यह अंश रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित रश्मिरथी महाकाव्य के तृतीय सर्ग (तीसरे अध्याय) का प्रथम भाग है। यह खंड उस समय की पृष्ठभूमि में है जब पांडव अपना अज्ञातवास समाप्त कर चुके हैं और पुनः हस्तिनापुर में अपने अधिकारों की मांग के लिए लौटे हैं। इस भाग में कवि ने केवल कथा का वर्णन नहीं किया है, बल्कि मानव साहस, संघर्ष, वीरता, और सकारात्मक दृष्टिकोण को बेहद ओजपूर्ण भाषा में प्रस्तुत किया है।

रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 1 | Rashmirathi Third Sarg Bhaag 1
हो गया पूर्ण अज्ञात वास,
पाडंव लौटे वन से सहास,
पावक में कनक-सहृश तप कर,
वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,
कुछ और नया उत्साह लिये।
सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्रों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।
मुख से न कभी उफ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।
है कौन विषघ्न ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।
गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।
पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।

पंक्तियों का विस्तार से अर्थ एवं भावार्थ:
1. प्रारंभिक पंक्तियाँ : विपत्ति में तपकर निखरा वीरत्व:
“हो गया पूर्ण अज्ञात वास,
पाडंव लौटे वन से सहास,
पावक में कनक-सहृश तप कर,
वीरत्व लिए कुछ और प्रखर,
नस-नस में तेज-प्रवाह लिये,
कुछ और नया उत्साह लिये।”
- इन पंक्तियों में कवि कहते हैं कि पांडवों ने अपना अज्ञातवास पूरा कर लिया है और वे साहस के साथ लौटे हैं।
- जैसे सोना अग्नि में तप कर अधिक चमकदार हो जाता है, वैसे ही पांडव विपत्तियों से गुजर कर और भी अधिक वीर बन चुके हैं।
- उनके शरीर की नस-नस में तेज बह रहा है, और उनमें एक नया उत्साह उत्पन्न हो चुका है।
2. विपत्ति का प्रभाव : कायर बनाम वीर:
“सच है, विपत्ति जब आती है,
कायर को ही दहलाती है,
शूरमा नहीं विचलित होते,
क्षण एक नहीं धीरज खोते,
विघ्नों को गले लगाते हैं,
काँटों में राह बनाते हैं।”
- दिनकर यहाँ कहते हैं कि विपत्ति कायर को ही डराती है, पर वीर व्यक्ति उससे नहीं घबराता।
- सच्चे योद्धा संकटों का सामना करते हैं, उनसे भागते नहीं हैं।
- वे कांटों से भरे रास्ते में भी राह बना लेते हैं और अवरोधों को चुनौती के रूप में स्वीकार करते हैं।
3. धैर्य और पुरुषार्थ : साहसी व्यक्ति की प्रतिक्रिया:
“मुख से न कभी उफ कहते हैं,
संकट का चरण न गहते हैं,
जो आ पड़ता सब सहते हैं,
उद्योग-निरत नित रहते हैं,
शूलों का मूल नसाने को,
बढ़ खुद विपत्ति पर छाने को।”
- वीर कभी शिकायत नहीं करता, वे ‘उफ’ तक नहीं कहते।
- वे संकट से डरकर उसके चरणों में गिरने के बजाय, उसे सहते हैं और निरंतर प्रयासरत रहते हैं।
- विपत्तियों की जड़ को समाप्त करने के लिए वे स्वयं उस पर टूट पड़ते हैं।
4. साहस की शक्ति : अडिग पुरुष की विजय:
“है कौन विषघ्न ऐसा जग में,
टिक सके वीर नर के मग में
खम ठोंक ठेलता है जब नर,
पर्वत के जाते पाँव उखड़।
मानव जब जोर लगाता है,
पत्थर पानी बन जाता है।”
- कवि कहते हैं कि कोई भी विषधर (भयानक बाधा) उस मार्ग में टिक नहीं सकता जिस पर एक दृढ़ निश्चयी मनुष्य आगे बढ़ता है।
- जब मनुष्य पूरे संकल्प और बल से आगे बढ़ता है, तो पर्वत तक हिल जाते हैं।
- मनुष्य की दृढ़ता से पत्थर भी पानी बन जाते हैं, अर्थात असंभव भी संभव हो जाता है।
5. छिपे गुणों का प्रकाश : तप द्वारा निखरना:
“गुण बड़े एक से एक प्रखर,
हैं छिपे मानवों के भीतर,
मेंहदी में जैसे लाली हो,
वर्तिका-बीच उजियाली हो।
बत्ती जो नहीं जलाता है
रोशनी नहीं वह पाता है।”
- हर मनुष्य में अपार शक्तियाँ और गुण छिपे होते हैं।
- जैसे मेंहदी में लालिमा छिपी होती है और बाती में उजाला लेकिन वे तभी प्रकट होते हैं जब उन्हें जलाया या घिसा जाए।
- अर्थात, तप, संघर्ष और प्रयत्न के बिना कोई प्रतिभा प्रकाशित नहीं हो सकती।
6. संघर्ष का सौंदर्य : पीड़ा से सौंदर्य की उत्पत्ति:
“पीसा जाता जब इक्षु-दण्ड,
झरती रस की धारा अखण्ड,
मेंहदी जब सहती है प्रहार,
बनती ललनाओं का सिंगार।
जब फूल पिरोये जाते हैं,
हम उनको गले लगाते हैं।”
- जब ईख को पीसा जाता है, तभी अमृत तुल्य रस निकलता है।
- मेंहदी जब पिसती है, तभी वह सजने योग्य बनती है।
- फूलों को भी पहले तोड़ा और पिरोया जाता है, तभी वे गले में पहनने योग्य बनते हैं।
- इसी प्रकार मनुष्य भी कष्ट और संघर्ष से गुज़र कर पूर्ण, परिपक्व और महान बनता है।