रश्मिरथी के द्वितीय सर्ग के प्रथम भाग में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ हमें एक शांत, प्राकृतिक, पवित्र और तपोमय वातावरण का चित्र प्रस्तुत करते हैं। यह अंश महाकाव्यात्मक सौंदर्य से युक्त है और ऋषि-जीवन, आश्रम संस्कृति तथा एक वीर तपस्वी के जीवन के दो पहलुओं संयम और शौर्य का अद्भुत समन्वय दर्शाता है।
रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 1 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 1
शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,
कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।
जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,
हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।
आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,
शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।
कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,
कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।
हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,
भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,
धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?
झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।
बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,
वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।
सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,
नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।
अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु-एक ओर तप के साधन,
एक ओर हैं टॅगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,
लीह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।

प्रकृति का मनोहारी चित्रण:
शीतल, विरल एक कानन शोभित अधित्यका के ऊपर,
कहीं उत्स-प्रस्त्रवण चमकते, झरते कहीं शुभ निर्झर।
यह पंक्ति एक शांत, निर्जन और शीतल वनों से आच्छादित अधित्यका (पहाड़ी ढलान) का चित्र प्रस्तुत करती है। ‘उत्स-प्रस्त्रवण’ और ‘निर्झर’ शब्द जल की उपस्थिति और जीवनदायिनी प्रकृति को इंगित करते हैं। यह वातावरण सुंदर और पवित्र है ऋषियों के निवास के योग्य।
जहाँ भूमि समतल, सुन्दर है, नहीं दीखते है पाहन,
हरियाली के बीच खड़ा है, विस्तृत एक उटज पावन।
यहाँ एक विस्तृत कुटी (उटज) की स्थापना दिखाई गई है, जो भूमि पर समतल हरियाली के बीच में स्थित है। ‘पावन’ शब्द से उसकी तपस्विता और दिव्यता प्रकट होती है। ‘नहीं दीखते है पाहन’ यानी यह स्थान बिना कठोरता या विकटता के है, सहज और शांत है।
वन्य जीव और कृषक संस्कृति:
आस-पास कुछ कटे हुए पीले धनखेत सुहाते हैं,
शशक, मूस, गिलहरी, कबूतर घूम-घूम कण खाते हैं।
यहाँ पर खेती का भी दृश्य है, जहाँ धान की कटाई हो चुकी है। यह आश्रम और ग्रामीण जीवन के मेल को दर्शाता है। खेतों में घास के कण चुगते जानवर – खरगोश, चूहे, गिलहरियाँ और कबूतर – वन्य जीवन की सहजता और शांति को दर्शाते हैं।
कुछ तन्द्रिल, अलसित बैठे हैं, कुछ करते शिशु का लेहन,
कुछ खाते शाकल्य, दीखते बड़े तुष्ट सारे गोधन।
यह दृश्य विशेष रूप से गोधन (गायों) से संबंधित है, जो या तो सुस्त बैठे हैं या अपने बच्चों को दूध पिला रहे हैं। यहाँ ग्रामीण भारत की जीवंतता और समृद्ध जीवनशैली का संकेत है। ‘शाकल्य’ यानी घास के ढेर यह बोध कराता है कि यहाँ पशु सुखी हैं, संपन्नता है।
तपोवन का सौम्य वातावरण:
हवन-अग्नि बुझ चुकी, गन्ध से वायु, अभी, पर, माती है,
भीनी-भीनी महक प्राण में मादकता पहुँचती है,
हवन समाप्त हो चुका है, लेकिन उसकी सुगंध वायु में घुली है। यह वातावरण इतना पवित्र और सुरभित है कि उसमें सांस लेना भी आनंददायक है। यह केवल एक दृश्य नहीं, बल्कि आध्यात्मिक अनुभूति है।
धूम-धूम चर्चित लगते हैं तरु के श्याम छदन कैसे?
झपक रहे हों शिशु के अलसित कजरारे लोचन जैसे।
दिनकर यहाँ उपमाओं का अत्यंत सौंदर्यपूर्ण प्रयोग करते हैं। हवन के धुएँ से पेड़ों की छाया ऐसी लगती है जैसे किसी बच्चे की अधमुंदी आँखें। यह दृश्य को मानवीय और कोमल बनाता है।
मृग और वान्य जीव:
बैठे हुए सुखद आतप में मृग रोमन्थन करते हैं,
वन के जीव विवर से बाहर हो विश्रब्ध विचरते हैं।
यहाँ वन्यजीवों की निडर उपस्थिति बताती है कि आश्रम जीवन और प्रकृति के बीच में कोई वैमनस्य नहीं है। रोमन्थन करता मृग और गुफा से बाहर आते वन्य जीव एक सुरक्षित, संयत वातावरण की ओर संकेत करते हैं।
साधना और शौर्य का समन्वय:
सूख रहे चीवर, रसाल की नन्हीं झुकी टहनियों पर,
नीचे बिखरे हुए पड़े हैं इंगुद-से चिकने पत्थर।
‘चीवर’ यानी सन्यासी का वस्त्र, जो आम के पेड़ की टहनियों पर सूख रहे हैं। ‘इंगुद’ एक वृक्ष है जिसके फल चिकने होते हैं। यह पंक्ति तपस्वी के सादगीपूर्ण जीवन को दर्शाती है जहाँ वस्त्र साधारण हैं, और जीवन तपस्या से जुड़ा है।
अजिन, दर्भ, पालाश, कमंडलु एक ओर तप के साधन,
एक ओर हैं टॅंगे धनुष, तूणीर, तीर, बरझे भीषण।
यहाँ दिनकर आश्रम के भीतर उपस्थित द्वैत को दिखाते हैं। एक ओर योग, ध्यान, हवन जैसे “तप के साधन” हैं मृगचर्म (अजिन), कुश (दर्भ), कमंडलु आदि। दूसरी ओर शस्त्र धनुष, तीर, बरछे हैं। यह संकेत करता है कि यह कोई साधारण तपस्वी नहीं है, वह एक वीर है जो धर्म और युद्ध दोनों का साधक है।
चमक रहा तृण-कुटी-द्वार पर एक परशु आभाशाली,
लीह-दण्ड पर जड़ित पड़ा हो, मानो, अर्ध अंशुमाली।
तृण-कुटी के द्वार पर चमकता हुआ परशु (फरसा) जो शक्ति और प्रताप का प्रतीक है यह दृश्य सूचित करता है कि यहाँ निवास करने वाला व्यक्ति कोई महान योद्धा तपस्वी है। ‘अर्ध अंशुमाली’ का प्रयोग सूर्य के एक अंश के लिए हुआ है यानी यह परशु दिव्य तेज से युक्त है।