान्या॑सन्न् ।
ते ह॒ नाकं॑ महि॒मानः॑ सचंते । यत्र॒ पूर्वे॑ सा॒ध्याः संति॑ दे॒वाः ॥

अ॒द्भ्यः संभू॑तः पृथि॒व्यै रसा᳚च्च । वि॒श्वक॑र्मणः॒ सम॑वर्त॒ताधि॑ ।
तस्य॒ त्वष्टा॑ वि॒दध॑द्रू॒पमे॑ति । तत्पुरु॑षस्य॒ विश्व॒माजा॑न॒मग्रे᳚ ॥

वेदा॒हमे॒तं पुरु॑षं म॒हांतम्᳚ । आ॒दि॒त्यव॑र्णं॒ तम॑सः॒ पर॑स्तात् ।
तमे॒वं-विँ॒द्वान॒मृत॑ इ॒ह भ॑वति । नान्यः पंथा॑ विद्य॒तेऽय॑नाय ॥

प्र॒जाप॑तिश्चरति॒ गर्भे॑ अं॒तः । अ॒जाय॑मानो बहु॒धा विजा॑यते ।
तस्य॒ धीराः॒ परि॑जानंति॒ योनिम्᳚ । मरी॑चीनां प॒दमि॑च्छंति वे॒धसः॑ ॥

यो दे॒वेभ्य॒ आत॑पति । यो दे॒वानां᳚ पु॒रोहि॑तः ।
पूर्वो॒ यो दे॒वेभ्यो॑ जा॒तः । नमो॑ रु॒चाय॒ ब्राह्म॑ये ॥

रुचं॑ ब्रा॒ह्मं ज॒नयं॑तः । दे॒वा अग्रे॒ तद॑ब्रुवन्न् ।
यस्त्वै॒वं ब्रा᳚ह्म॒णो वि॒द्यात् । तस्य॑ दे॒वा अस॒न् वशे᳚ ॥

ह्रीश्च॑ ते ल॒क्ष्मीश्च॒ पत्न्यौ᳚ । अ॒हो॒रा॒त्रे पा॒र्​श्वे ।
नक्ष॑त्राणि रू॒पम् । अ॒श्विनौ॒ व्यात्तम्᳚ ।
इ॒ष्टं म॑निषाण । अ॒मुं म॑निषाण । सर्वं॑ मनिषाण ॥

तच्छं॒-योँरावृ॑णीमहे । गा॒तुं-यँ॒ज्ञाय॑ । गा॒तुं-यँ॒ज्ञप॑तये । दैवी᳚ स्व॒स्तिर॑स्तु नः । स्व॒स्तिर्मानु॑षेभ्यः । ऊ॒र्ध्वं जि॑गातु भेष॒जम् । शं नो॑ अस्तु द्वि॒पदे᳚ । शं चतु॑ष्पदे ।
ॐ शांतिः॒ शांतिः॒ शांतिः॑ ॥

दार्शनिक और प्रतीकात्मक अर्थ

पुरुष सूक्तम् केवल एक सृष्टि-वर्णन नहीं है, बल्कि यह एक गहन दार्शनिक संदेश देता है। यह सूक्त यह सिखाता है कि समस्त सृष्टि एक ही चेतना (पुरुष) से जुड़ी है। पुरुष का बलिदान एक प्रतीक है कि सृजन के लिए त्याग और समर्पण आवश्यक है। वर्ण व्यवस्था का उल्लेख, जो आज विवादास्पद हो सकता है, उस समय की सामाजिक संरचना को दर्शाता है, जहाँ कार्य-विभाजन के आधार पर समाज को व्यवस्थित किया गया था।

इसके अतिरिक्त, यह सूक्त आध्यात्मिक एकता और सर्वव्यापकता का संदेश देता है। यह कहता है कि ईश्वर और मनुष्य के बीच कोई भेद नहीं है; मनुष्य भी उसी परम पुरुष का अंश है। यह विचार बाद में उपनिषदों और भक्ति आंदोलन में और विकसित हुआ।

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व

पुरुष सूक्तम् का प्रयोग हिंदू धर्म में विभिन्न अनुष्ठानों और यज्ञों में किया जाता है। विशेष रूप से, यह सुंदरकांड, रामायण और अन्य वैदिक कर्मकांडों में पाठ के लिए लोकप्रिय है। यह ग्रंथ भक्तों को ईश्वर के प्रति श्रद्धा और समर्पण की भावना से जोड़ता है। इसके मंत्रों का जाप शांति, समृद्धि और ज्ञान की प्राप्ति के लिए किया जाता है।

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