“रश्मिरथी” के प्रथम सर्ग के भाग 7 में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ महाभारत के प्रसंगों को अपनी दृष्टि से प्रस्तुत करते हैं। यह भाग विशेष रूप से द्रोणाचार्य, कर्ण, अर्जुन और कुन्ती के मनोभावों को उजागर करता है।
रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 7 | Rashmirathee Pratham Sarg Bhaag 7
जन्मे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।
मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
बढ़ता गया अगर निष्कंटक यह उद्भट भट बांल,
अर्जुन! तेरे लिये कभी यह हो सकता है काल!
सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
शिष्य बनाऊंगा न कर्ण को, यह निश्चित है बात,
रखना ध्यान विकट प्रतिभट का, पर तू भी हे तात!
रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
कञ्चन के युग शील-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ’ कर्ण
बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
चूम रहे थे अंग पुत्र का खरिग्ध-सुकोमल कर से।
आज न था प्रिय उन्हें दिवस का समय सिद्व अवसान,
विरम गया क्षण एक क्षितिज पर गति को छोड़ विमान।
और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।

द्रोण की मनोव्यथा और कर्ण की वीरता
जन्मे नहीं जगत् में अर्जुन! कोई प्रतिबल तेरा,
टँगा रहा है एक इसी पर ध्यान आज तक मेरा।
द्रोणाचार्य का यह कथन उनके अर्जुन-प्रीति और गुरु-दृष्टिकोण को दर्शाता है। वे मानते हैं कि अर्जुन जैसा वीर संसार में कोई नहीं है, और उन्होंने हमेशा इसी विचार को केंद्र में रखकर अर्जुन को शिक्षा दी है।
एकलव्य से लिया अँगूठा, कढ़ी न मुख से आह,
रखा चाहता हूँ निष्कंटक बेटा! तेरी राह।
द्रोणाचार्य स्वीकारते हैं कि उन्होंने एकलव्य से अंगूठा इसलिए लिया ताकि वह अर्जुन के मार्ग में बाधा न बने। उनका प्रेम अर्जुन के प्रति इतना है कि वे किसी और की प्रतिभा को देखकर भी द्रवित नहीं हुए।
मगर, आज जो कुछ देखा, उससे धीरज हिलता है,
मुझे कर्ण में चरम वीरता का लक्षण मिलता है।
कर्ण के कौशल को देखकर द्रोणाचार्य का आत्मविश्वास हिलता है। उन्हें लगता है कि कर्ण अर्जुन के लिए खतरा बन सकता है, क्योंकि उसमें भी अत्यंत पराक्रम और वीरता है।
सोच रहा हूँ क्या उपाय, मैं इसके साथ करूँगा,
इस प्रचंडतम धूमकेतु का कैसे तेज हरूँगा?
यहाँ द्रोण की रणनीतिक सोच सामने आती है। वे अब अर्जुन की सुरक्षा के लिए कर्ण के तेज को दबाने या नियंत्रित करने की योजना बनाने लगते हैं।
दुर्योधन और कर्ण का मैत्री संबंध
रंग-भूमि से लिये कर्ण को, कौरव शंख बजाते,
चले झूमते हुए खुशी में गाते, मौज मनाते।
जब कर्ण को अंगदेश का राजा बनाया जाता है, तो दुर्योधन और कर्ण में गहरी मित्रता का प्रारंभ होता है। यह दृश्य उस आनंद और उत्सव का वर्णन करता है जो दुर्योधन के मन में है, क्योंकि उसे अब अर्जुन के विरुद्ध एक समकक्ष योद्धा मिल गया है।
कञ्चन के युग शील-शिखर-सम सुगठित, सुघर सुवर्ण,
गलबाँही दे चले परस्पर दुर्योधन औ’ कर्ण
यह पंक्तियाँ दुर्योधन और कर्ण के बीच गाढ़े संबंध को भावनात्मक रूप से प्रस्तुत करती हैं। दोनों एक-दूसरे के कंधों पर हाथ डाले चल रहे हैं जैसे दो समान सामर्थ्य वाले वीर।
बड़ी तृप्ति के साथ सूर्य शीतल अस्ताचल पर से,
चूम रहे थे अंग पुत्र का खरिग्ध-सुकोमल कर से।
कवि यहाँ सूर्य की उपमा देकर यह दर्शाते हैं कि स्वयं कर्ण के पिता सूर्य भी अपने पुत्र के सम्मान पर प्रसन्न हैं। यह एक सौंदर्यबोधक वाक्य है जो कर्ण की दिव्यता को पुष्ट करता है।
कुन्ती की करुणा और पीड़ा
और हाय, रनिवास चला वापस जब राजभवन को,
सबके पीछे चली एक विकला मसोसती मन को।
सभी लोग तो उत्सव के पश्चात लौट रहे हैं, परंतु पीछे-पीछे एक विक्षिप्त, दुखी स्त्री – कुन्ती – चली जा रही है। उसके मन में पीड़ा है जो कि इस दृश्य को मार्मिक बना देता है।
उजड़ गये हों स्वप्न कि जैसे हार गयी हो दाँव,
नहीं उठाये भी उठ पाते थे कुन्ती के पाँव।
यहाँ कुन्ती की ममता और बेबसी को चित्रित किया गया है। उसने अपने पुत्र को पहचानने की चाह रखते हुए भी चुप रहना पड़ा, क्योंकि कर्ण ने अपने जन्म की बात नहीं जानी। उसका हृदय टूट गया है, उसके स्वप्न उजड़ चुके हैं।