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मंगलवार, अक्टूबर 15, 2024

गणेशाष्टोत्तर शतनामार्चन स्तोत्रम् Ganeshashtatra Shatanamarchan Stotram

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गणेशाष्टोत्तर शतनामार्चन स्तोत्रम् Ganeshashtatra Shatanamarchan Stotram

गणेशाष्टोत्तर शतनामार्चन स्तोत्रम् एक अत्यंत पवित्र और महत्वपूर्ण स्तोत्र है, जिसमें भगवान गणेश के 108 नामों की महिमा का वर्णन किया गया है। यह स्तोत्र भक्तों के लिए अत्यंत शक्तिशाली और लाभकारी माना जाता है, क्योंकि इसमें भगवान गणेश के विभिन्न रूपों और गुणों का उल्लेख किया गया है। इस स्तोत्र का पाठ करने से भक्तों को अनेक प्रकार की सिद्धियाँ प्राप्त होती हैं और भगवान गणेश की कृपा से सभी बाधाओं का नाश होता है।

गणेशाष्टोत्तर शतनामार्चन स्तोत्रम् का महत्व

भगवान गणेश, जिन्हें ‘विघ्नहर्ता’ और ‘सिद्धिदाता’ के रूप में पूजा जाता है, के 108 नामों का यह स्तोत्र उनके विभिन्न रूपों, गुणों और महिमा का वर्णन करता है। हर नाम का विशेष अर्थ और प्रभाव होता है। इन नामों के स्मरण मात्र से भक्तों के जीवन की समस्याएँ और बाधाएँ समाप्त हो जाती हैं और वे सफलता की ओर अग्रसर होते हैं।

गणेशाष्टोत्तर शतनामार्चन स्तोत्रम् का पाठ गणेश चतुर्थी, विशेष रूप से गणेश स्थापना और पूजा के समय अत्यधिक फलदायी माना जाता है। इसके नियमित पाठ से ज्ञान, बुद्धि, समृद्धि और सुख-शांति प्राप्त होती है। इसे किसी भी शुभ कार्य की शुरुआत करने से पहले करने की परंपरा है, ताकि कार्य निर्विघ्न संपन्न हो।

गणेशाष्टोत्तर शतनामार्चन स्तोत्रम् का पाठ करने के लाभ

  1. विघ्नों का नाश: भगवान गणेश को विघ्नहर्ता माना जाता है, और उनके 108 नामों का पाठ करने से जीवन में आने वाली हर बाधा दूर होती है।
  2. बुद्धि और विवेक में वृद्धि: इस स्तोत्र का नियमित पाठ करने से व्यक्ति की बुद्धि तीव्र होती है और उसे सही निर्णय लेने की क्षमता मिलती है।
  3. धन और समृद्धि की प्राप्ति: भगवान गणेश को ऋद्धि-सिद्धि के अधिपति के रूप में पूजा जाता है। उनके इन नामों का स्मरण करने से घर में धन और समृद्धि का वास होता है।
  4. किसी भी कार्य में सफलता: कोई भी नया कार्य शुरू करने से पहले इस स्तोत्र का पाठ करने से उस कार्य में सफलता प्राप्त होती है।
  5. शांति और समृद्धि का संचार: गणेशाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र का पाठ करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है और जीवन में समृद्धि का अनुभव होता है।

गणेशाष्टोत्तर शतनामार्चन स्तोत्रम्

काश्यां तु बहवो विघ्नाः काशीवासवियोजकाः।
तच्छान्त्यर्थं ढुण्ढिराजः पूजनीयः प्रयत्नतः ॥१॥

अष्टोत्तरशतैर्दिव्यैर्गणेशस्यैव नामभिः।
कर्तव्यमतियत्नेन नवदूर्वाङ्कुरार्पणम् ॥२॥

हिरण्मयतनुं शुद्धं सर्वार्तिहरमव्ययम्।
वरदं गणपं ध्यात्वा पूजा कार्या प्रयत्नतः ॥३॥

ऋषिर्विघ्नेशः इत्यादिनाम्नां सर्वेश्वरः शिवः ।
देवता विघ्नराजोऽत्र छन्दोऽनुष्टुप् शुभप्रदम् ॥४॥

सर्वप्रत्यूहशमनं फलं शक्तिः सुधात्मिका ।
कीलकं गणनाथस्य पूजा कार्येति कामदा ॥५॥

विघ्नेशो विश्ववदनो विश्वचक्षुर्जगत्पतिः।
हिरण्यरूपः सर्वात्मा ज्ञानरूपो जगन्मयः ॥६॥

ऊर्ध्वरेता महाबाहुरमेयोऽमितविक्रमः ।
वेदोवेद्यो महाकायो विद्यानिधिरनामयः ॥७॥

सर्वज्ञः सर्वगः शान्तो गजास्यो विगतज्वरः ।
विश्वमूर्तिरमेयात्मा विश्वाधारः सनातनः ॥८॥

सामगानप्रियो मन्त्री सत्वाधारः सुराधिपः ।
समस्तसाक्षिनिर्द्वन्द्वो निर्लिप्तोऽमोघविक्रमः ॥९॥

नियतो निर्मलः पुण्यः कामदः कान्तिदः कविः ।
कामरूपी कामवेषो कमलाक्षः कलाधरः ॥१०॥

सुमुखः शर्मदः शुद्धो मूषकाधिषवाहनः ।
दीर्घतुण्डधरः श्रीमाननन्तो मोहवर्जितः ॥११॥

वक्रतुण्डः शूर्पकर्णः पवनः पावनो वरः ।
योगीशो योगिवन्द्याङ्घ्रिरुमासूनुरघापहः ॥१२॥

एकदन्तो महाग्रीवः शरण्यः सिद्धिसेवितः ।
सिद्धिदः करुणासिन्धुर्भगवान् भव्यविग्रहः ॥१३॥

विकटः कपिलो ढुण्ढिरुग्रो भीमो हरः शुभः ।
गणाध्यक्षो गणाराध्यो गणेशो गणनायकः ॥१४॥

ज्योतिःस्वरूपो भूतात्मा धूम्रकेतुरनाकुलः ।
कुमारगुरुरानन्दो हेरम्बो वेदसंस्तुतः ॥१५॥

नागोपवीती दुर्धर्षो बालदूर्वाङ्कुरप्रियः ।
भालचन्द्रो विश्वधामा शिवपुत्रो विनायकः ॥१६॥

लीलावलम्बितवपुः पूर्णः परमसुन्दरः ।
विद्यान्धकारमार्तण्डो विघ्नारण्यदवानलः ॥१७॥

सिन्दूरवदनो नित्यो विष्णुः प्रमथपूजितः ।
शरण्यदिव्यपादाब्जो भक्तमन्दारभूरुहः ॥१८॥

रत्नसिंहासनासीनो मणिकुण्डलमण्डितः ।
भक्तकल्याणदोऽमेयकल्याणगुणसंश्रयः ॥१९॥

एतानि दिव्यनामानि गणेशस्य महात्मनः ।
पठनीयानि यत्नेन सर्वदा सर्वदेहिभिः ॥२०॥

नाम्नामेकैकमेतेषां सर्वसिद्धिप्रदायकम् ।
सर्वविघ्नेशनाम्नां तु फलं वक्तुं न शक्यते ॥२१॥

एकैकमेव तन्नाम दिव्यं जप्त्वा मुनीश्वराः ।
प्रत्यूहमात्ररहितास्तिष्ठन्ति शिवपूजकाः ॥२२॥

दूर्वायुग्मानि सङ्गृह्य नूतनान्यतियत्नतः ।
पूजनीयो गणाध्यक्षो नाम्नामेकैकसङ्ख्यया ॥२३॥

नभस्यशुक्लपक्षस्य चतुर्थ्यां विधिपूर्वकम् ।
वक्रतुण्डेशकुण्डे तु स्नानं कृत्वा प्रयत्नतः ॥२४॥

वक्रतुण्डेशमाराध्यं सर्वाभीष्टप्रदायकम् ।
ध्यायेदधहरं शुद्धं काञ्चनाभमनामयम् ॥२५॥

ततः पूजा यथाशास्त्रं कृत्वा दूर्वाङ्कुरैर्नवैः ।
पूजा कार्या विशेषेण नामोच्चारणपूर्वकम् ॥२६॥

ततश्च मोदकैर्दिव्यैः सुगन्धैघृतपाचितैः ।
नैवेद्यं कल्पयेदिष्टं गणेशाय शुभावहम् ॥२७॥

अन्यैश्च परमान्नाद्यैर्भक्ष्यैर्भोज्यैर्मनोहरैः ।
तोषणीयः प्रयत्नेन वक्रतुण्डो विनायकः ॥२८॥

प्रदक्षिणनमस्कारा दिव्यतन्नामसङ्ख्यया ।
कर्तव्या नियतं शुद्धैर्मौनव्रतपरायणैः ॥२९॥

ततः सन्तर्प्य विधिवच्छैवान् ब्राह्मणसत्तमान् ।
पुनरभ्यर्च्य विघ्नेशमिमं मन्त्रमुदीरयेत् ॥३०॥

वक्रतुण्ड सुराराध्य सूर्यकोटिसमप्रभ ।
निर्विघ्नेनैव सततं काशीवासं प्रयच्छ मे ॥३१॥

इति सम्प्रार्थ्य विधिवत् पूजां कृत्वा पुनर्मुदा ।
नमस्कृत्वा प्रसाद्यैनं गच्छेत् ढुण्ढिविनायकम् ॥३२॥

ढुण्ढिराजार्चनं सम्यक् कर्तव्यं विधिपूर्वकम् ।
तत्रैव च विशेषेण पूजां कृत्वा ततः परम् ॥३३॥

पूजनीयाः प्रयत्नेन सर्वदा मोदकप्रियाः ।
शिवप्रीतिकरा नित्यं शुद्धाः पञ्च विनायकाः ॥३४॥

क्षिप्रसिद्धिप्रदं क्षिप्रगणेशं सुरवन्दितम् ।
सम्पूज्य पूर्ववत्सम्यक् गच्छेदाशाविनायकम् ॥३५॥

आशाविनायकं सम्यक् पूजयित्वा ततः परम् ।
अर्कविघ्नेश्वरः सम्यक् पूजनीयः प्रयत्नतः ॥३६॥

पूर्ववत्पूजनीयः स्यात्ततः सिद्धिविनायकः ।
पूजनीयस्ततः सम्यक् चिन्तामणिविनायकः ॥३७॥

सेवाविनायकोऽप्येवं सम्पूज्यस्तदनन्तरम् ।
दुर्गाविनायकस्यापि पूजा कार्या ततः परम् ॥३८॥

एवं सम्पूज्य विधिवद्भक्तिश्रद्धासमन्वितैः ।
शैवाः शङ्करतत्त्वज्ञा भोजनीयाः प्रयत्नतः ॥३९॥

एवं सम्पूजिताः सम्यक् प्रीतास्ते गणनायकाः ।
काशीवासं प्रयच्छन्ति निर्विघ्नेनैव सादरम् ॥४०॥

आज्येन कापिलेनैव सार्धलक्षत्रयाहुतीः ।
हुत्वैतन्नामभीः सम्यक् सर्वविद्याधिषो भवेत् ॥४१॥

एतानि दिव्यनामानि प्रतिवासरमादरात् ।
पठित्वा गणनाथस्थ पूजा कार्या प्रयत्नतः ॥४२॥

यस्यकस्यापि सन्तुष्टो गणपः सर्वसिद्धिदः ।
अत एव सदा पूज्यो गणनाथो विचक्षणैः ॥४३॥

गणेशादपरो लोके विघ्नहर्ता न विद्यते ।
तस्मादन्वहमाराध्यो गणेशः सर्वसिद्धिदः ॥४४॥

काशीनिवाससिद्ध्यर्थं विष्णुना पूजितः पुरा ।
पुरा विघ्नेश्वरः सम्यक्पूजितो दण्डपाणिना ॥४५॥

कर्कोटकेन नागेन गणेशः पूजितः पुरा ।
शेषेण पूजितः पूर्वं गणेशः सिद्धिदायकः ॥४६॥

काशीयात्रार्थमुद्युक्तो विधिर्विघ्नकुलाकुलः ।
पूजयामास विघ्नेशं विधिवद्भक्तिपूर्वकम् ॥४७॥

सूर्येणाभ्यर्चितः पूर्वं चन्द्रेणेन्द्रेण च प्रिये ।
देवैरन्यैश्च विधिवत्पूजितो गणनायकः ॥४८॥

मर्त्यानाममराणां च मुनिनां वा वरानने ।
न सिद्ध्यन्त्येव कार्याणि गणेशाभ्यर्चनं विना ॥४९॥

इति श्री शिवरहस्यान्तर्गतकाशीमाहात्म्ये हरगौरीसंवादे गणेशाष्टोत्तरशतनामार्चनस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।

गणेशाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र का पाठ कैसे करें

  1. इस स्तोत्र का पाठ करने के लिए सुबह स्नान आदि करके स्वच्छ कपड़े पहनें।
  2. गणेश जी की मूर्ति या चित्र के सामने बैठकर ध्यान करें।
  3. एक दीपक और अगरबत्ती जलाएँ।
  4. ध्यान करते हुए शांत मन से गणेशाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र का पाठ करें।
  5. पाठ के बाद भगवान गणेश से अपनी इच्छाओं की पूर्ति और बाधाओं के नाश की प्रार्थना करें।

गणेशाष्टोत्तर शतनाम स्तोत्र का फल

यह स्तोत्र न केवल भौतिक इच्छाओं की पूर्ति करता है, बल्कि आत्मिक उन्नति में भी सहायक होता है। इस स्तोत्र का नियमित पाठ व्यक्ति के जीवन से सभी प्रकार की नकारात्मक ऊर्जा को समाप्त करता है और उसे सकारात्मकता से भरता है। जीवन की कठिनाइयों से संघर्ष करने की शक्ति प्रदान करता है और भगवान गणेश की कृपा से सभी कार्य सफल होते हैं।

इस प्रकार, गणेशाष्टोत्तर शतनामार्चन स्तोत्रम् एक अद्भुत और पवित्र स्तोत्र है, जिसका पाठ करने से भगवान गणेश की अपार कृपा प्राप्त होती है।

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