“रश्मिरथी” महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित महाकाव्य है, जिसमें कर्ण के जीवन की गाथा को अत्यंत ओज और भावप्रवण भाषा में प्रस्तुत किया गया है। द्वितीय सर्ग के भाग 6 में परशुराम और कर्ण के संवाद एवं कर्ण की आंतरिक पीड़ा का अत्यंत मार्मिक चित्रण हुआ है। आइए इस अंश का विस्तार से विश्लेषण करते हैं।

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 6 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 6
वीर वही है जो कि शत्रु पर जब भी खड्ग उठाता है,
मानवता के महागुणों की सत्ता भूल न जाता है।
सीमित जो रख सके खड्ग को, पास उसी को आने दो,
विप्रजाति के सिवा किसी को मत तलवार उठाने दो।
जब-जब मैं शर-चाप उठा कर करतब कुछ दिखलाता हूँ,
सुनकर आशीर्वाद देव का, धन्य-धन्य हो जाता हूँ।
जियो, जियो अय वत्स! तीर तुमने कैसा यह मारा है,
दहक उठा वन उधर, इधर फूटी निर्झर की धारा है।
मैं शंकित था, ब्राह्मा वीरता मेरे साथ मरेगी क्या,
परशुराम की याद विप्र की जाति न जुगा धरेगी क्या?
पाकर तुम्हें किन्तु, इस वन में, मेरा हदय हुआ शीतल,
तुम अवश्य ढोओगे उसको मुझमें है जो तेज, अनल।
जियो, जियो ब्राह्मणकुमार! तुम अक्षय कीर्ति कमाओगे,
एक बार तुम भी धरती को निःक्षत्रिय कर जाओगे।
निश्चय, तुम ब्राह्मणकुमार हो, कवच और कुण्डल-धारी,
तप कर सकते और पिता-माता किसके इतना भारी?
किन्तु हाय! ‘ब्राह्मणकुमार’ सुन प्रण काँपने लगते हैं,
मन उठता धिक्कार, हृदय में भाव ग्लानि के जगते हैं।
गुरु का प्रेम किसी को भी क्या ऐसे कभी खला होगा?
और शिष्य ने कभी किसी गुरु को इस तरह छला होगा?
पर मेरा क्या दोष? हाय! मैं और दूसरा क्या करता,
पी सारा अपमान, द्रोण के मैं कैसे पैरों पड़ता।
और पाँव पड़ने से भी क्या गूढ़ ज्ञान सिखलाते वे,
एकलव्य-सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?

वीरता और मर्यादा का संबंध:
⮞ कवि कहता है कि सच्चा वीर वह होता है जो शस्त्र उठाते समय भी मानवीय मूल्यों को नहीं भूलता। वह जो शक्ति और मर्यादा के बीच संतुलन बना सके, वही शस्त्र धारण करने योग्य है।
⮞ विशेष रूप से कवि कहता है कि तलवार केवल ब्राह्मणों (विप्रों) को ही उठानी चाहिए, जो ज्ञान और संयम के प्रतीक माने जाते हैं।
परशुराम का कर्ण पर विश्वास:
⮞ जब परशुराम कर्ण को अस्त्र-विद्या सिखाते हैं, तो वे उसकी वीरता और पराक्रम को देखकर आनंदित होते हैं। वे कहते हैं कि जब वे उसे धनुर्धारी करतब दिखाते देखते हैं, तो देवताओं का आशीर्वाद सुनने को मिलता है – “जियो-जियो अय वत्स!”
⮞ यहाँ दो प्राकृतिक बिंबों का प्रयोग है – एक ओर अग्नि दहकती है, दूसरी ओर झरना फूट पड़ता है। यह विरोधाभास कर्ण की शक्तियों का प्रतीक है – वह विनाश भी कर सकता है, और जीवनदायिनी ऊर्जा भी देता है।
कर्ण में परशुराम को अपनी प्रतिछाया दिखती है:
⮞ परशुराम को कर्ण में अपनी झलक दिखाई देती है। उन्हें लगता है कि कर्ण उनकी वीरता और तेज को आगे ले जाएगा, और संभवतः एक बार फिर “धरती को निःक्षत्रिय” बना देगा – जैसे स्वयं परशुराम ने किया था।
⮞ वे कर्ण की जन्मजात विशेषताओं – कवच और कुण्डल, और उसके माता-पिता की तपस्या – को देखकर मानते हैं कि वह अवश्य ब्राह्मणकुमार है।
कर्ण की आत्मग्लानि और द्वंद्व:
⮞ परशुराम द्वारा “ब्राह्मणकुमार” कहे जाने पर कर्ण का अंतर्मन कांप उठता है। उसे आत्मग्लानि होती है क्योंकि वह सच्चाई छिपाकर ज्ञान अर्जित कर रहा था।
⮞ वह सोचता है – क्या कभी किसी शिष्य ने अपने गुरु को इतना धोखा दिया है? गुरु का स्नेह किसी को इतना पीड़ादायक कैसे हो सकता है?
⮞ वह स्वयं से प्रश्न करता है कि यदि वह सच बताकर परशुराम के चरणों में गिरता तो क्या उन्हें विद्या मिलती? क्या तब भी उन्हें एकलव्य की तरह अंगूठा काटना पड़ता?
सामाजिक विडंबना और पीड़ा
⮞ इस खंड में महाभारत काल की जातिवादी सामाजिक व्यवस्था पर तीखा कटाक्ष है। कर्ण ब्राह्मण नहीं था, इसलिए उसे ज्ञान से वंचित रखा गया।
⮞ उसका यह प्रश्न कि “एकलव्य सा नहीं अँगूठा क्या मेरा कटवाते वे?” इस बात का प्रतीक है कि उस समय प्रतिभा को जन्म से नहीं, जाति से आँका जाता था।