“रश्मिरथी” के तृतीय सर्ग के भाग 3 में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने महाभारत की उस ऐतिहासिक और भावनात्मक घटना का चित्रण किया है जिसमें श्रीकृष्ण शांति-दूत बनकर हस्तिनापुर जाते हैं। यह भाग न केवल नाटकीय उत्कर्ष से भरा है, बल्कि नीति, भक्ति, विवेक और अहंकार के टकराव का जीवंत दस्तावेज़ भी है।

रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 3 | Rashmirathi Third Sarg Bhaag 3
मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।
दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।
हम वहीं खुशी से खायेंगे,
परिजन पर असि न उठायेंगे!
दुर्योधन वह भी दे ना सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।
जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।
हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया,
डगमग-डगमग दिग्गज डोले,
भगवान् कुपित होकर बोले-
जंजीर बढ़ा कर साध मुझे,
हाँ, हाँ दुर्योधन! बाँध मुझे।
यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है,
मुझमें विलीन झंकार सकल,
मुझमें लय है संसार सकल।
अमरत्व फूलता है मुझमें,
संहार झूलता है मुझमें।
उदयाचल मेरा दीप्त भाल,
भूमंडल वक्षस्थल विशाल,
भुज परिधि-बन्ध को घेरे हैं,
मैनाक-मेरु पग मेरे हैं।
दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
हग हों तो दृश्य अकाण्ड देख,
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख,
चर-अचर जीव, जग, क्षर-अक्षर,
नश्वर मनुष्य सुरजाति अमर।
शत कोटि सूर्य, शत कोटि चन्द्र,
शत कोटि सरित, सर, सिन्धु मन्द्र।

पंक्तियों का विस्तार से अर्थ एवं भावार्थ:
1. श्रीकृष्ण का संधि प्रस्ताव:
“मैत्री की राह बताने को,
सबको सुमार्ग पर लाने को,
दुर्योधन को समझाने को,
भीषण विध्वंस बचाने को,
भगवान् हस्तिनापुर आये,
पांडव का संदेशा लाये।”
यहाँ श्रीकृष्ण के आने का उद्देश्य स्पष्ट किया गया है — मैत्री का मार्ग सुझाना, धर्म का प्रचार करना, और विनाश को टालना।
- “भगवान” शब्द श्रीकृष्ण के ईश्वरीय रूप को दर्शाता है।
- “हस्तिनापुर आये” – यह ऐतिहासिक यात्रा थी, जिसमें उन्होंने शांति का मार्ग सुझाया।
2. न्यूनतम की माँग और पांडवों की विनम्रता:
“दो न्याय अगर तो आधा दो,
पर, इसमें भी यदि बाधा हो,
तो दे दो केवल पाँच ग्राम,
रक्खो अपनी धरती तमाम।”
यह अंश पांडवों की विनम्रता, त्याग और न्यायप्रियता को दर्शाता है। वे आधा राज्य नहीं माँगते; यदि वह भी कठिन हो, तो केवल पाँच ग्राम की माँग करते हैं।
- यह कथन पांडवों की उदारता का प्रतीक है।
- इसमें छिपा हुआ व्यंग्य भी है — कि जो युद्ध को रोक सकता था, उसके लिए केवल पाँच ग्राम ज़मीन काफ़ी थी।
3. दुर्योधन का अहंकार और दम्भ:
“दुर्योधन वह भी दे न सका,
आशिष समाज की ले न सका,
उलटे, हरि को बाँधने चला,
जो था असाध्य, साधने चला।”
दुर्योधन न केवल पाँच ग्राम ज़मीन देने से इनकार करता है, बल्कि वह श्रीकृष्ण को बाँधने का दुस्साहस करता है।
- यह अहंकार और अविवेक की पराकाष्ठा थी।
- वह समाज की सहमति, धर्म या नीति को महत्व नहीं देता।
4. विवेक का अंत – विनाश का आरंभ:
“जब नाश मनुज पर छाता है,
पहले विवेक मर जाता है।”
यह दिनकर की सबसे प्रसिद्ध पंक्तियों में से एक है।
- यह बताता है कि विनाश की पूर्व सूचना विवेक के क्षय से मिलती है।
- यह सत्य हर युग में लागू होता है — जब मनुष्य अहंकार में विवेक खो देता है, तब विनाश अवश्यंभावी होता है।
5. श्रीकृष्ण का विराट रूप:
“हरि ने भीषण हुंकार किया,
अपना स्वरूप-विस्तार किया…”
श्रीकृष्ण तब अपना विराट स्वरूप प्रकट करते हैं, जो कि केवल एक मानव शरीर नहीं, बल्कि संपूर्ण ब्रह्मांड का द्योतक है।
- उनका स्वरूप देख दिग्गज भी डोल उठते हैं।
- यह रूप केवल शक्ति का प्रदर्शन नहीं, बल्कि यह चेतावनी भी है — कि अधर्म पर विजय निश्चित है।
6. विराट रूप का दर्शन:
“यह देख, गगन मुझमें लय है,
यह देख, पवन मुझमें लय है…
मुझमें लय है संसार सकल।”
यहाँ श्रीकृष्ण कहते हैं कि—
- सारा ब्रह्मांड (गगन, पवन, जीव, चर-अचर) उनमें लय है।
- वह अमरत्व और संहार दोनों के प्रतीक हैं।
- यह गीता के विराट स्वरूप के समान दृश्य है।
7. ईश्वर की सम्पूर्णता का बोध:
“दिपते जो ग्रह नक्षत्र निकर,
सब हैं मेरे मुख के अन्दर।
मुझमें सारा ब्रह्माण्ड देख…”
- श्रीकृष्ण यह स्पष्ट करते हैं कि वे केवल एक नायक नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि के रचयिता और नियंता हैं।
- यह दृश्य दुर्योधन को सचेत करने हेतु था, लेकिन उसका अंधकारमय विवेक कुछ समझ न सका।
यह भाग हमें यह सिखाता है कि:
- सत्य के लिए आग्रह जरूरी है,
- त्याग भी ताकत है,
- अहंकार अंततः विनाश ही लाता है।