“रश्मिरथी” द्वितीय सर्ग – भाग 8 महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित महाकाव्य का अत्यंत मार्मिक और भावनात्मक अंश है, जिसमें कर्ण के समर्पण, तपस्या, भक्ति और भाग्य का संघर्ष गहराई से व्यक्त होता है। यह खंड कर्ण और परशुराम की अंतिम गुरु-शिष्य लीला का चरम बिंदु है।
यह प्रसंग उस समय का है जब कर्ण ने ब्राह्मण बनकर परशुराम से अस्त्र-विद्या सीखी थी। एक दिन जब गुरु परशुराम उसकी जांघ पर विश्राम कर रहे थे, एक कीट (कीड़ा) कर्ण की जांघ में धँसने लगता है और रक्त बहने लगता है। कर्ण फिर भी हिलता नहीं, ताकि गुरु की नींद न टूटे।

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 8 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 8
किन्तु, पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती,
सहम गयी यह सोच कर्ण की भक्तिपूर्ण विहल छाती।
सोचा, उसने, अतः, कीट यह पिये रक्त, पीने दूँगा,
गुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर पाप नहीं लूँगा।
बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे,
आह निकाले बिना, शिला-सी सहनशीलता को धारे।
किन्तु, लहू की गर्म धार जो सहसा आन लगी तन में,
परशुराम जग पढ़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में।
कर्ण झपट कर उठा इंगितों में गुरु से आज्ञा लेकर,
बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँगली देकर।
परशुराम बोले ‘शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी,
सहता रहा अचल, जाने कब से, ऐसी वेदना कड़ी।,
तनिक लजाकर कहा कर्ण ने, ‘नहीं अधिक पीड़ा मुझको,
महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको?
मैंने सोचा, हिला-डुला तो वृथा आप जग जायेंगे,
क्षण भर को विश्राम मिला जो नाहक उसे गँवायेंगे।
निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा,
छोटा-सा यह जीव मुझे कितनी पीड़ा पहुँचायेगा?
पर, यह तो भीतर धँसता ही गया, मुझे हैरान किया,
लज्जित हूँ इसीलिए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख लिया।
परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में,
फिर सहसा क्रोधाग्नि भयानक भभक उठी उनके तन में।
दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले- ‘कौन छली है तू?
ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?
व्याख्या और भावार्थ:
“किन्तु, पाँव के हिलते ही गुरुवर की नींद उचट जाती…”
- कर्ण सोचता है कि अगर उसने तनिक भी अंग हिलाया तो गुरु परशुराम की नींद टूट जाएगी। वह नहीं चाहता कि गुरु की तपस्या और विश्राम में कोई बाधा आए।
“गुरु की कच्ची नींद तोड़ने का, पर पाप नहीं लूँगा…”
- वह निर्णय करता है कि एक कीड़े द्वारा रक्त पी लिए जाने का कष्ट वह सह लेगा, परंतु गुरु के आराम को नहीं तोड़ेगा। यह कर्ण की अतुलनीय गुरु-भक्ति को दर्शाता है।
“बैठा रहा अचल आसन से कर्ण बहुत मन को मारे…”
- यहाँ कर्ण एक तपस्वी की भाँति स्थिर बैठा रहता है। भले ही कीड़ा उसका रक्त चूस रहा है, लेकिन वह पत्थर-सी स्थिरता बनाए रखता है।
“परशुराम जग पढ़े, रक्त को देख हुए विस्मित मन में…”
- अंततः गर्म रक्त की धारा से परशुराम की नींद टूटती है। जब वे कर्ण की जांघ से बहता लहू देखते हैं, वे विस्मित हो जाते हैं कि यह बालक इतनी वेदना झेलता रहा और कुछ भी नहीं कहा।
“बाहर किया कीट को उसने क्षत में से उँगली देकर…”
- परशुराम की आज्ञा लेकर कर्ण उस कीट को अपने घाव से निकाल बाहर करता है।
“परशुराम बोले – ‘शिव! शिव! तूने यह की मूर्खता बड़ी…”
- परशुराम इस घटना को मूर्खता बताते हैं – क्योंकि इतनी पीड़ा सहकर भी कर्ण ने उन्हें नहीं जगाया। यहाँ वे कर्ण की अतिशय सहनशीलता पर क्रोधित हैं, किंतु इसके पीछे उनका मन गहराई से कुछ और सोचने लगता है।
“महाराज, क्या कर सकता है यह छोटा कीड़ा मुझको?”
- कर्ण नम्रता से उत्तर देता है कि यह छोटा-सा कीड़ा उसे कितना कष्ट पहुँचा सकता है? उसका यह कथन वीरता और धैर्य की चरम सीमा को दिखाता है।
“निश्चल बैठा रहा, सोच, यह कीट स्वयं उड़ जायेगा…”
- कर्ण ने सोचा था कि यह कीट स्वयं उड़ जाएगा। वह किसी क्षणिक पीड़ा के कारण गुरु की नींद नहीं तोड़ना चाहता था। यह त्याग और समर्पण का भाव है।
“लज्जित हूँ इसीलिए कि सब-कुछ स्वयं आपने देख लिया…”
- कर्ण को अपनी पीड़ा नहीं, बल्कि इस बात की लज्जा है कि गुरु ने स्वयं यह दृश्य देख लिया, जिससे उनकी नींद भंग हुई।
परशुराम का संशय और क्रोध:
“परशुराम गंभीर हो गये सोच न जाने क्या मन में…”
- परशुराम सोच में पड़ जाते हैं कि कोई सामान्य ब्राह्मण पुत्र इतनी पीड़ा कैसे सह सकता है?
“दाँत पीस, आँखें तरेरकर बोले – ‘कौन छली है तू?”
- परशुराम का क्रोध फूट पड़ता है। उन्हें यह लगने लगता है कि कर्ण ने उन्हें झूठ बोला है। वे शंका करते हैं कि कर्ण ब्राह्मण नहीं हो सकता।
“ब्राह्मण है या और किसी अभिजन का पुत्र बली है तू?”
- वे कर्ण से उसकी असली जाति पूछते हैं। उन्हें विश्वास हो जाता है कि जो व्यक्ति इतना सहनशील है, वह कोई क्षत्रिय या योद्धा कुल से है। एक साधारण ब्राह्मण पुत्र ऐसी असहनीय पीड़ा नहीं झेल सकता।

भाव और प्रतीकात्मकता
- गुरु-भक्ति: यह प्रसंग कर्ण की गुरु के प्रति भक्ति और त्याग का अमर प्रतीक है। वह अपने प्राणों की परवाह नहीं करता, केवल इस डर से कि गुरु की नींद न टूटे।
- कर्ण की वीरता और सहिष्णुता: कर्ण एक कीट द्वारा घाव में चूसे जाने की असहनीय पीड़ा को भी बिना कराहे सह जाता है। यह उसकी चरम सहिष्णुता और धैर्य की मिसाल है।
- कर्म और नियति का संघर्ष: यह घटना कर्ण के जीवन की नियति का बड़ा मोड़ बन जाती है। परशुराम द्वारा शाप दिए जाने की नींव इसी क्षण रखी जाती है।
- झूठ की कीमत: भले ही कर्ण ने विद्या पाने के लिए झूठ बोला, पर उसका चरित्र इतना ऊँचा था कि वह हर कसौटी पर खरा उतरता है। फिर भी झूठ की एक छोटी सी बुनियाद उसके जीवन की सबसे बड़ी विडंबना बन जाती है।