Sindhu Stotram In Hindi
सिन्धु स्तोत्रम्(Sindhu Stotram) एक अद्भुत संस्कृत स्तोत्र है, जो समुद्र (सिन्धु) के महत्त्व, महिमा और उसकी दिव्य शक्तियों का गुणगान करता है। हिंदू धर्म में समुद्र को समृद्धि, शक्ति, अनंतता और दिव्य ज्ञान का प्रतीक माना जाता है। यह स्तोत्र समुद्र देवता की स्तुति और प्रार्थना के रूप में प्रयोग किया जाता है, जिससे जीवन में सकारात्मक ऊर्जा, समृद्धि और शांति प्राप्त होती है।
सिन्धु स्तोत्रम् का महत्व
- समुद्र देवता की स्तुति – इस स्तोत्र में सिन्धु (समुद्र) की गौरवशाली और दिव्य विशेषताओं का वर्णन किया गया है।
- समृद्धि और वैभव का प्रतीक – समुद्र धन, रत्न, मोती और अनमोल खजानों का भंडार है, इसलिए इसे समृद्धि का देवता माना जाता है।
- शुद्धि और शक्ति – समुद्र का जल पवित्र होता है और उसमें स्नान करने से शरीर और आत्मा की शुद्धि होती है।
- संतुलन और धैर्य – समुद्र की विशालता धैर्य, संतुलन और असीम शक्ति का प्रतीक है, जो हमें जीवन में धैर्य रखने की प्रेरणा देता है।
- वेदों और पुराणों में महिमा – हिंदू ग्रंथों जैसे कि रामायण, महाभारत और भागवत पुराण में समुद्र की महिमा का विस्तार से उल्लेख किया गया है।
सिन्धु स्तोत्रम् का पाठ करने के लाभ
- धन, समृद्धि और सुख-शांति प्राप्त होती है।
- जल तत्व से संबंधित दोषों और नकारात्मक ऊर्जा से रक्षा होती है।
- जीवन में संतुलन, धैर्य और आत्मविश्वास बढ़ता है।
- समुद्र देवता (वरुण देव) की कृपा से मानसिक शांति प्राप्त होती है।
- वास्तु दोष और ग्रह दोष का निवारण होता है।
सिन्धु स्तोत्रम् का पाठ करने की विधि
- प्रातःकाल या संध्या समय, स्नान के बाद शुद्ध मन से पाठ करें।
- यदि संभव हो तो समुद्र तट पर या किसी जल स्रोत (नदी, झील, कुएँ) के पास इसका उच्चारण करें।
- सोमवार या पूर्णिमा के दिन पाठ करने से विशेष फल प्राप्त होता है।
- पाठ के समय जल से भरा पात्र सामने रखकर, अंत में उसे पी लेना लाभकारी होता है।
Sindhu Stotram
भारतस्थे दयाशीले हिमालयमहीध्रजे|
वेदवर्णितदिव्याङ्गे सिन्धो मां पाहि पावने|
नमो दुःखार्तिहारिण्यै स्नातपापविनाशिनि|
वन्द्यपादे नदीश्रेष्ठे सिन्धो मां पाहि पावने|
पुण्यवर्धिनि देवेशि स्वर्गसौख्यफलप्रदे|
रत्नगर्भे सदा देवि सिन्धो मां पाहि पावने|
कलौ मलौघसंहारे पञ्चपातकनाशिनि|
मुनिस्नाते महेशानि सिन्धो मां पाहि पावने|
अहो तव जलं दिव्यममृतेन समं शुभे|
तस्मिन् स्नातान् सुरैस्तुल्यान् पाहि सिन्धो जनान् सदा|
सिन्धुनद्याः स्तुतिं चैनां यो नरो विधिवत् पठेत्|
सिन्धुस्नानफलं प्राप्नोत्यायुरारोग्यमेव च|