“रश्मिरथी” के चतुर्थ सर्ग के भाग 2 है, वह महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की लेखनी का एक अत्यंत मार्मिक, भावनाप्रवण और प्रेरणादायक भाग है। इस खंड में कर्ण के दानशील स्वभाव, विनम्रता, और नियति द्वारा लिए गए कठिन परीक्षा का अत्यंत हृदयस्पर्शी चित्रण मिलता है।

रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 2 | Rashmirathi Fourth Sarg Bhaag 2
वीर कर्ण, विक्रमी, दान का अति अमोघ व्रतधारी,
पाल रहा था बहुत काल से एक पुण्य-प्रण भारी।
रवि-पूजन के समय सामने जो याचक आता था,
मुँह-माँगा वह दान कर्ण से अनायास पाता था
थी विश्रुत यह बात कर्ण गुणवान और ज्ञानी हैं,
दीनों के अवलम्ब, जगत के सर्वश्रेष्ट दानी हैं ।
जाकर उनसे कहो, पड़ी जिस पर जैसी विपदा हो,
गो, धरती, गज, वाजि मांग लो, जो जितना भी चाहो ।
‘नाहीं’ सुनी कहां, किसने, कब, इस दानी के मुख से,
धन की कौन बिसात ? प्राण भी दे सकते वह सुख से ।
और दान देने में वे कितने विनम्र रहते हैं !
दीन याचकों से भी कैसे मधुर वचन कहते है?
करते यों सत्कार कि मानों, हम हों नहीं भिखारी,
वरन्, मांगते जो कुछ उसके न्यायसिद्व॒ अधिकारी ।
और उमड़ती है प्रसन्न हग में कैसी जलधारा,
मानों, सौंप रहे हों हमको ही वे न्यास हमारा ।
युग-युग जियें कर्ण, दलितों के वे दुख-दैन्य-हरण हैं,
कल्पवृक्ष धरती के, अशरण की अप्रतिम शरण हैं ।
पहले ऐसा दानवीर धरती पर कब आया था ?
इतने अधिक जनों को किसने यह सुख पहुंचाया था ?
और सत्य ही, कर्ण दानहित ही संचय करता था,
अर्जित कर बहु विभव निःसव, दीनों का घर भरता था ।
गो, धरती, गज, वाजि, अन्न, धन, वसन, जहां जो पाया,
दानवीर ने हृदय खोल कर उसको वहीं लुटाया ।
फहर रही थी मुक्त चतुर्दिक यश की विमल पताका,
कर्ण नाम पड गया दान की अतुलनीय महिमा का।
श्रद्वा-सहित नमन करते सुन नाम देश के ज्ञानी,
अपना भाग्य समझ भजते थे उसे भाग्यहत प्राणी।
तब कहते हैं, एक बार हटकर प्रत्यक्ष समर से,
किया नियति ने वार कर्ण पर, छिपकर पुण्य-विवर से।
व्रत का निकष दान था, अबकी चढ़ी निकष पर काया,
कठिन मूल्य माँगने सामने भाग्य देह धर आया।
एक दिवस जब छोड़ रहे थे दिनमणि मध्य गगन को,
कर्ण जाहृवी-तीर खड़ा था मुद्रित किए नयन को।
कटि तक डूबा हुआ सलिल में किसी ध्यान मे रत-सा,
अम्बुधि मे आकटक निमज्जित कनक-खचित पर्वत-सा।
हँसती थीं रश्मियाँ रजत से भर कर वारि विमल को,
हो उठती थीं स्वयं स्वर्ण छू कवच और कुंडल को।
किरण-सुधा पी स्वयं मोद में भरकर दमक रहा था,
कदली में चिकने पातो पर पारद चमक रहा था।
विहग लता-वीरूध-वितान में तट पर चहक रहे थे,
धूप, दीप, कर्पूर, फूल, सब मिलकर महक रहे थे।
पूरी कर पूजा-उपासना ध्यान कर्ण ने खोला,
इतने में ऊपर तट पर खर-पात कहीं कुछ डोला।
कहा कर्ण ने, “कौन उधर है? बंधु सामने आओ,
मैं प्रस्तुत हो चुका, स्वस्थ हो, निज आदेश सूनाओ।
अपनी पीड़ा कहो, कर्ण सबका विनीत अनुचर है,
यह विपन्न का सखा तुम्हारी सेवा मे तत्पर है।
माँगो माँगो दान, अन्न या वसन, धाम या धन दूँ?
अपना छोटा राज्य या की यह क्षणिक, क्षुद्र जीवन दूँ?
मेघ भले लीटे उदास हो किसी रोज सागर से,
याचक फिर सकते निराश पर, नहीं कर्ण के घर से।
पर का दुःख हरण करने में ही अपना सुख माना,
भग्यहीन मैने जीवन में और स्वाद क्या जाना?
आओ, उक्रण बनूँ तुमको भी न्यास तुम्हारा देकर,
उपकृत करो मुझे, अपनी सिंचित निधि मुझसे लेकर।
अरे कौन हैं भिक्षु यहाँ पर और कौन दाता है?
अपना ही अधिकार मनुज नाना विधि से पाता है।
कर पसार कर जब भी तुम मुझसे कुछ ले लेते हो,
तृप्त भाव से हेर मुझे क्या चीज नहीं देते हो?
दीनों का संतोष, भाग्यहीनों की गदगद वाणी,
नयन कोर मे भरा लबालब कृतज्ञता का पानी,
हो जाना फिर हरा युगों से मुरझाए अधरों का,
पाना आशीर्वचन, प्रेम, विश्वास अनेक नरों का।
इससे बढ़कर और प्राप्ति क्या जिस पर गर्व करूँ मैं?
पर को जीवन मिले अगर तो हँस कर क्यों न मरू मैं?
मोल-तोल कुछ नहीं, माँग लो जो कुछ तुम्हें सुहाए,
मुँहमाँगा ही दान सभी को हम हैं देते आएँ

मुख्य भाव और प्रसंग
यह अंश उस समय का है जब महाभारत के युद्ध का समय निकट है, और कर्ण की महानता चारों ओर प्रसिद्ध हो चुकी है। कवि दिनकर यहाँ कर्ण के दानशीलता के चरम रूप, उसके त्याग, और नियति की क्रूर परीक्षा का विश्लेषण करते हैं। यह अंश एक ऐसे दृश्य की ओर ले जाता है जहाँ कर्ण से स्वयं भगवान इन्द्र याचक के वेश में कवच-कुंडल माँगने आते हैं, और कर्ण बिना हिचक के अपना अमूल्य कवच-कुंडल दान कर देता है।
कर्ण का तपस्वी व्रत जीवन और दान का प्रण
कर्ण मात्र योद्धा नहीं, वह त्याग और तप का प्रतीक है। उसने यह प्रण लिया है कि जो भी याचक सूर्य पूजन के समय उसके समक्ष आएगा, वह उसे मनचाहा दान देगा — चाहे वह कितना भी मूल्यवान क्यों न हो। कर्ण न केवल दान देता है, बल्कि याचक का सम्मान करता है। वह उन्हें यह भाव देता है कि वे दान नहीं ले रहे, बल्कि अपने अधिकार को पा रहे हैं। यह कर्ण की मानवता और सेवा-भावना को दर्शाता है। कर्ण का नाम दानवीरता की पहचान बन गया है। जनसाधारण, ज्ञानी, और दुर्भाग्यग्रस्त सभी उसकी भक्ति करते हैं। यश की पताका चारों दिशाओं में लहरा रही है। नियति स्वयं अब कर्ण की दानशीलता की कसौटी पर उसे परखना चाहती है। युद्ध से पूर्व देवताओं ने अर्जुन को बचाने हेतु कर्ण से उसके कवच और कुंडल माँगने की योजना बनाई है, क्योंकि ये अमरत्व के प्रतीक हैं।
कर्ण की ख्याति और लोक-प्रशंसा
- कवच-कुंडल: केवल भौतिक वस्तु नहीं, बल्कि कर्ण की सुरक्षा, सामर्थ्य, और जीवन की गारंटी हैं। इन्हें दान देना मृत्यु को आमंत्रण देने जैसा है।
- इन्द्र का याचक रूप: स्वयं देवता भी कर्ण की दानशीलता से भयभीत होकर विनम्र याचक बनते हैं। यह कर्ण की दैविक समकक्षता को दर्शाता है।
- दान का दर्शन: कर्ण के लिए दान कोई ‘दया’ नहीं, बल्कि धर्म और आत्मा की पूर्ति है। वह इसे ‘उपकृत होने’ का अवसर मानता है।