27.4 C
Gujarat
शनिवार, सितम्बर 21, 2024

पितृपक्ष एवं श्राद्ध का पुराणों मे महत्त्व

Post Date:

पितृपक्ष एवं श्राद्ध का पुराणों मे महत्त्व Pitru Paksha Mantra

सनातन धर्म में सबको स्थान देते हुए सबके लिए कुछ समय आरक्षित किया गया है ! इसी क्रम में आश्विन कृष्णपक्ष को पितृपक्ष मानते हुए पितरों के लिए अपनी श्रद्धा समर्पित करने का शुभ अवसर मानते हुए उनके निमित्त श्राद्ध आदि किया जाता है ! प्राय: लोग देवपूजन / देवकार्य तो बड़ी श्रद्धा से करते हैं परंतु पितृपक्ष में पितरों की अनदेखी करते हैं जबकि हमारे शास्त्रों में कहा गया है कि👉

देवकार्यादपि सदा पितृकार्यं विशिष्यते !
देवताभ्यो हि पूर्वं पितृणामाप्यायनं वरम् !! (हेमाद्रि)

अर्थात्:👉 देवकार्य की अपेक्षा पितृकार्य की विशेषता मानी गयी है ! अत: देवकार्य करने से पहले पितरों को तृप्त करने का प्रयास करना चाहिए ! जो भी मनुष्य पितृपक्ष में पितरों को अनदेखा करता है उसके द्वारा किया गया किसी भी देवी – देवता का पूजन कभी भी सफल व फलदायी नहीं होता है ! पितृकार्य में सबसे सरल एवं उपयोगी विधान है श्राद्ध ! अपने पितरों को संतुष्ट व प्रसन्न रखने के लिए श्राद्ध से बढ़कर कोई दूसरा उपाय है ही नहीं ! यथा:–

श्राद्धात् परतरं नान्यच्छ्रेयस्करमुदाहृतम् !
तस्मात् सर्व प्रयत्नेन् श्राद्धं कुर्याद् विचक्षण: !!( हेमाद्रि )

अर्थात्:👉 श्राद्ध से बढ़कर कल्याणकारी और कोई कर्म नहीं होता ! इसलिए प्रत्येक व्यक्ति को प्रयत्न पूर्वक अपने पितरों का श्राद्ध करते रहना चाहिए। जो भी मनुष्य अपने पितरों के लिए पितृपक्ष में तर्पण और श्राद्ध नहीं करता है वह पितृदोष के साथ अनेक आधि – व्याधियों का शिकार होकर के जीवन भर कष्ट भोगा करता है। श्राद्ध कर्म देखने में तो बहुत ही साधारण सा कर्म है परंतु इसका फल बहुत ही बृहद मिलता है जैसा कि कहा गया है :-

एवं विधानत: श्राद्धं कुर्यात् स्वविभवोचितम् !
आब्रह्मस्तम्बपर्यन्तं जगत् प्रीणाति मानव: !!(ब्रह्मपुराण)

अर्थात्:👉 श्राद्ध से केवल अपनी तथा अपने पितरों की ही संतुष्ट नहीं होती अपितु जो व्यक्ति इस प्रकार विधि पूर्वक अपने धन के अनुरूप श्राद्ध करता है वह ब्रह्मा से लेकर घास तक समस्त प्राणियों को संतृप्त कर देता है। श्राद्ध को भार मानकर कदापि नहीं करना चाहिए ! श्राद्ध श्रद्धा का विषय है पूर्ण श्रद्धा से पितरों के प्रति समर्पित होकर शांत मन से श्राद्ध कर्म को करना चाहिए क्योंकि👉

योनेन् विधिना श्राद्धं कुर्याद् वै शान्तमानस:!
व्यपेतकल्मषो नित्यं याति नावर्तते पुन: !!(कूर्मपुराण)

अर्थात् :👉 जो शांत मन हो कर विधि पूर्वक श्राद्ध करता है वह संपूर्ण पापों से मुक्त होकर जन्म-मृत्यु के बंधन से छूट जाता है। श्राद्ध का विधान मनुष्य के अनेक पातकों को मिटा देता है ! अपने पितरों के लिए किए गए श्राद्ध से संतुष्ट होकर के पितर धन – धान्य की वृद्धि करते हैं। कोई भी मनुष्य या कोई भी जीव मृत्यु से नहीं बच सकता। जीवन की परिसमाप्ति मृत्यु से होती है। इस ध्रुव सत्य को सभी ने स्वीकार किया है और यह प्रत्यक्ष दिखलाई भी पड़ता है। जीवात्मा इतना सूक्ष्म होता है कि जब वह शरीर से निकलता है उस समय कोई भी मनुष्य उसे अपने चर्मचक्षुओं से नहीं देख सकता और वही जीवात्मा अपने कर्मों के भोगों को भोगने के लिए एक अंगुष्ठपर्वपरिमिति आतिवाहिक सूक्ष्म (अतीन्द्रिय) शरीर धारण करता है जैसा कि कहा गया है👉

तत्क्षणात् सो$थ गृह्णाति शारीरं चातिवाहिकम् !
अंगुष्ठपर्वमात्रं तु स्वप्राणैरेव निर्मितम् !!
(स्कन्दपुराण)

इस सूक्ष्म शरीर के माध्यम से जीवात्मा अपने द्वारा किए गए धर्म और अधर्म के परिणाम स्वरूप सुख-दुख को भोगता है तथा इसी सूक्ष्म शरीर से पाप करने वाले मनुष्य याम्यमार्ग की यातनाएं भोंगते हुए यमराज के पास पहुंचते हैं तथा धार्मिक लोग प्रसन्नता पूर्वक सुखभोग करते हुए धर्मराज के पास जाते हैं। मनुष्य इस लोक से जाने के बाद अपने पारलौकिक जीवन को किस प्रकार सुख समृद्धि एवं शांतिमय बना सकता है तथा उसकी मृत्यु के बाद उस प्राणी के उद्धार के लिए परिजनों के द्वारा क्या किया गया यह बहुत ही महत्वपूर्ण हो जाता है। परिजनों द्वारा किया जाने वाला कर्तव्य श्राद्ध कर्म कहा जाता है। यह प्रत्येक प्राणी का कर्तव्य बनता है कि वह अपने पितरों के लिए समय-समय पर श्राद्ध कर्म करता रहे।

प्रत्येक मनुष्य अपने जीवन में पुत्र की कामना करता है क्योंकि हमारे धर्म शास्त्रों के लिखा है

अपुत्रस्तो गतिर्नास्ति

अर्थात्:-👉 बिना पुत्र के सद्गति नहीं प्राप्त हो सकती ! पुत्र का क्या कार्य है ?यह बताते हुए हमारे शास्त्र कहते हैं :

“पुन्नामनरकात् त्रायते इति पुत्र:”

अर्थात:-👉 नर्क से जो रक्षा करता है वही पुत्र है ! सामान्यत: जीव से इस जीवन में पाप और पुण्य दोनों होते रहते हैं ! पुण्य का फल है स्वर्ग और पाप का फल है नर्क, नर्क में पापी को घोर यातना भोगनी पड़ती है। स्वर्ग – नरक भोगने के बाद जीव पुनः अपने कर्मों के अनुसार चौरासी लाख योनियों में भटकने लगता है। पुण्यात्मा मनुष्य योनि अथवा देवयोनि को प्राप्त करते हैं और पापात्मा पशु-पक्षी , कीट – पतंगा आदि तिर्यक योनि को प्राप्त करते हैं। अतः अपने शास्त्रों के अनुसार पुत्र – पौत्रादिकों का यह कर्तव्य होता है कि वे अपने माता-पिता तथा पूर्वजों के निमित्त “श्रद्धा पूर्वक” कुछ ऐसे शास्त्रोक्त कर्म करें जिससे उन मृत प्राणियों को परलोक में अथवा अन्य योनियों में भी सुख की प्राप्ति हो सके। इसीलिए भारतीय संस्कृति तथा सनातन धर्म में पितृ ऋण से मुक्त होने के लिए अपने माता-पिता तथा परिवार के मृतक प्राणियों के निमित्त श्राद्ध करने की अनिवार्य आवश्यकता बताई गई है। श्राद्ध कर्म को पितृकर्म भी कहते हैं। पितृकर्म का तात्पर्य है पितृ पूजा से।
एक बात विशेष ध्यान रखना चाहिए पितृकार्य में या श्राद्ध करते समय वाक्य की शुद्धता तथा क्रिया की शुद्धता मुख्य रूप से आवश्यक है क्योंकि।

“पितरो वाक्यमिच्छन्ति भावमिच्छन्ति देवता”

अर्थात:-👉 पितृ वाक्य और क्रिया शुद्ध होने पर ही पूजा स्वीकार करते हैं जबकि देवता भावना शुद्ध होने पर क्रिया तथा वाक्य में कोई त्रुटि हो जाए तो भी वह प्रसन्न हो जाते हैं और अपने भक्तों की पूजा स्वीकार कर लेते हैं। अत: पितृकार्य में देव कार्य की अपेक्षा अधिक सावधानी की आवश्यकता है। तभी श्राद्ध करना सफल हो सकता है। कुछ अनभिज्ञ यह भी पूछते रहते हैं कि श्राद्ध क्या है ? वे भी ध्यान दें।

“श्रद्धया पितृन् उद्दिश्य विधिना क्रियते यत्कर्म तत् श्राद्धम्”

अर्थात:👉 पितरों के उद्देश्य से विधिपूर्वक जो कर्म किये जाते हैं उसे ही श्राद्ध कहा जाता है ! श्रद्धा शब्द से ही श्राद्ध की निष्पत्ति होती है !

श्रद्धार्थमिदं श्राद्धम्
श्रद्धया कृतं सम्पादितमिदम्
श्रद्धया दीयते यस्मात् तच्छ्राद्धम्

एवं

श्रद्धया इदं श्राद्धम्

अर्थात्:👉 अपने मृत पितृगण के उद्देश्य से श्रद्धा पूर्वक किए जाने वाले कर्मविशेष को श्राद्ध शब्द के नाम से जाना जाता है। इसे ही पितृयज्ञ भी कहते हैं जिसका वर्णन मनुस्मृति आदि धर्मशास्त्रों पुराणों में मिलता है !

देशे काले च पात्रे च विधिना हविषा च यत् !
तिलैर्दर्भैश्च मन्त्रैश्च श्राद्धं स्याच्छ्राद्धया युतम् !! (कूर्मपुराण)

अर्थात्:👉 देश , काल , तथा पात्र में हविष्यादि विधि द्वारा जो कर्म तिल (यव) और दर्भ (कुश) तथा मन्त्रों से युक्त होकर श्रद्धापूर्वक किया जाता है ! *वही श्राद्ध है।

संस्कृतं व्यञ्जनाद्यं च पयोमधुघृतान्वितम् !
श्रद्धया दीयते यल्माच्छ्राद्धं तेन निगद्यते !! ( कूर्मपुराण )

अर्थात्:👉 जिस कर्म विशेष में दुग्ध , घृत , मधु से युक्त सुसंस्कृत (अच्छी प्रकार से पकाये हुए) उत्तम व्यंजन को श्रद्धापूर्वक पितृगण के उद्देश्य से ब्राह्मणादि को प्रदान किया जाय ! उसे श्राद्ध कहते है !

देशे काले च पात्रे श्रद्धया विधिना च यत् !
पितृनुद्दिश्य विप्रेभ्यो दत्तं श्राद्धमुदाहृतम् !! ( ब्रह्मपुराण )

अर्थात्:👉 देश , काल और पात्र में विधिपूर्वक श्रद्धा से पितरों के उद्देश्य से जो ब्राह्मण को दिया जाय उसे श्राद्ध कहते हैं।

कोई जवाब दें

कृपया अपनी टिप्पणी दर्ज करें!
कृपया अपना नाम यहाँ दर्ज करें

Share post:

Subscribe

Popular

More like this
Related

आजिविक भारत का एक खोया हुवा धर्मं Ājīvika

आजिविक का परिचय Introduction to Ajivikaबौद्ध और जैन...

कौन थे हूण, भारत क्यों आए, कैसे खत्म हुआ हूणों का राज?

कौन थे हूण?हूणों का उत्पत्ति और इतिहासहूणों का उदय...

द्वादशज्योतिर्लिङ्गस्तोत्रम्‌

द्वादशज्योतिर्लिङ्गस्तोत्रम्‌ Dwadashjyotirling Stotramसौराष्ट्रदेशे विशदेऽतिरम्येज्योतिर्मयं चन्द्रकलावतंसम्‌ ।भक्तिप्रदानाय कृपावतीर्णंत॑ सोमनाथं शरण...

द्वादशज्योतिर्लिङ्गानि

द्वादशज्योतिर्लिङ्गानि   Dwasdash Jyotirlinganiसौराष्ट्रे सोमनाथं च श्रीशैले मल्लिकार्जुनम्‌।उज्जयिन्यां महाकाल्मोङ्कारमसलेश्वरम्‌॥...