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शनिवार, दिसम्बर 21, 2024

श्री शिवमहापुराण तृतीयोऽध्यायः Shiv Mahapuran Third Adhyay

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श्री शिवमहापुराण तृतीयोऽध्यायः

चंचुलाका पापसे भय एवं संसारसे वैराग्य

शौनक उवाच (शौनकजी बोले)

सूत सूत महाभाग सर्वज्ञोसि महामते।
त्वत्प्रसादात्‌ कृतार्थोऽहं कृतार्थोऽहं पुनः पुन: ॥ १
इतिहासमिमं श्रुत्वा मनो मेऽतीव मोदते।
अन्यामपि कथां शम्भोर्वद प्रेमविवर्थिनीम्‌॥ २

अर्थ: है महाभाग सूतजी! आप सर्वज्ञ हैं। हे महामते! आपके कृपाप्रसादसे मैं बारम्बार कृतार्थ हुआ। इस इतिहासको सुनकर मेरा
मन अत्यन्त आनन्दमें निमग्न हो रहा है। अत: अब भगवान्‌ शिवमें प्रेम बढानेवाली शिवसम्बन्धिनी दूसरी कथाको भी कहिये॥ १-२॥

नामृतं पिबतां लोके मुक्तिः क्वापि सभाज्यते।
शम्भोः कथासुधापानं प्रत्यक्षं मुक्तिदायकम्‌॥ ३
धन्या धन्या कथा शम्भोस्त्वं धन्यो धन्य एव च।
यदाकर्णनमात्रेण शिवलोकं ब्रजेन्नरः॥ ४ ॥

अर्थ: अमृत पीनेवालोंको लोकमें कहीं मुक्ति नहीं प्राप्त होती है, किंतु भगवान्‌ शंकरके कथामृतका पान तो प्रत्यक्ष ही मुक्ति देनेवाला है। सदाशिवको जिस कथाके सुननेमात्रसे मनुष्य शिवलोक प्राप्त कर लेता है, बह कथा धन्य है, धन्य है और कथाका श्रवण करानेवाले आप भी धन्य हैं, धन्य हैं ॥ ३-४॥

सूत उवाच (सूतजी बोले)

श्रृणु शौनक वक्ष्यामि त्वदग्रे गुह्यमप्युत।
यतस्त्वं शिवभक्तानामग्रणीर्वेदवित्तमः॥ ५
समुद्रनिकटे देशे ग्रामो बाष्कलसंज्ञकः।
सन्ति यत्र पापिष्ठा वेदधर्माज्झिता जनाः॥ ६
दुष्टा दुर्विषयात्मानो निदेवा जिह्यवृत्तयः।
कृषीवलाः शस्त्रधराः परस्त्रीभोगिनः खलाः॥ ७
ज्ञानवैराग्यसद्धर्म न जानन्ति परं हि ते।
कुकथाश्रवणाढ्येषु निरताः पशुबुद्धयः॥ ८

अर्थ: है शौनक! सुनिये, मैं आपके सामने गोपनीय कथावस्तुका भी वर्णन करूँगा; क्योंकि आप शिवभक्तोंमें अग्रगण्य तथा वेदवेत्ताओंमें श्रेष्ठ हैं । समुद्रके निकटवर्ती प्रदेशमें एक बाष्कल । नामक ग्राम है, जहाँ वैदिक धर्मसे विमुख महापापी द्विज निवास करते हैं। वे सब-के-सब बड़े दुष्ट हैं, उनका मन दूषित विषयभोगोंमें ही लगा रहता है। वे न देवताओंपर विश्वास करते हैं न भाग्यपर; वे सभी कुटिल वृत्तिवाले हैं । किसानी करते और भाँति-भाँतिके` | घातक अस्त्र शस्त्र रखते हैं । वे परस्त्रीमन करनेवाले और खल हैं । ज्ञान, वैराग्य तथा सद्धर्मको वे बिलकुल नहीं जानते हैं। वे सभी पशुबुद्धिवाले हैं और सदा दूषित बातोंको सुननेमें संलग्न रहते हैं ॥ ५--८ ॥

अन्ये वर्णाश्च कुधियः स्वधर्मविमुखाः खला: ।
कुकर्मनिरता नित्यं सदा विषयिणश्च ते॥ ९

अर्थ:(जहाँके द्विज ऐसे हों, वहाँके अन्य वर्णोके विषयमें क्या कहा जाय!) अन्य वर्णोके लोग भी उन्हींकी भाँति कुत्सित विचार रखनेवाले, स्वधर्मविमुख एवं खल हैं; वे सदा कुकर्ममें लगे रहते हैं और नित्य विषयभोगोंमें ही डूबे रहते हैं॥ ९॥

स्त्रियः सर्वाश्च कुटिलाः स्वैरिण्यः पापलालसाः।
कुधियो व्यभिचारिण्यः सदवृत्ताचारवर्जिता: ॥ १०

अर्थ: वहाँकी सब स्त्रियाँ भी कुटिल स्वभावकी, स्वेच्छाचारिणी, पापासक्त, कुत्सित विचारवाली और व्यभिचारिणी हैं। वे सद्व्यवहार तथा सदाचारसे सर्वथा शून्य हैं॥ १०॥

एवं कुजनसंवासे ग्रामे बाष्कलसंज्ञिते।
तत्रैको बिन्दुगो नाम विप्र आसीन्महाधम: ॥ ११ ॥

अर्थ: कुजनोंके निवासस्थान उस बाष्कल नामक ग्राममें किसी समय एक बिन्दुग नामधारी ब्राह्मण रहता था, वह बड़ा अधम था॥ ११॥

स दुरात्मा महापापी सुदारोऽपि कुमार्गगः।
वेश्यापतिर्बभूवाथ कामाकुलितमानसः॥ १२ ॥
अर्थ:
वह दुरात्मा और महापापी था। यद्यपि उसकी स्त्री बड़ी सुन्दर थी, तो भी वह कुमार्गपर ही चलता था। कामवासनासे कलुषितचित्त वह वेश्यागामी था॥ १२॥

स्वपत्नीं चञ्चुलां नाम हित्वा नित्यं सुधर्मिणीम्‌।
रेमे स वेश्यया दुष्टः स्मरबाणप्रपीडितः॥ १३ ॥

अर्थ: उसको पत्नीका नाम चंचुला था, वह सदा उत्तम धर्मके पालनमें लगी रहती थी, तो भी उसे छोड़कर वह दुष्ट ब्राह्मण कामासक्त होकर वेश्यागामी
हो गया था॥ १३॥

एवं कालो व्यतीयाय महांस्तस्य कुकर्मिण:।
सा स्वधर्मभयात्‌ क्लेशात्‌ स्मरार्तापि च चञ्जुला॥ १४ ॥
अथ तस्याङ्गना सापि प्ररूढनवयोवना।
अविषह्यस्मरावेशा स्वधर्माद्विरराम ह॥ १५ ॥

अर्थ: इस तरह कुकर्ममें लगे हुए उस बिन्दुगके बहुत वर्ष व्यतीत हो गये। उसकी स्त्री चंचुला कामसे पीडित होनेपर भी स्वधर्मनाशके भयसे क्लेश सहकर भी दीर्घकालतक धर्मसे भ्रष्ट नहीं हुई। परंतु दुराचारी पतिके आचरणसे प्रभावित होनेके कारण कामपीड़ित हो आगे चलकर वह स्त्री भी दुराचारिणी हो गयी॥ १४-१५॥

जारेण सङ्गता रात्रौ रेमे पापेन गुप्ततः।
पतिदृष्टि वञ्चयित्वा भ्रष्टसत्त्वा कुमार्गगा॥ १६ ॥

अर्थ: भ्रष्ट चरित्रवाली वह कुमार्गगामिनी अपने पतिकी दृष्टि बचाकर रात्रिमें चोरी-छिपे अन्य पापी जार पुरुषके साथ रमण करने लगी ॥ १६॥

कदाचित्तां दुराचारां स्वपत्नीं चञ्जुलां मुने।
जारेण सङ्गतां रात्रौ ददर्श स्मरविह्वलाम्‌॥ १७ ॥

अर्थ: हे मुने! एक बार उस ब्राह्मणने अपनी उस दुराचारिणी पत्नी चंचुलाको कामासक्त हो परपुरुषके साथ रात्रिमें संसर्गरत देख लिया॥ १७॥

दृष्ट्वा तां दूषितां पत्नीं कुकर्मासक्तमानसाम्‌।
जारेण सङ्गतां रात्रौ क्रोधाद्‌ दुद्राव वेगतः॥ १८ ॥

अर्थ: उस दुष्ट तथा दुराचारमें आसक्त मनवाली पत्नीको रातमें परपुरुषके साथ व्यभिचारत देखकर वह क्रोधपूर्वक वेगसे दौड़ा॥ १८॥

तमागतं गृहे दुष्टमाज्ञाय बिन्दुगं खलः।
पलायितो द्रुतं जारो वेगतश्छद्यवान्‌ स वै॥ १९ ॥

अर्थ: उस दुष्ट बिन्दुको घरमें आया जानकर वह कपटी व्यभिचारी तेजीसे भाग गया॥ १९॥

अथ स बिन्दुगः पत्नीं गृहीत्वा सुहुराशयः।
मुष्टिबन्धेन सन्तर्ज्य पुनः पुनरताडयत्‌॥ २० ॥

अर्थ: तब वह दुष्टात्मा बिन्दु अपनी पत्नीको पकड़कर उसे डॉटता हुआ मुक्कोंसे बार-बार पीटने लगा ॥ २०॥

सा नारी ताडिता भर्त्रा चञ्जुला स्वैरिणी खला ।
कुपिता निर्भया प्राह स्वपतिं बिन्दुगं खलम्‌॥ २

अर्थ: वह व्यभिचारिणी दुष्टा नारी चंचुला पीटी जानेपर कुपित होकर निर्भयतापूर्वक अपने दुष्ट पति बिन्दुगसे कहने लगी॥ २१॥

चच्चलोवाच (चंचुला बोली)

भवान्‌ प्रतिदिनं कामं रमते वेश्यया कुधी:। 
मां विहाय स्वपत्नीं च युवतीं पतिसेविनीम्‌॥ २२ ॥
रूपवत्या युवत्याश्च कामाकुलितचेतसः।
विना पतिविहारं स्यात्‌ का गतिर्मे भवान्‌ वदेत्‌॥ २३ ॥
अहं महारूपवती नवयौवनविह्वला।
कथं सहे कामदुःखं तव सङ्गं विनार्तधीः॥ २४ ॥

अर्थ: मुझ पतिपरायणा युवती पत्नीको छोड़कर आप कुबुद्धिवश प्रतिदिन वेश्याके साथ इच्छानुसार रमण करते हैं। आप ही बतायें कि रूपवती तथा कामासक्त चित्तवाली मुझ युवतीकी पतिसंसर्गके बिना क्या गति होती होगी? मैं अत्यन्त सुन्दर हूँ तथा नवयौवनसे उन्मत्त हूँ। आपके संसर्गके बिना व्यथितचित्तवाली मैं- कामजन्य दुःखको कैसे सह सकती हूँ ? ॥ २२-२४ ॥

सूत उवाच ( सूतजी बोले )

इत्युक्तः स तया मूर्खो मूढधीर्ब्राह्मणोऽधमः।
प्रोवाच बिन्दुगः पापी स्वधर्मविमुखः खलः॥ २५ ॥

अर्थ उस स्त्रीके इस प्रकार कहनेपर वह मूढ़बुद्धि मूर्ख ब्राह्मणाधम स्वधर्मविमुख दुष्ट पापी बिन्दुग कहने लगा--॥ २५॥

बिन्दुग उवाच ( बिन्दुग बोला )

सत्यमेतत्त्वयोक्तं हि कामव्याकुलचेतसा।
हितं वक्ष्यामि तस्मात्ते शृणु कान्ते भयं त्यज॥ २६
जारैर्विहर नित्यं त्वं चेतसा निर्भयेन वै।
धनमाकर्ष तेभ्यो हि दत्त्वा तेभ्यः परां रतिम्‌॥ २७
तद्धनं देहि सर्व मे वेश्यासंसक्तचेतसः।
महत्स्वार्थं भवेन्नूनं तवापि च ममापि च॥ २८ ॥

अर्थ : कामसे व्याकुलचित्त होकर
तुमने यह सत्य ही कहा है। हे प्रिये! तुम भय त्याग
दो और मैं जो तुमसे हितकी बात कहता हूँ, उसे
सुनो । तुम निर्भय होकर नित्य परपुरुषोंके साथ संसर्ग
करो। उन्हें सन्तुष्ट करके उनसे धन खींचो। बह सारा
धन वेश्याके प्रति आसक्त मनवाले मुझको दे दिया
करो। इससे तुम्हारा और मेरा दोनोंका ही स्वार्थ सिद्ध
हो जायगा॥ २६-२८॥

सूत उवाच ( सूतजी बोल )

इति भर्तृवचः श्रुत्वा चञ्जुला तद्ठधूश्च सा।
तथेति भर्तृवचनं प्रतिजग्राह हृष्टधीः॥ २९
कृत्वैवं समयं तौ वै दम्पती दुष्टमानसो।
कुकर्मनिरतौ जातौ निर्भयेन कुचेतसा॥ ३० ॥

अर्थ: पतिका यह वचन सुनकर
उसकी पत्नी चंचुलाने प्रसन्न होकर उसको कही बात
मान ली। उन दोनों दुराचारी पति-पत्नीने इस प्रकार
समझौता कर लिया तथा वे दोनों निर्भय चित्ते
कुकर्ममें लीन हो गये॥ २९-३०॥

एवं तयोस्तु दम्यत्योर्दुराचारप्रवृत्तयोः।
महान्‌ कालो व्यतीयाय निष्फलो मूढचेतसोः॥ ३१ ॥

अर्थ: इस तरह दुराचारमें डूबे हुए उन मूढ़ चित्तवाले पति-पत्नीका बहुत-सा समय व्यर्थ बीत गया॥ ३१॥

अथ विप्रः स कुमतिर्बिन्दुगो वृषलीपतिः।
कालेन निधनं प्राप्तो जगाम नरकं खलः॥ ३२
भुक्त्वा नरकदुःखानि बह्वहानि स मूढधीः।
विन्ध्येऽभवत्‌ पिशाचो हि गिरौ पापी भयङ्करः॥ ३३

अर्थ: तदनन्तर शूद्रजातीय वेश्याका पति बना हुआ वह दूषित बुद्धिवाला दुष्ट ब्राह्मण बिन्दुग समयानुसार मृत्युको प्राप्त हो नरकमें जा पड़ा। बहुत दिनोंतक नरकके दुःख भोगकर वह मूढ़बुद्धि पापी विन्ध्यपर्वंतपर भयंकर पिशाच हुआ॥ ३२-३३॥

मृते भर्तरि तस्मिन्वै दुराचारेऽथ बिन्दुगे।
उवास स्वगृहे पुत्रैश्चिरकालं विमूढधीः॥ ३४

अर्थ: इधर, उस दुराचारी पति बिन्दुगके मर जानेपर वह मूढ्हृदया चंचुला बहुत समयतक पुत्रोंक साथ अपने घरमें ही रही॥ ३४॥

एवं विहरती जारैः सा नारी चञ्जुलाह्वया।
आसीत्‌ कामरता प्रीता किञ्चिदुत्क्रान्तयौवना॥ ३५

अर्थ: इस प्रकार प्रेमपूर्वक कामासक्त होकर जारोंके साथ विहार करती हुई उस चंचुला नामक स्त्रीका कुछ-कुछ यौवन समयके साथ ढलने लगा॥ ३५॥

एकदा दैवयोगेन सम्प्राप्ते पुण्यपर्वणि।
सा नारी बन्धुभिः सार्ध गोकर्ण क्षेत्रमाययो॥ ३६
प्रसङ्गात्‌ सा तदा गत्वा कस्मिंश्चित्‌ तीर्थपाथसि।
सस्नौ सामान्यतो यत्र तत्र बभ्राम बन्धुभिः ॥ ३७ ॥

देवालयेऽथ कस्मिंश्चिहदैवज्ञमुखतः शुभाम्‌।
शुश्राव सत्कथां शम्भोः पुण्यां पौराणिकीं च सा॥ ३८ ॥

अर्थ: एक दिन दैवयोगसे किसी पुण्य पर्वके आनेपर वह स्त्री भाई-बन्धुओंके साथ गोकर्ण क्षेत्रमें गयी । तीर्थयात्रियोंके संगसे उसने भी उस समय जाकर किसी तीर्थके जलमें स्नान किया। फिर बह साधारणतया बन्धुजनोंके साथ यत्र-तत्र घूमने लगी। [घूमती-घामती] किसी देवमन्दिरमे उसने एक दैवज्ञ ब्राह्मणके मुखसे भगवान्‌ शिवकी परम पवित्र एवं मंगलकारिणी उत्तम पौराणिक कथा सुनी ॥ ३६--३८ ॥

योषितां जारसक्तानां नरके यमकिङ्कराः।
सन्तप्तलोहपरिघं क्षिपन्ति स्मरमन्दिरे॥ ३९ ॥
इति पौराणिकेनोक्तां श्रुत्वा वैराग्यवर्धिनीम्‌।
कथामासीद्भयोद्विग़ा चकम्पे तत्र सा च वै॥ ४० ॥

अर्थ: [कथावाचक ब्राह्मण कह रहे थे कि] 'जो स्त्रियाँ परपुरुषोंके साथ व्यभिचार करती हैं, वे मरनेके बाद जब यमलोकमें जाती हैं, तब यमराजके दूत उनकी योनिमें तपे हुए लोहेका परिघ डालते हैं।' पौराणिक ब्राह्मणके मुखसे यह वैराग्य बढ़ानेवाली कथा सुनकर चंचुला भयसे व्याकुल हो वहाँ काँपने
लगी ॥ ३९-४० ॥

कथा समाप्तौ सा नारी निर्गतेषु जनेषु च।
भीता रहसि तं प्राह शैवं संवाचकं द्विजम्‌॥ ४१ ॥

अर्थ: जब कथा समाप्त हुई और लोग वहाँसे बाहर चले गये, तब वह भयभीत नारी एकान्तमें शिवपुराणको कथा बाँचनेवाले उन ब्राह्मणसे कहने लगी॥ ४१॥
bramhin
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चच्चुलोवाच ( चंचुलाने कहा )

ब्रह्मन्‌ त्वं श्रण्वसद्वृत्तमजानन्त्या स्वधर्मकम्‌।
श्रुत्वा मामुद्धर स्वामिन्‌ कृपां कृत्वातुलामपि॥ ४२ ॥

अर्थ: ब्रह्मन्‌! में अपने धर्मको नहीं जानती थी। इसलिये मेरे द्वारा बड़ा दुराचार हुआ है। स्वामिन्‌! इसे सुनकर मेरे ऊपर अनुपम कृपा करके आप मेरा उद्धार कीजिये॥ ४२॥

चरितं सूल्बणं पापं मया मूढधिया प्रभो।
नीतं पाँश्चल्यतः सर्व यौवनं मदनान्धया॥ ४३ ॥

अर्थ: हे प्रभो! मैंने मूढ़बुद्धिके कारण घोर पाप किया है। मैंने कामान्ध होकर अपनी सम्पूर्ण युवावस्था व्यभिचारमें बितायी है॥ ४३॥
श्रुत्वेदं वचनं तेऽद्य वैराग्यरसजुम्भितम्‌।
जाता महाभया साहं सकम्पात्तवियोगिका॥ ४४ ॥
धिङ्‌ मां मूढधियं पापां काममोहितचेतसम्‌।
निन्द्या दुर्विषयासक्तां विमुखीं हि स्वधर्मतः ॥ ४५ ॥

अर्थ: आज वैराग्य-रससे ओतप्रोत आपके इस प्रवचनको सुनकर मुझे बड़ा भय लग रहा है। मैं काँप उठी हूँ और मुझे इस संसारसे वैराग्य हो गया है। मुझ मूढ़ चित्तवाली पापिनीको धिक्कार है। मैं सर्वथा निन्दाके योग्य हूँ। मैं कुत्सित विषयोंमें फँसी हुई हूँ और अपने धर्मसे विमुख हो गयी हूँ ॥ ४४-४५॥

यदल्पस्य सुखस्यार्थे स्वकार्यस्य विनाशिनम्‌।
महापापं कृतं घोरमजानन्त्यातिकष्टदम्‌॥ ४६ ॥

अर्थ: थोडेसे सुखके लिये अपने हितका नाश | करनेवाले तथा भयंकर कष्ट देनेवाले घोर पाप मैंने अनजानेमें ही कर डाले॥ ४६॥

यास्यामि दुर्गतिं कां कां घोरां हा कष्टदायिनीम्‌।
को ज्ञो यास्यति मां तत्र कुमार्गरतमानसाम्‌॥ ४७ ॥
मरणे यमदूताँस्तान्‌ कथं द्रक्ष्ये भयङ्करान्‌।
कथं पाशेर्बलात्‌ कण्ठे बध्यमाना धृतिं लभे॥ ४८ ॥
कथं सहिष्ये नरके खण्डशो देहकृन्तनम्‌।
यातनां तत्र महतीं दुःखदां च विशेषत: ॥ ४९ ॥

अर्थ: हाय! न जाने किस-किस घोर कष्टदायक । ुर्गतिमें मुझे पड़ना पड़ेगा और वहाँ कोन बुद्धिमान्‌ |पुरुष कुमार्गमें मन लगानेवाली मुझ पापिनीका साथ | देगा? मृत्युकालमें उन भयंकर यमदूतोंको मैं कैसे देखूँगी ? जब वे बलपूर्वक मेरे गलेमें फंदे डालकर मुझे बाँधेंगे, तब मैं कैसे धीरज धारण कर सकूँगी ? नरकमें जब मेरे शरीरके टुकड़े-टुकड़े किये जायेगे, उस समय विशेष दुःख देनेवाली उस महायातनाको मैं वहाँ कैसे सहुँगी ?॥ ४७-४९ ॥

दिवा चेष्टामिन्द्रियाणां कथं प्राप्स्यामि शोचती।
रात्रौ कथं लभिष्येऽहं निद्रां दुःखपरिप्लुता॥ ५०
हा हतास्मि च दग्धास्मि विदीर्णहृदयास्मि च।
सर्वथाहं विनष्टास्मि पापिनी सर्वथाप्यहम्‌॥ ५१

अर्थ: दुःख और शोकसे ग्रस्त होकर मैं दिनमें सहज इन्द्रियव्यापार और रात्रिमें नींद कैसे प्राप्त कर सकूँगी ? हाय ! मैं मारी गयी ! मैं जल गयी ! मेरा हृदय विदीर्ण हो गया और मैं सब प्रकारसे नष्ट हो गयी; क्योंकि मैं हर तरहसे पापमें ही डूबी रही हूँ॥ ५०-५१॥

हा विधे मां महापापे दत्त्वा दुश्शेमुषीं हठात्‌।
अपैति यत्‌ स्वधर्माद्नै सर्वसौख्यकरादहो॥ ५२
शूलप्रोतस्य शैलाग्रात्पततस्तुङ्गतो द्विज।
यहुःखं देहिनो घोरं तस्मात्‌ कोटिगुणं मम॥ ५३
अश्वमेधशतं कृत्वा गड्ढां स्नात्वा शतं समाः।
न शुद्धिर्जायते प्रायो मत्पापस्य गरीयसः॥ ५४
किं करोमि कव गच्छामि कं वा शरणमाश्रये।
कस्त्रायते मां लोकेऽस्मिन्‌ पतन्तीं नरकार्णवे ॥ ५५

अर्थ: हाय विधाता! मुझ पापिनीको आपने हठात्‌ ऐसी दुर्बुद्धि क्यों दे दी, जो सभी प्रकारका सुख देनेवाले स्वधर्मसे दूर कर देती है! हे द्विज! शूलसे बिँधा हुआ व्यक्ति ऊँचे पर्वत-शिखरसे गिरनेपर जैसा घोर कष्ट पाता है, उससे भी करोड़ गुना कष्ट मुझे है। सैकड़ों अश्वमेधयज्ञ करके अथवा सैकड़ों वर्षांतक गंगास्नान करनेपर भी मेरे घोर पापोंको शुद्धि सम्भव नहीं दीखती। मैं क्या करूँ, कहाँ जाऊँ और किसका आश्रय लूँ? मुझ नरकगामिनीकी इस संसारमें कौन रक्षा करेगा ?॥ ५२-५५॥

त्वमेव मे गुरुब्रहांस्त्वं माता त्वं पितासि च।
उद्धरोद्धर मां दीनां त्वामेव शरणं गताम्‌॥ ५६ ॥

अर्थ: हे ब्रह्मन्‌! आप ही मेरे गुरु हैं, आप ही माता और आप ही पिता हैं । आपकी शरणमें आयी हुई मुझ दीन अबलाका उद्धार कीजिये, उद्धार कोजिये॥ ५६॥

सूत उवाच ( सूतजी बोले )

इति सञ्जातनिर्वेदां पतितां चरणद्वये। 
उत्थाप्य कृपया धीमान्‌ बभाषे ब्राह्मणः स हि ॥ ५७ ॥

अर्थ: हे शौनक! इस प्रकार खेद और वैराग्यसे युक्त हुई चंचुला उस ब्राह्मणके चरणोंमें गिर पड़ी। तब उन बुद्धिमान्‌ ब्राह्मणने कृपापूर्वक उसे उठाकर इस प्रकार कहा॥ ५७॥

इति श्रीस्कान्दे महापुराणे शिवपुराणमाहात्म्ये चङ्टलावैराग्यवर्णनं नाम तृतीयोऽध्यायः ॥ ३ ॥

॥ इस प्रकार श्रीस्कन्दमहापुराणके अन्तर्गत शिवपुराणमाहात्म्यमें चंचुलावेराग्यवर्णन नामक तीसरा अध्याय पूर्ण हुआ॥ ३॥

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