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गुरूवार, अप्रैल 24, 2025

अघमर्षण सूक्तम्

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Aghamarshana Suktam In Hindi

अघमर्षण सूक्तम् (Aghamarshana Suktam) ऋग्वेद का एक महत्वपूर्ण सूक्त है, जो पापों के नाश और शुद्धि के लिए अत्यंत प्रभावी माना जाता है। यह सूक्त विशेष रूप से जल से स्नान करते समय, प्रायश्चित कर्मों में और आत्मशुद्धि के लिए पाठ किया जाता है। इसका उच्चारण व्यक्ति के मानसिक, शारीरिक और आत्मिक शुद्धिकरण में सहायक होता है।

अघमर्षण का अर्थ

  • अघ का अर्थ है “पाप” या “दोष”।
  • मर्षण का अर्थ है “नाश करना” या “क्षमा कराना”।

इस प्रकार, अघमर्षण सूक्तम् का अर्थ हुआ “पापों को नष्ट करने वाला सूक्त”।

मुख्य भाव और महत्व

  1. पापों का नाश: इस सूक्त के पाठ से पूर्व जन्म और इस जन्म के सभी पापों का नाश होता है।
  2. जल की पवित्रता: इसमें बताया गया है कि जल केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक और आत्मिक शुद्धि का भी स्रोत है।
  3. तप और सत्य का महत्व: यह सूक्त बताता है कि तपस्या और सत्य के आधार पर सृष्टि की उत्पत्ति हुई, इसलिए हमें इन्हीं मूल्यों का पालन करना चाहिए।
  4. स्नान और शुद्धिकरण: यह सूक्त विशेष रूप से स्नान मंत्र के रूप में प्रसिद्ध है और नदियों, विशेषकर गंगा, यमुना आदि में स्नान के समय इसका पाठ करने से विशेष फल प्राप्त होते हैं।
  5. वरुण देवता की स्तुति: वरुण देवता सत्य के रक्षक हैं, इसलिए इस सूक्त के माध्यम से उनसे प्रार्थना की जाती है कि वे हमारे पापों को क्षमा करें।

कब और कैसे करें अघमर्षण सूक्तम् का पाठ?

  • स्नान करते समय: विशेष रूप से तीर्थ स्थलों पर स्नान के समय इसका पाठ करना पुण्यकारी माना जाता है।
  • संध्या वंदन में: इसे संध्यावंदन में शामिल किया जाता है, विशेषकर ब्राह्मणों के लिए यह अनिवार्य माना गया है।
  • पाप नाश एवं आत्मशुद्धि के लिए: यदि किसी व्यक्ति से कोई पाप हो गया हो या वह मानसिक रूप से अशांत हो, तो इस सूक्त का जप करने से उसे शांति मिलती है।
  • एकादशी एवं अमावस्या को: इन विशेष दिनों में इसका पाठ अत्यंत फलदायी माना जाता है।

अघमर्षण सूक्तम् का आध्यात्मिक लाभ

  • यह व्यक्ति के भीतर की नकारात्मकता को दूर करता है।
  • मन को शुद्ध और शांत करता है।
  • पापों के प्रभाव को कम करके मोक्ष प्राप्ति की राह प्रशस्त करता है।
  • जल तत्व की पवित्रता को आत्मसात करने में सहायक होता है।
  • जीवन में सत्य, तप और धर्म का पालन करने की प्रेरणा देता है।

अघमर्षण सूक्तम्Aghamarshana Suktam

हिर॑ण्यशृङ्गं॒-वँरु॑ण॒-म्प्रप॑द्ये ती॒र्थ-म्मे॑ देहि॒ याचि॑तः ।
य॒न्मया॑ भु॒क्तम॒साधू॑ना-म्पा॒पेभ्य॑श्च प्र॒तिग्र॑हः ।
यन्मे॒ मन॑सा वा॒चा॒ क॒र्म॒णा वा दु॑ष्कृत॒-ङ्कृतम् ।
तन्न॒ इन्द्रो॒ वरु॑णो॒ बृह॒स्पतिः॑ सवि॒ता च॑ पुनन्तु॒ पुनः॑ पुनः ।
नमो॒-ऽग्नये᳚-ऽप्सु॒मते॒ नम॒ इन्द्रा॑य॒ नमो॒ वरु॑णाय॒ नमो वारुण्यै॑ नमो॒-ऽद्भ्यः ॥

यद॒पा-ङ्क्रू॒रं-यँद॑मे॒ध्यं-यँद॑शा॒न्त-न्तदप॑गच्छतात् ।
अ॒त्या॒श॒नाद॑ती-पा॒ना॒-द्य॒च्च उ॒ग्रात्प्र॑ति॒ग्रहा᳚त् ।
तन्नो॒ वरु॑णो रा॒जा॒ पा॒णिना᳚ ह्यव॒मर्​शतु ।
सो॑-ऽहम॑पा॒पो वि॒रजो॒ निर्मु॒क्तो मु॑क्तकि॒ल्बिषः॑ ।
नाक॑स्य पृ॒ष्ठ-मारु॑ह्य॒ गच्छे॒द् ब्रह्म॑सलो॒कताम् ।
यश्चा॒प्सु वरु॑ण॒स्स पु॒नात्व॑घमर्​ष॒णः ।
इ॒म-म्मे॑ गङ्गे यमुने सरस्वति॒ शुतु॑द्रि॒-स्तोमग्ं॑ सचता॒ परु॒ष्णिया ।
अ॒सि॒क्नि॒या म॑रुद्वृधे वि॒तस्त॒या-ऽऽर्जी॑कीये शृणु॒ह्या सु॒षोम॑या ।
ऋ॒त-ञ्च॑ स॒त्य-ञ्चा॒भी᳚द्धा॒-त्तप॒सो-ऽध्य॑जायत ।
ततो॒ रात्रि॑रजायत॒ तत॑-स्समु॒द्रो अ॑र्ण॒वः ॥

स॒मु॒द्राद॑र्ण॒वा दधि॑ सं​वँथ्स॒रो अ॑जायत ।
अ॒हो॒रा॒त्राणि॑ वि॒दध॒द्विश्व॑स्य मिष॒तो व॒शी ।
सू॒र्या॒च॒न्द्र॒मसौ॑ धा॒ता य॑था पू॒र्वम॑कल्पयत् ।
दिव॑-ञ्च पृथि॒वी-ञ्चा॒न्तरि॑क्ष॒-मथो॒ सुवः॑ ।
यत्पृ॑थि॒व्याग्ं रजः॑ स्व॒मान्तरि॑क्षे वि॒रोद॑सी ।
इ॒माग्ग्ं स्तदा॒पो व॑रुणः पु॒नात्व॑घमर्​ष॒णः ।
पु॒नन्तु॒ वस॑वः पु॒नातु॒ वरु॑णः पु॒नात्व॑घमर्​ष॒णः ।
ए॒ष भू॒तस्य॑ म॒ध्ये भुव॑नस्य गो॒प्ता ।
ए॒ष पु॒ण्यकृ॑तां-लोँ॒का॒ने॒ष मृ॒त्योर् हि॑र॒ण्मयम्᳚ ।
द्यावा॑पृथि॒व्योर् हि॑र॒ण्मय॒ग्ं॒ सग्ग्ं श्रि॑त॒ग्ं॒ सुवः॑ ॥

सन॒-स्सुव॒-स्सग्ंशि॑शाधि ।
आर्द्र॒-ञ्ज्वल॑ति॒ ज्योति॑र॒हम॑स्मि ।
ज्योति॒र्ज्वल॑ति॒ ब्रह्मा॒हम॑स्मि ।
यो॑-ऽहम॑स्मि॒ ब्रह्मा॒हम॑स्मि ।
अ॒हम॑स्मि॒ ब्रह्मा॒हम॑स्मि ।
अ॒हमे॒वाह-म्मा-ञ्जु॑होमि॒ स्वाहा᳚ ।
अ॒का॒र्य॒का॒र्य॑वकी॒र्णीस्ते॒नो भ्रू॑ण॒हा गु॑रुत॒ल्पगः ।
वरु॑णो॒-ऽपाम॑घमर्​ष॒ण-स्तस्मा᳚-त्पा॒पा-त्प्रमु॑च्यते ।
र॒जोभूमि॑-स्त्व॒माग्ं रोद॑यस्व॒ प्रव॑दन्ति॒ धीराः᳚ ।
आक्रा᳚न्​थ्समु॒द्रः प्र॑थ॒मे विध॑र्मञ्ज॒नय॑-न्प्र॒जा भुव॑नस्य॒ राजा᳚ ।
वृषा॑ प॒वित्रे॒ अधि॒सानो॒ अव्ये॑ बृ॒हत्सोमो॑ वावृधे सुवा॒न इन्दुः॑ ॥

अघमर्षण सूक्तम् एक अत्यंत प्रभावी वैदिक स्तोत्र है, जो विशेष रूप से आत्मशुद्धि और पापों के नाश के लिए प्रयोग किया जाता है। यह सूक्त बताता है कि जल ही सबसे बड़ा शुद्धिकारक है और सत्य एवं तप से जीवन को पवित्र बनाया जा सकता है। इसलिए, नित्यप्रति स्नान के समय, विशेष अवसरों पर और आत्मिक शुद्धि के लिए इसका पाठ अत्यंत लाभकारी माना जाता है।



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