वामनस्तोत्रम् भगवान विष्णु के वामन अवतार की स्तुति में रचित एक पवित्र और महत्वपूर्ण स्तोत्र है। वामन अवतार विष्णु के दशावतारों में से एक है, जिसमें भगवान ने एक बौने ब्राह्मण (वामन) के रूप में अवतार लिया था। यह अवतार विशेष रूप से राजा बलि के अहंकार को समाप्त करने और धर्म की स्थापना के उद्देश्य से लिया गया था।
वामन अवतार की कथा पुराणों में वर्णित है। इसका मुख्य उद्देश्य यह था कि असुरराज बलि ने अपनी भक्ति, तप और बल के कारण स्वर्ग लोक तक पर अधिकार कर लिया था। इससे देवताओं और ऋषि-मुनियों में भय फैल गया था। तब भगवान विष्णु ने वामन के रूप में अवतार लिया और बलि से तीन पग भूमि की मांग की। वामन ने तीन पगों से संपूर्ण ब्रह्मांड नाप लिया और इस प्रकार बलि का अहंकार नष्ट किया।
वामनस्तोत्रम् के पाठ से भगवान वामन का आशीर्वाद प्राप्त होता है। इसे पाठ करने वाले भक्तों को सफलता, समृद्धि और संकटों से मुक्ति प्राप्त होती है। इस स्तोत्र में भगवान वामन की महिमा का वर्णन है और उनसे भक्त अपनी रक्षा, कृपा और जीवन में संतुलन की प्रार्थना करते हैं।
इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से व्यक्ति को मानसिक शांति, आध्यात्मिक उन्नति और जीवन में सकारात्मक ऊर्जा की प्राप्ति होती है। हिन्दू धर्म में इसे धार्मिक उत्सवों और विशेष अवसरों पर विशेष रूप से पढ़ा जाता है। वामन जयंती, जो कि भाद्रपद मास की शुक्ल पक्ष की द्वादशी को मनाई जाती है, पर वामन स्तोत्रम् का पाठ करना अति शुभ माना जाता है।
वामन स्तोत्रम् में भगवान की विनम्रता और उनकी महानता को समर्पित श्लोक होते हैं, जो उनकी लीला और उनके उद्देश्यों की ओर संकेत करते हैं। इसका अध्ययन और पाठ व्यक्ति के जीवन में दैवीय कृपा को आकर्षित करने का एक शक्तिशाली साधन माना जाता है।
वामनस्तोत्रम् के श्लोक भगवान वामन के प्रभावशाली व्यक्तित्व और उनके द्वारा किए गए कार्यों की महिमा को उजागर करते हैं।
वामनस्तोत्रम् Vamana Stotram (Srimad Bhagavatam – SB 8.17.08 – 8.17.10 )
अदितिरुवाच ।
यज्ञेश यपक्षपुरुषाच्युत तीर्थपाद तीर्थश्रवः श्रवणमंगलामधेय ।
आपन्नलोकवृजिनोपशमोदयाऽऽद्य शं नः कृधीश भगवन्नसि दीननाथः ॥ १ ॥
विश्वाय विश्वभवनस्थितिसंयमाय स्वैरं गृहीतपुरुषक्तिगुणाय भूम्ने ।
स्वस्थाय शश्वदुपबृंहितपूर्णबोधव्यापादितात्मतमसे हरये नमस्ते ॥ २ ॥
आयुः परं वपुरभीष्टमतुल्यलक्ष्मीर्द्यौर्भूरसाः सकलयोगगुणास्त्रिवर्गः ।
ज्ञानं च केवलमनंत भवंति तुष्टोत्त्वत्तो नृणां किमु सपत्नजयादिराशीः ॥ ३ ॥
इति श्रीमद्भागवतांतर्गतम वामनस्तोत्रं संपूर्णम् ।
वामनस्तोत्रम् पद्मपुराणान्तर्गतम् Vamana Stotram Padma Purana
श्रीगणेशाय नमः ।
अदितिरुवाच ।
नमस्ते देवदेवेश सर्वव्यापिन् जनार्दन ।
सत्त्वादिगुणभेदेन लोकव्यापारकारिणे ॥ १॥
नमस्ते बहुरूपाय अरूपाय नमो नमः ।
सर्वैकाद्भुतरूपाय निर्गुणाय गुणात्मने ॥ २॥
नमस्ते लोकनाथाय परमज्ञानरूपिणे ।
सद्भक्तजनवात्सल्यशीलिने मङ्गलात्मने ॥ ३॥
यस्यावताररूपाणि ह्यर्जयन्ति मुनीश्वराः ।
तमादिपुरुषं देवं नमामीष्टार्थसिद्धये ॥ ४॥
यं न जानन्ति श्रुतयो यं न जानन्ति सूरयः ।
तं नमामि जगद्धेतुं मायिनं तममायिनम् ॥ ५॥
यस्यावलोकनं चित्रं मायोपद्रववारणम् ।
जगद्रूपं जगत्पालं तं वन्दे पद्मजाधवम् ॥ ६॥
यो देवस्त्यक्तसङ्गानां शान्तानां करुणार्णवः ।
करोति ह्यात्मना सङ्गं तं वन्दे सङ्गवर्जितम् ॥ ७॥
यत्पादाब्जजलक्लिन्नसेवारञ्जितमस्तकाः ।
अवापुः परमां सिद्धिं तं वन्दे सर्ववन्दितम् ॥ ८॥
यज्ञेश्वरं यज्ञभुजं यज्ञकर्मसु निष्ठितम् ।
नमामि यज्ञफलदं यज्ञकर्मप्रबोधकम् ॥ ९॥
अजामिलोऽपि पापात्मा यन्नामोच्चारणादनु ।
प्राप्तवान्परमं धाम तं वन्दे लोकसाक्षिणम् ॥ १०॥
ब्रह्माद्या अपि ये देवा यन्मायापाशयन्त्रिताः ।
न जानन्ति परं भावं तं वन्दे सर्वनायकम् ॥ ११॥
हृत्पद्मनिलयोऽज्ञानां दूरस्थ इव भाति यः ।
प्रमाणातीतसद्भावं तं वन्दे ज्ञानसाक्षिणम् ॥ १२॥
यन्मुखाद्ब्राह्मणो जातो बाहुभ्यः क्षत्रियोऽजनि ।
तथैव ऊरुतो वैश्यः पद्भ्यां शूद्रो अजायत ॥ १३॥
मनसश्चन्द्रमा जातो जातः सूर्यश्च चक्षुषः ।
मुखादिन्द्रस्तथाग्निश्च प्राणाद्वायुरजायत ॥ १४॥
त्वमिन्द्रः पवनः सोमस्त्वमीशानस्त्वमन्तकः ।
त्वमग्निर्निरृतिश्चैव वरुणस्त्वं दिवाकरः ॥ १५॥
देवाश्च स्थावराश्चैव पिशाचाश्चैव राक्षसाः ।
गिरयः सिद्धगन्धर्वा नद्यो भूमिश्च सागराः ॥ १६॥
त्वमेव जगतामीशो पुन्नामास्ति परात्परः । यन्नामास्ति
त्वद्रूपमखिलं तस्मात्पुत्रान्मे पाहि श्रीहरे ॥ १७॥
इति स्तुत्वा देवधात्री देवं मत्वा पुनः पुनः । नत्वा
उवाच प्राञ्जलिर्भूत्वा हर्षाश्रुक्षालितस्तनी ॥ १८॥
अनुग्राह्याऽस्मि देवेश हरे सर्वादिकारण ।
अकण्टकश्रियं देहि मत्सुतानां दिवौकसाम् ॥ १९॥
अन्तर्यामिन् जगद्रूप सर्वभूतपरेश्वर ।
तवाज्ञातं किमस्तीह किं मां मोहयसि प्रभो ॥ २०॥
तथापि तव वक्ष्यामि यन्मे मनसि वर्तते ।
वृथापुत्रास्मिदेवेश रक्षोभिः परिपीडिता ॥ २१॥
एतान्न हन्तुमिच्छामि मत्सुता दितिजातयः । दितिजा यतः
तानहत्वा श्रियं देहि मत्सुतानामुवाच सा ॥ २२॥
इत्युक्तो देवदेवस्तु पुनः प्रीतिमुपागतः ।
उवाच हर्षयन्साध्वीं कृपयाऽभिपरिप्लुतः ॥ २३॥
श्रीभगवानुवाच ।
प्रीतोऽस्मि देवि भद्रं ते भविष्यामि सुतस्तव ।
यतः सपत्नीतनयेष्वपि वात्सल्यशालिनी ॥ २४॥
त्वया च मे कृतं स्तोत्रं पठन्ति भुवि मानवाः ।
तेषां पुत्रा धनं सम्पन्न हीयन्ते कदाचन ॥ २५॥
अन्ते मत्पदमाप्नोति यद्विष्णोः परमं शुभम् ॥ २६॥
इति श्रीपद्मपुराणान्तर्गतं वामनस्तोत्रं समाप्तम् ।