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सोमवार, मार्च 3, 2025

विष्णु सूक्तम्

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Vishnu Suktam in Hindi

विष्णु सूक्तम्(Vishnu Suktam) ऋग्वेद के सप्तम मंडल में स्थित एक प्रमुख सूक्त है। यह सूक्त भगवान विष्णु के गुणों, उनकी शक्ति, उनकी व्यापकता और उनकी कर्तव्यनिष्ठा का वर्णन करता है। विष्णु सूक्तम् में विष्णु को सृष्टि के पालनकर्ता, व्यापक और लोकमंगलकारी देवता के रूप में चित्रित किया गया है। इसका पाठ वेदपाठियों और भक्तों के लिए अत्यंत शुभ और मंगलकारी माना जाता है।

विष्णु सूक्तम् की विशेषताएँ

विष्णु सूक्तम् में मुख्य रूप से भगवान विष्णु की “त्रिविक्रम” स्वरूप की स्तुति की गई है। त्रिविक्रम का अर्थ है तीन लोकों में अपनी महिमा को स्थापित करने वाले। इसमें उनके तीन पवित्र पदों (त्रिपद) का उल्लेख है, जो इस प्रकार हैं:

  1. भौतिक लोक (पृथ्वी)
  2. मध्य लोक (आकाश)
  3. दिव्य लोक (स्वर्ग)

वेदों में विष्णु को “उरुगाय” (विस्तार करने वाले) और “उरुक्रम” (विशाल कदम रखने वाले) के रूप में भी वर्णित किया गया है।

विष्णु सूक्तम् का महत्व Vishnu Suktam Importance

  1. आध्यात्मिक शक्ति का स्रोत: इस सूक्त का पाठ आत्मिक शांति और आंतरिक शक्ति प्रदान करता है।
  2. सृष्टि का संतुलन: विष्णु को पालनकर्ता माना जाता है। उनके सूक्त का पाठ जीवन में संतुलन बनाए रखने में मदद करता है।
  3. त्रिविक्रम स्वरूप की महिमा: विष्णु के त्रिविक्रम रूप में उनके सार्वभौमिक स्वरूप और कर्तव्यनिष्ठा का वर्णन किया गया है।

विष्णु सूक्तम् का उपयोग

विष्णु सूक्तम् का पाठ विशेष रूप से भगवान विष्णु की पूजा और व्रतों के दौरान किया जाता है। इसे संध्या समय में पढ़ना अत्यंत फलदायी माना जाता है। यह न केवल भौतिक समस्याओं का समाधान करता है, बल्कि आत्मा को शुद्धि और शांति प्रदान करता है।

विष्णु सूक्तम् Vishnu Suktam

ॐ-विँष्णो॒र्नुकं॑-वीँ॒र्या॑णि॒ प्रवो॑चं॒ यः पार्थि॑वानि विम॒मे राजाग्ं॑सि॒ यो अस्क॑भाय॒दुत्त॑रग्ं स॒धस्थं॑-विँचक्रमा॒णस्त्रे॒धोरु॑गा॒यः ॥ 1 (तै. सं. 1.2.13.3)
विष्णो॑र॒राट॑मसि॒ विष्णोः᳚ पृ॒ष्ठम॑सि॒ विष्णो॒-श्श्नप्त्रे᳚स्थो॒ विष्णो॒स्स्यूर॑सि॒ विष्णो᳚र्ध्रु॒वम॑सि वैष्ण॒वम॑सि॒ विष्ण॑वे त्वा ॥ 2 (तै. सं. 1.2.13.3)

तद॑स्य प्रि॒यम॒भिपाथो॑ अश्याम् । नरो॒ यत्र॑ देव॒यवो॒ मद॑न्ति । उ॒रु॒क्र॒मस्य॒ स हि बन्धु॑रि॒त्था । विष्णो᳚ प॒दे प॑र॒मे मध्व॒ उथ्सः॑ ॥ 3 (तै. ब्रा. 2.4.6.2)
प्र तद्विष्णु॑-स्स्तवते वी॒र्या॑य । मृ॒गो न भी॒मः कु॑च॒रो गि॑रि॒ष्ठाः । यस्यो॒रुषु॑ त्रि॒षु वि॒क्रम॑णेषु । अधि॑क्ष॒यन्ति॒ भुव॑नानि॒ विश्वा᳚ ॥ 4 (तै. ब्रा. 2.4.3.4)

प॒रो मात्र॑या त॒नुवा॑ वृधान । न ते॑ महि॒त्वमन्व॑श्नुवन्ति । उ॒भे ते॑ विद्म॒ रज॑सी पृथि॒व्या विष्णो॑ देव॒त्वम् । प॒र॒मस्य॑ विथ्से ॥ 5 (तै. ब्रा. 2.8.3.2)

विच॑क्रमे पृथि॒वीमे॒ष ए॒ताम् । क्षेत्रा॑य॒ विष्णु॒र्मनु॑षे दश॒स्यन्न् । ध्रु॒वासो॑ अस्य की॒रयो॒ जना॑सः । ऊ॒रु॒क्षि॒तिग्ं सु॒जनि॑माचकार ॥ 6 (तै. ब्रा. 2.4.3.5)
त्रिर्दे॒वः पृ॑थि॒वीमे॒ष ए॒ताम् । विच॑क्रमे श॒तर्च॑स-म्महि॒त्वा । प्र विष्णु॑रस्तु त॒वस॒स्तवी॑यान् । त्वे॒षग्ग् ह्य॑स्य॒ स्थवि॑रस्य॒ नाम॑ ॥ 7 (तै. ब्रा. 2.4.3.5)

अतो॑ दे॒वा अ॑वन्तु नो॒ यतो॒ विष्णु॑र्विचक्र॒मे । पृ॒थि॒व्या-स्स॒प्तधाम॑भिः । इ॒दं-विँष्णु॒र्विच॑क्रमे त्रे॒धा निद॑धे प॒दम् । समू॑ढमस्य पाग्ं सु॒रे ॥ त्रीणि॑ प॒दा विच॑क्रमे॒ विष्णु॑र्गो॒पा अदा᳚भ्यः । ततो॒ धर्मा॑णि धा॒रयन्॑ । विष्णोः॒ कर्मा॑णि पश्यत॒ यतो᳚ व्र॒तानि॑ पस्प॒शे । इन्द्र॑स्य॒ युज्य॒स्सखा᳚ ॥

तद्विष्णोः᳚ पर॒म-म्प॒दग्ं सदा॑ पश्यन्ति सू॒रयः॑ । दि॒वीव॒ चक्षु॒रात॑तम् । तद्विप्रा॑सो विप॒न्यवो॑ जागृ॒वाग्ं स॒स्समिं॑धते । विष्णो॒र्यत्प॑र॒म-म्प॒दम् । पर्या᳚प्त्या॒ अनं॑तरायाय॒ सर्व॑स्तोमो-ऽति रा॒त्र उ॑त्त॒म मह॑र्भवति सर्व॒स्याप्त्यै॒ सर्व॑स्य॒ जित्त्यै॒ सर्व॑मे॒व तेना᳚प्नोति॒ सर्वं॑ जयति ॥

ॐ शान्ति॒-श्शान्ति॒-श्शान्तिः॑ ॥

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