चाणक्य (कौटिल्य) Chanakya

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“क्या कर रहे हो?”

“कुश तो पवित्र हैं, इन पर क्रोध करना अच्छा नहीं।”

“जो कष्ट पहुंचाए, उसे जीने का हक नहीं। उसे नष्ट करना ही पुण्य है।”* “लेकिन कुश तो नष्ट नहीं होते, अवसर पाकर फिर फैल जाते हैं।”

“नहीं! मैं ऐसा नहीं होने दूंगा। इसकी दोबारा होने की सभी संभावनाओं को जलाकर राख कर दूंगा। शत्रु को निर्मूल करने पर विश्वास करता हूं मैं।”

बालक के पैरों में कुश नामक घास चुभी थी। अतः उसने कुश को ही निर्मूल कर दिया। खोद-खोदकर उसकी जड़ों में मठा डालकर बची-खुची छोटी-छोटी जड़ों को भी जला दिया था उसने।

योग्य आचार्य ने बालक में छिपी संभावनाओं को पहचान लिया था। ऐसा आत्मविश्वास और प्रबल इच्छाशक्ति ही व्यक्तित्व को ऊंचाइयों पर पहुंचाती है। ऐसे में यदि जनसंवेदना का पुट मिल जाए, तो व्यक्ति इतिहास पुरुष ही बनता है और ऐसा ही हुआ भी। लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारत के इतिहास को जिस बालक ने एक स्वर्णिम मोड़ दिया, वही बालक बड़ा होकर चाणक्य बना। उसका असली नाम था- विष्णुगुप्त। उसकी कूटनीतिक विलक्षणता की वजह से लोग उसे कौटिल्य भी कहते थे । 350-275 ईसा पूर्व में विष्णुगुप्त मगध साम्राज्य की राजधानी पाटलिपुत्र में रहते थे । उनके पिता चणक एक विद्वान ब्राह्मण थे। स्वयं एक शिक्षक होने के नाते, चणक शिक्षा के महत्व को जानते थे। उन्होंने अपने पुत्र विष्णुगुप्त को कम उम्र में ही उसको शिक्षा देना प्रारम्भ कर दिया था। वे स्वयं विद्वान, कुलीन और स्वाभिमानी ब्राह्मण थे। वो अन्याय या अधार्मिक कर्म को कभी भी सहन नहीं करते थे। स्वाभाविक रूप से उसी वजह से भ्रष्ट और अहंकारी मगध राजा धनानंद उसे पसंद नहीं करते थे। चाणक के परिवार को धनानंद ने कुछ झूठे बातों के कारण प्रताड़ित किया और उसे कारगर में डाल दिया गया जहाँ उसकी मृत्यु हो गई। उसके खिलाफ किसी ने आवाज नहीं उठाई.

पिताकी मृत्यु और उनके साथ हुवा अन्याय विष्णुगुप्त सब देख रहाथा परन्तु इस समय एक युवा लड़का था और वो अभी उनकी जान को भी खतरा था और धनानद को मरने में असक्सम था। वह वापस आकर भ्रष्ट राजा धनानंद अन्याय के खिलाफ लड़ने की शपथ लेकर पाटलिपुत्र छोड़ दिया और विष्णुगुप्त सभी प्रकार की शिक्षा के लिए विश्व प्रसिद्ध विश्वविद्यालय तक्षशिला गए। वहां उन्होंने वेदों और उपनिषदों का अध्ययन किया। उन्हें अर्थशास्त्र और राजनीति में अधिक रुचि थी। उन्होंने इसमें निपुणता प्राप्त की । राजनीति में उनकी कुशाग्रता और चतुराई शुरू से ही दिखाई देती थी । अपने पिता की तरह ही वे अनुशासित, निडर और निर्भिज्ञ थे। अपनी बुद्धिमत्ता और नेतृत्व गुणों के कारण वह अन्य छात्रों और शिक्षकों सहित सभी के प्रिय थे। पढाई पूरी करेने के बाद उन्होंने तक्षशिला विश्वविद्यालय में अध्यापन की शुरुआत की तभी से उन्हें आचार्य चाणक्य के नाम से बुलाया जाता था। कई राजा और अभिजात उनके छात्र थे। उन्होंने न केवल विभिन्न विषयों को पढ़ाया, बल्कि मूल्यों, दृष्टिकोण और के बारे में भी पढ़ाया अपने छात्रों को उन्हों ने अच्छा बनाने के लिए देशभक्ति और जिम्मेदार नागरिक बनाया.

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भारत की महान सभ्यता और संस्कृति.

यह घटना तब की है, जब विश्व के मानचित्र पर कुछ देशों का कहीं कोई अता- पता नहीं था, लेकिन भारत की सभ्यता और संस्कृति अपने पूर्ण यौवन पर थी। धर्म, दर्शन और अध्यात्म की ही नहीं, राजनीति तथा अर्थशास्त्र जैसे विषयों की शिक्षा लेने के लिए भी विदेशों से विद्यार्थी भारत भूमि पर आया करते थे। यहां तक्षशिला और नालंदा जैसे विश्वविद्यालय थे। आचार्य चाणक्य तक्षशिला में राजनीति तथा अर्थशास्त्र के आचार्य थे।

भारत की सीमाएं उस समय अफगानिस्तान से लेकर बर्मा (म्यांमार) तक तथा कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक फैली हुई थीं। उस समय भारत सोने की चिड़िया था। विदेशी आक्रांताओं को भारत की समृद्धि खटक रही थी लेकिन उनमें हिम्मत नहीं थी कि वे हिंदुस्तान के रणबाकुरों का सामना कर सकें। अंततः उन्होंने दान और भेद की नीति का सहारा लेकर मगध के शासक धर्मनंद की कमियों को पहचान लिया और उसे अपने पाश में भी कस लिया था। वर्तमान के पटना तथा तत्कालीन पाटलिपुत्र के आसपास फैला पूर्व उत्तर की सीमाओं को छूता हुआ एक विशाल और शक्तिशाली वैभव संपन्न राज्य था -मगध। मगध के सिंहासन पर आसीन धर्मनंद सुरा-सुंदरी में इतना डूब चुका था कि उसे राजकार्यों को देखने की फुरसत ही नहीं थी। वह अपनी मौजमस्ती के लिए प्रजा पर अत्याचार करता। जो भी आवाज उठाता, उसे मौत के घाट उतार दिया जाता ।

एक-एक करके हुई हृदय विदारक घटनाएं चणक पुत्र चाणक्य के हृदय में फांस की तरह धंसी हुई थीं। एक दिन जब राजसभा में समूचे आर्यावर्त की स्थिति का विवेचन करते हुए चाणक्य ने मगधराज धर्मनंद को उनका कर्तव्य याद दिलाया तो वह झुंझला उठा। उसने चाणक्य को दरबार से धक्के मारकर निकाल फेंकने का आदेश दिया। सैनिकों के चाणक्य को धक्के मारकर दरबार से निकालने की कोशिश के बीच चाणक्य की शिखा खुल गई। यह चाणक्य का ही नहीं, देश की उस आवाज का भी अपमान था, जो अपने राजा के सामने अंधकार में विलीन होते अपने भविष्य को बचाने की गुहार कर रही थी।

चाणक्य की प्रतिज्ञा

उसी समय चाणक्य ने प्रतिज्ञा कर ली-

अब यह शिखा तभी बंधेगी, जब नंदवंश का समूल नाश हो जाएगा।

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अखण्ड भारत के हेतु चाणक्य की खोज शुरु हुई

चाणक्य ने अपने लक्ष्य को पूरा करने के लिए चंद्रगुप्त को चुना। चंद्रगुप्त में छिपी संभावनाओं को चाणक्य ने एक-एक करके तराशा । सोचे हुए कार्य को मूर्त रूप देना चाणक्य के लिए आसान नहीं था। मकदूनियां के छोटे से प्रदेश से ‘सिकंदर’ नामक आंधी की गर्द भारत की सीमाओं पर छाने लगी थी। कंधार के राजकुमार आम्भी ने सिकंदर से गुप्त संधि कर ली थी। पर्वतेश्वर (पोरस) ने सिकंदर की सेनाओं का डटकर सामना किया, लेकिन सिकंदर की रणनीति ने पांसा पलट दिया। सिकंदर की ओर से हुई बाणवर्षा से घबराई पोरस की जुझारू गजसेना ने अपनी ही सेना को रौंदना शुरू कर दिया। पोरस की हार हुई और उसे बंदी बना लिया गया। सिकंदर द्वारा यह पूछने पर कि उसके साथ कैसा व्यवहार किया जाए, पोरस ने निर्भीक होकर कहा कि जैसा एक राजा दूसरे राजा के साथ करता है। सिकंदर ने पोरस को उसकी वीरता से प्रसन्न होकर छोड़ भी दिया। इस पराजय के बाद आचार्य चाणक्य की देखरेख में चंद्रगुप्त अपनी सेना को संगठित करने, उसे तैयार करने और युद्ध की रणनीति बनाने में पूरी तरह से लग गया। भारी-भरकम शस्त्रों, शिरस्त्राणों और कवचों आदि की जगह हल्के, परंतु मजबूत हथियारों ने ली शारीरिक शक्ति के साथ ही बुद्धि-चातुर्य का भी प्रयोग किया गया। चाणक्य की कूटनीति ने इस स्थिति में अमोघ ब्रह्मास्त्र का काम किया। कौटिल्य ने साम, दान, दंड एवं भेद-धारों नीतियों का प्रयोग किया और अपने लक्ष्य को प्राप्त किया। नंदवंश का नाश हुआ। चंद्रगुप्त ने मगध की बागडोर संभाली। सिकंदर के सेनापति सेल्यूकस की बेटी हेलन का चंद्रगुप्त के साथ विवाह हुआ। धर्मनंद का प्रधान अमात्य ‘राक्षस’ चंद्रगुप्त का महाअमात्य बना। एक बार फिर से भारत बिखरते बिखरते बच गया। सिकंदर नाम की आंधी शांत होकर वापस अपने देश चली गई। भारत की गरिमा विश्व के सामने फिर से निखरकर सामने आई। उन्होंने अपने जीवन में बड़े-बड़े काम किए। उसने भ्रष्ट राजा धनानंद को भगा दिया और अपने शिष्य चंद्रगुप्त को राजा बनाया और एक महान और शक्तिशाली साम्राज्य मगध की स्थापना की।

अर्थशास्त्र नामक ग्रंथ की रचना

और चाणक्य ? उसने निर्जन एकांत में राजनीति के पूर्व ग्रंथों का अवगाहन कर उसमें अपने व्यक्तिगत अनुभवों का पुट दिया और अर्थशास्त्र पर एक महत्वपूर्ण ग्रंथ लिखा। ‘कौटिल्य अर्थशास्त्र’ नामक यह ग्रंथ राजा, राजकर्मियों तथा प्रजा के संबंधों और राज्य-व्यवस्था के संदर्भ में अनुकरणीय व्यवस्था देता है। कुछ विद्वानों ने चाणक्य की तुलना मैकियाविली से की है लेकिन भारत के प्रथम प्रधानमंत्री पं. जवाहरलाल नेहरू इस बात से सहमत नहीं थे। उनकी दृष्टि में चाणक्य की महानता के मैकियाविली सामने काफी अदने हैं। चाणक्य एक महान अर्थशास्त्री, राजनीति के वेत्ता तथा कूटनीतिज्ञ होते हुए भी महात्मा थे। वे सभी प्रकार की भौतिक उपाधियों से परे थे। इसी कारण ‘कामंदकीय नीतिसार’ में विष्णुगुप्त के लिए ये पंक्तियां लिखी गई.

नीतिशास्त्रामृतं धीमानर्थशास्त्रमहोदधेः।
समुद्दधे नमस्तस्मै विष्णुगुप्ताय वेवसे ॥६॥

जिसने अर्थशास्त्र रूपी महासमुद्र से नीतिशास्त्र रूपी अमृत का दोहन किया, उस महा बुद्धिमान आचार्य विष्णुगुप्त को मेरा नमन है।’ जनकल्याण के लिए जो भी जहां से मिला, उसे चाणक्य ने लिया और उसके प्रति कृतज्ञता प्रकट की। वे अपने ग्रंथ का शुभारंभ करते हुए शुक्राचार्य और बृहस्पति दोनों को नमन करते हैं। दोनों गुरु हैं। दोनों की अपनी-अपनी विशिष्ट धाराएं हैं। बहोत से इतिहास कारो का मत हें की पंचतंत्र की विश्वप्रसिद्ध कथाए आचार्य चाणक्य ने ही विष्णुगुप्त नाम से लिखी हें.

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