“रश्मिरथी” प्रथम सर्ग – भाग 2 में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने कर्ण के किशोरावस्था और युवावस्था के संघर्षों और उसके आत्म-निर्माण की कहानी को अत्यंत प्रभावशाली तरीके से प्रस्तुत किया है। इस खंड में कर्ण की समाज से अलग-थलग परंतु कठोर साधना से भरी जीवन यात्रा, उसकी प्रतिभा, उसके संघर्ष और आत्मविश्वास का वर्णन किया गया है।

रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 2 | Rashmirathee Pratham Sarg Bhaag – 2
अलग नगर के कोलाहल से, अलग पुरी-पुरजन से,
कठिन साधना में उद्योगी लगा हुआ तन-मन से।
निज समाधि में निरत, सदा निज कर्मठता में चूर,
वन्यकुसुम-सा खिला कर्ण, जग की आँखों से दूर।
नहीं फूलते कुसुम मात्र राजाओं के उपवन में,
अमित बार खिलते वे पुर से दूर कुञ्ज-कानन में।
समझे कौन रहस्य? प्रकृति का बड़ा अनोखा हाल,
गुदड़ी में रखती चुन-चुन कर बड़े कीमती लाल।
जलद-पटल में छिपा, किन्तु रवि कब तक रह सकता है?
युग की अवहेलना शूरमा कब तक सह सकता है?
पाकर समय एक दिन आखिर उठी जवानी जाग,
फूट पड़ी सबके समक्ष पौरुष की पहली आग।
रंग-भूमि में अर्जुन था जब समाँ अनोखा बाँधे,
बढ़ा भीड़-भीतर से सहसा कर्ण शरासन साधे।
कहता हुआ, ‘तालियों से क्या रहा गर्व में फूल?
अर्जुन! तेरा सुयश अभी क्षण में होता है धूल।’
‘तूने जो-जी किया, उसे मैं भी दिखला सकता हूँ,
चाहे तो कुछ नयी कलाएँ भी सिखला सकता हूँ।
आँख खोल कर देख, कर्ण के हाथों का व्यापार,
फूले सस्ता सुयश प्राप्त कर, उस नर को धिक्कार।’
इस प्रकार कह लगा दिखाने कर्ण कलाएँ रण की,
सभा स्तब्ध रह गयी, गयी रह आँख टॅगी जन-जन की।
मन्त्र-मुग्ध-सा मौन चतुर्दिक् जन का पारावार,
गूँज रही थी मात्र कर्ण की धन्वा की टंकार।
“रश्मिरथी” का यह भाग कर्ण के व्यक्तित्व का शक्तिशाली चित्रण करता है। वह एक सामान्य कुल में जन्मा, परंतु असाधारण पुरुषार्थ और आत्मबल से युक्त योद्धा है। वह सामाजिक बाधाओं के बावजूद अपनी प्रतिभा और अस्तित्व के लिए संघर्ष करता है। कवि ने इस भाग में यह दिखाया है कि असली रत्न कहीं भी जन्म ले सकता है, और जब समय आता है, तो वह स्वयं को प्रकट कर ही देता है।
यह अंश केवल कर्ण की कहानी नहीं, बल्कि हर उस व्यक्ति का प्रतिनिधित्व करता है जिसे समाज ने कभी पीछे छोड़ दिया, लेकिन जिसने आत्मबल से अपनी पहचान बनाई।