Shiv Kavach
शिव कवचम्(Shiv Kavach) भगवान शिव की कृपा और सुरक्षा प्राप्त करने के लिए एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है। यह एक दिव्य कवच है, जो भक्तों को नकारात्मक शक्तियों, भय और कष्टों से रक्षा करता है। यह कवच शिव पुराण और अन्य तांत्रिक ग्रंथों में उल्लिखित है और इसका नियमित पाठ करने से साधक को अपार आध्यात्मिक और भौतिक लाभ प्राप्त होते हैं।
शिव कवचम् का महत्व
शिव कवचम् का पाठ करने से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और जीवन में आने वाली सभी बाधाओं से रक्षा मिलती है। यह कवच विशेष रूप से उन लोगों के लिए अत्यंत लाभकारी है, जो आध्यात्मिक साधना कर रहे हैं या अपने जीवन में मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक समस्याओं से जूझ रहे हैं।
इस कवच के माध्यम से भगवान शिव की ऊर्जा चारों ओर एक सुरक्षा कवच का निर्माण करती है, जिससे नकारात्मक ऊर्जाएं, भय, शत्रु बाधाएं और अनिष्ट प्रभाव दूर रहते हैं। यह साधक को आत्मिक शांति, बल, बुद्धि, साहस और सफलता प्रदान करता है।
शिव कवचम् का पाठ करने के लाभ
- सुरक्षा कवच: शिव कवच का नियमित पाठ करने से व्यक्ति चारों ओर से सुरक्षा कवच में घिर जाता है, जिससे नकारात्मक ऊर्जाएं और बुरी शक्तियाँ पास नहीं आतीं।
- शत्रु बाधा से मुक्ति: जो लोग शत्रु बाधा, कोर्ट-कचहरी के मामलों या शारीरिक कष्टों से परेशान हैं, उनके लिए यह कवच बहुत प्रभावी होता है।
- मानसिक शांति और शक्ति: यह कवच मानसिक शांति प्रदान करता है और जीवन के कठिन समय में साहस बनाए रखने में मदद करता है।
- आध्यात्मिक उन्नति: जो लोग साधना में लगे हैं, उनके लिए यह कवच एक सुरक्षा कवच की तरह काम करता है और उनकी साधना को सिद्ध करने में मदद करता है।
- सकारात्मक ऊर्जा: घर, कार्यस्थल और जीवन में सकारात्मक ऊर्जा को बढ़ाता है और नकारात्मकता को दूर करता है।
- स्वास्थ्य लाभ: यह कवच शारीरिक और मानसिक स्वास्थ्य को संतुलित करने में सहायक है और बीमारियों से रक्षा करता है।
शिव कवचम् का पाठ करने की विधि
- स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
- शिवलिंग के समक्ष दीप जलाएं और भगवान शिव की आराधना करें।
- कुश के आसन पर बैठकर एकाग्र चित्त से पाठ करें।
- रुद्राक्ष की माला से 11, 21 या 108 बार जाप करें।
- सोमवार, प्रदोष व्रत और महाशिवरात्रि पर विशेष रूप से पाठ करें।
- पाठ के बाद भगवान शिव का ध्यान करें और आशीर्वाद प्राप्त करें।
Shiv Kavach
अथ शिवकचम्
अस्य श्री शिवकवच स्तोत्र महामंत्रस्य ।
ऋषभ-योगीश्वर ऋषिः ।
अनुष्टुप् छंदः ।
श्री-सांबसदाशिवो देवता ।
ॐ बीजम् ।
नमः शक्तिः ।
शिवायेति कीलकम् ।
सांबसदाशिवप्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ॥
करन्यासः
ॐ सदाशिवाय अंगुष्ठाभ्यां नमः ।
नं गंगाधराय तर्जनीभ्यां नमः ।
मं मृत्युंजयाय मध्यमाभ्यां नमः ।
शिं शूलपाणये अनामिकाभ्यां नमः ।
वां पिनाकपाणये कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।
यं उमापतये करतलकरपृष्ठाभ्यां नमः ।
हृदयादि अंगन्यासः
ॐ सदाशिवाय हृदयाय नमः ।
नं गंगाधराय शिरसे स्वाहा ।
मं मृत्युंजयाय शिखायै वषट् ।
शिं शूलपाणये कवचाय हुम् ।
वां पिनाकपाणये नेत्रत्रयाय वौषट् ।
यं उमापतये अस्त्राय फट् ।
भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्बंधः ॥
ध्यानम्
वज्रदंष्ट्रं त्रिनयनं कालकंठ मरिंदमम् ।
सहस्रकर-मत्युग्रं वंदे शंभुं उमापतिम् ॥
रुद्राक्ष-कंकण-लसत्कर-दंडयुग्मः पालांतरा-लसित-भस्मधृत-त्रिपुंड्रः ।
पंचाक्षरं परिपठन् वरमंत्रराजं ध्यायन् सदा पशुपतिं शरणं व्रजेथाः ॥
अतः परं सर्वपुराण-गुह्यं निःशेष-पापौघहरं पवित्रम् ।
जयप्रदं सर्व-विपत्प्रमोचनं वक्ष्यामि शैवं कवचं हिताय ते ॥
पंचपूजा
लं पृथिव्यात्मने गंधं समर्पयामि ।
हं आकाशात्मने पुष्पैः पूजयामि ।
यं वाय्वात्मने धूपं आघ्रापयामि ।
रं अग्न्यात्मने दीपं दर्शयामि ।
वं अमृतात्मने अमृतं महा-नैवेद्यं निवेदयामि ।
सं सर्वात्मने सर्वोपचार-पूजां समर्पयामि ॥
मंत्रः
ऋषभ उवाच ।
नमस्कृत्य महादेवं विश्व-व्यापिन-मीश्वरम् ।
वक्ष्ये शिवमयं वर्म सर्वरक्षाकरं नृणाम् ॥ 1 ॥
शुचौ देशे समासीनो यथावत्कल्पितासनः ।
जितेंद्रियो जितप्राण-श्चिंतयेच्छिवमव्ययम् ॥ 2 ॥
हृत्पुंडरीकांतरसन्निविष्टं
स्वतेजसा व्याप्त-नभोऽवकाशम् ।
अतींद्रियं सूक्ष्ममनंतमाद्यं
ध्यायेत्परानंदमयं महेशम् ॥ 3 ॥
ध्यानावधूताखिलकर्मबंध-
-श्चिरं चिदानंदनिमग्नचेताः ।
षडक्षरन्याससमाहितात्मा
शैवेन कुर्यात्कवचेन रक्षाम् ॥ 4 ॥
मां पातु देवोऽखिलदेवतात्मा
संसारकूपे पतितं गभीरे ।
तन्नाम दिव्यं वरमंत्रमूलं
धुनोतु मे सर्वमघं हृदिस्थम् ॥ 5 ॥
सर्वत्र मां रक्षतु विश्वमूर्ति-
-र्ज्योति-र्मयानंदघनश्चिदात्मा ।
अणोरणीयानुरुशक्तिरेकः
स ईश्वरः पातु भयादशेषात् ॥ 6 ॥
यो भूस्वरूपेण बिभर्ति विश्वं
पायात्स भूमेर्गिरिशोऽष्टमूर्तिः ।
योऽपां स्वरूपेण नृणां करोति
संजीवनं सोऽवतु मां जलेभ्यः ॥ 7 ॥
कल्पावसाने भुवनानि दग्ध्वा
सर्वाणि यो नृत्यति भूरिलीलः ।
स कालरुद्रोऽवतु मां दवाग्ने-
-र्वात्यादिभीते-रखिलाच्च तापात् ॥ 8 ॥
प्रदीप्त-विद्युत्कनकावभासो
विद्यावराभीति-कुठारपाणिः ।
चतुर्मुखस्तत्पुरुषस्त्रिनेत्रः
प्राच्यां स्थितो रक्षतु मामजस्रम् ॥ 9 ॥
कुठार खेटांकुशपाशशूल
कपालपाशाक्ष गुणांदधानः ।
चतुर्मुखो नील-रुचिस्त्रिनेत्रः
पायादघोरो दिशि दक्षिणस्याम् ॥ 10 ॥
कुंदेंदु-शंख-स्फटिकावभासो
वेदाक्षमाला-वरदाभयांकः ।
त्र्यक्षश्चतुर्वक्त्र उरुप्रभावः
सद्योऽधिजातोऽवतु मां प्रतीच्याम् ॥ 11 ॥
वराक्ष-मालाभयटंक-हस्तः
सरोज-किंजल्कसमानवर्णः ।
त्रिलोचन-श्चारुचतुर्मुखो मां
पायादुदीच्यां दिशि वामदेवः ॥ 12 ॥
वेदाभयेष्टांकुशटंकपाश-
-कपालढक्काक्षर-शूलपाणिः ।
सितद्युतिः पंचमुखोऽवतान्मा-
-मीशान ऊर्ध्वं परमप्रकाशः ॥ 13 ॥
मूर्धानमव्यान्मम चंद्रमौलिः
फालं ममाव्यादथ फालनेत्रः ।
नेत्रे ममाव्याद्भगनेत्रहारी
नासां सदा रक्षतु विश्वनाथः ॥ 14 ॥
पायाच्छ्रुती मे श्रुतिगीतकीर्तिः
कपोलमव्यात्सततं कपाली ।
वक्त्रं सदा रक्षतु पंचवक्त्रो
जिह्वां सदा रक्षतु वेदजिह्वः ॥ 15 ॥
कंठं गिरीशोऽवतु नीलकंठः
पाणिद्वयं पातु पिनाकपाणिः ।
दोर्मूलमव्यान्मम धर्मबाहुः
वक्षःस्थलं दक्षमखांतकोऽव्यात् ॥ 16 ॥
ममोदरं पातु गिरींद्रधन्वा
मध्यं ममाव्यान्मदनांतकारी ।
हेरंबतातो मम पातु नाभिं
पायात्कटिं धूर्जटिरीश्वरो मे ॥ 17 ॥
[स्मरारि-रव्यान्मम गुह्यदेशम्
पृष्टं सदा रक्षतु पार्वतीशः ।]
ऊरुद्वयं पातु कुबेरमित्रो
जानुद्वयं मे जगदीश्वरोऽव्यात् ।
जंघायुगं पुंगवकेतुरव्या-
-त्पादौ ममाव्यात्सुरवंद्यपादः ॥ 18 ॥
महेश्वरः पातु दिनादियामे
मां मध्ययामेऽवतु वामदेवः ।
त्रिलोचनः पातु तृतीययामे
वृषध्वजः पातु दिनांत्ययामे ॥ 19 ॥
पायान्निशादौ शशिशेखरो मां
गंगाधरो रक्षतु मां निशीथे ।
गौरीपतिः पातु निशावसाने
मृत्युंजयो रक्षतु सर्वकालम् ॥ 20 ॥
अंतःस्थितं रक्षतु शंकरो मां
स्थाणुः सदा पातु बहिःस्थितं माम् ।
तदंतरे पातु पतिः पशूनां
सदाशिवो रक्षतु मां समंतात् ॥ 21 ॥
तिष्ठंत-मव्याद्भुवनैकनाथः
पायाद्व्रजंतं प्रमथाधिनाथः ।
वेदांतवेद्योऽवतु मां निषण्णं
मामव्ययः पातु शिवः शयानम् ॥ 22 ॥
मार्गेषु मां रक्षतु नीलकंठः
शैलादि-दुर्गेषु पुरत्रयारिः ।
अरण्यवासादि-महाप्रवासे
पायान्मृगव्याध उदारशक्तिः ॥ 23 ॥
कल्पांत-कालोग्र-पटुप्रकोपः [कटोप]
स्फुटाट्ट-हासोच्चलितांड-कोशः ।
घोरारि-सेनार्णवदुर्निवार-
-महाभयाद्रक्षतु वीरभद्रः ॥ 24 ॥
पत्त्यश्वमातंग-रथावरूधिनी- [घटावरूथ]
-सहस्र-लक्षायुत-कोटिभीषणम् ।
अक्षौहिणीनां शतमाततायिनां
छिंद्यान्मृडो घोरकुठारधारया ॥ 25 ॥
निहंतु दस्यून्प्रलयानलार्चि-
-र्ज्वलत्त्रिशूलं त्रिपुरांतकस्य ।
शार्दूल-सिंहर्क्षवृकादि-हिंस्रान्
संत्रासयत्वीश-धनुः पिनाकः ॥ 26 ॥
दुस्स्वप्न दुश्शकुन दुर्गति दौर्मनस्य
दुर्भिक्ष दुर्व्यसन दुस्सह दुर्यशांसि ।
उत्पात-ताप-विषभीति-मसद्ग्रहार्तिं
व्याधींश्च नाशयतु मे जगतामधीशः ॥ 27 ॥
ॐ नमो भगवते सदाशिवाय
सकल-तत्त्वात्मकाय
सर्व-मंत्र-स्वरूपाय
सर्व-यंत्राधिष्ठिताय
सर्व-तंत्र-स्वरूपाय
सर्व-तत्त्व-विदूराय
ब्रह्म-रुद्रावतारिणे-नीलकंठाय
पार्वतीमनोहरप्रियाय
सोम-सूर्याग्नि-लोचनाय
भस्मोद्धूलित-विग्रहाय
महामणि-मुकुट-धारणाय
माणिक्य-भूषणाय
सृष्टिस्थिति-प्रलयकाल-रौद्रावताराय
दक्षाध्वर-ध्वंसकाय
महाकाल-भेदनाय
मूलधारैक-निलयाय
तत्वातीताय
गंगाधराय
सर्व-देवादि-देवाय
षडाश्रयाय
वेदांत-साराय
त्रिवर्ग-साधनाय
अनंतकोटि-ब्रह्मांड-नायकाय
अनंत-वासुकि-तक्षक-कर्कोटक-शंख-कुलिक-पद्म-महापद्मेति-अष्ट-महा-नाग-कुलभूषणाय
प्रणवस्वरूपाय
चिदाकाशाय
आकाश-दिक्-स्वरूपाय
ग्रह-नक्षत्र-मालिने
सकलाय
कलंक-रहिताय
सकल-लोकैक-कर्त्रे
सकल-लोकैक-भर्त्रे
सकल-लोकैक-संहर्त्रे
सकल-लोकैक-गुरवे
सकल-लोकैक-साक्षिणे
सकल-निगमगुह्याय
सकल-वेदांत-पारगाय
सकल-लोकैक-वरप्रदाय
सकल-लोकैक-शंकराय
सकल-दुरितार्ति-भंजनाय
सकल-जगदभयंकराय
शशांक-शेखराय
शाश्वत-निजावासाय
निराकाराय
निराभासाय
निरामयाय
निर्मलाय
निर्लोभाय
निर्मदाय
निश्चिंताय
निरहंकाराय
निरंकुशाय
निष्कलंकाय
निर्गुणाय
निष्कामाय
निरूपप्लवाय
निरवध्यया
निरंतराय
निरुपद्रवाय
निरवद्याय
निरंतराय
निष्कारणाय
निरातंकाय
निष्प्रपंचाय
निस्संगाय
निर्द्वंद्वाय
निराधाराय
नीरागाय
निश्क्रॊधय
निर्लॊभय
निष्पापाय
निर्विकल्पाय
निर्भेदाय
निष्क्रियाय
निस्तुलाय
निश्शंशयाय
निरंजनाय
निरुपमविभवाय
नित्यशुद्धबुद्धमुक्तपरिपूर्ण-सच्चिदानंदाद्वयाय
परमशांतस्वरूपाय
परमशांतप्रकाशाय
तेजोरूपाय
तेजोमयाय
तेजोऽधिपतये
जय जय रुद्र महारुद्र
महा-रौद्र
भद्रावतार
महा-भैरव
काल-भैरव
कल्पांत-भैरव
कपाल-मालाधर
खट्वांग-चर्म-खड्ग-धर
पाशांकुश-डमरूशूल-चाप-बाण-गदा-शक्ति-भिंदि-
पाल-तोमर-मुसल-भुशुंडी-मुद्गर-पाश-परिघ-शतघ्नी-चक्राद्यायुध-भीषणाकार
सहस्र-मुख
दंष्ट्राकराल-वदन
विकटाट्टहास
विस्फातित-ब्रह्मांड-मंडल-नागेंद्रकुंडल
नागेंद्रहार
नागेंद्रवलय
नागेंद्रचर्मधर
नागेंद्रनिकेतन
मृत्युंजय
त्र्यंबक
त्रिपुरांतक
विश्वरूप
विरूपाक्ष
विश्वेश्वर
वृषभवाहन
विषविभूषण
विश्वतोमुख
सर्वतोमुख
मां रक्ष रक्ष
ज्वल ज्वल
प्रज्वल प्रज्वल
महामृत्युभयं शमय शमय
अपमृत्युभयं नाशय नाशय
रोगभयं उत्सादय उत्सादय
विषसर्पभयं शमय शमय
चोरान् मारय मारय
मम शत्रून् उच्चाटय उच्चाटय
त्रिशूलेन विदारय विदारय
कुठारेण भिंधि भिंधि
खड्गेन छिंद्दि छिंद्दि
खट्वांगेन विपोधय विपोधय
मम पापं शोधय शोधय
मुसलेन निष्पेषय निष्पेषय
बाणैः संताडय संताडय
यक्ष रक्षांसि भीषय भीषय
अशेष भूतान् विद्रावय विद्रावय
कूष्मांड-भूत-बेताल-मारीगण-ब्रह्मराक्षसगणान् संत्रासय संत्रासय
मम अभयं कुरु कुरु
[मम पापं शोधय शोधय]
नरक-महाभयान् मां उद्धर उद्धर
वित्रस्तं मां आश्वासय आश्वासय
अमृत-कटाक्ष-वीक्षणेन मां आलोकय आलोकय
संजीवय संजीवय
क्षुत्तृष्णार्तं मां आप्यायय आप्यायय
दुःखातुरं मां आनंदय आनंदय
शिवकवचेन मां आच्छादय आच्छादय
हर हर
हर हर
मृत्युंजय
त्र्यंबक
सदाशिव
परमशिव
नमस्ते नमस्ते नमस्ते नमः ॥
पूर्ववत् – हृदयादि न्यासः ।
पंचपूजा ॥
भूर्भुवस्सुवरोमिति दिग्विमोकः ॥
फलश्रुतिः
ऋषभ उवाच ।
इत्येतत्कवचं शैवं वरदं व्याहृतं मया ।
सर्व-बाधा-प्रशमनं रहस्यं सर्वदेहिनाम् ॥ 1 ॥
यः सदा धारयेन्मर्त्यः शैवं कवचमुत्तमम् ।
न तस्य जायते क्वापि भयं शंभोरनुग्रहात् ॥ 2 ॥
क्षीणायु-र्मृत्युमापन्नो महारोगहतोऽपि वा ।
सद्यः सुखमवाप्नोति दीर्घमायुश्च विंदति ॥ 3 ॥
सर्वदारिद्र्यशमनं सौमांगल्य-विवर्धनम् ।
यो धत्ते कवचं शैवं स देवैरपि पूज्यते ॥ 4 ॥
महापातक-संघातैर्मुच्यते चोपपातकैः ।
देहांते शिवमाप्नोति शिव-वर्मानुभावतः ॥ 5 ॥
त्वमपि श्रद्धया वत्स शैवं कवचमुत्तमम् ।
धारयस्व मया दत्तं सद्यः श्रेयो ह्यवाप्स्यसि ॥ 6 ॥
सूत उवाच ।
इत्युक्त्वा ऋषभो योगी तस्मै पार्थिव-सूनवे ।
ददौ शंखं महारावं खड्गं चारिनिषूदनम् ॥ 7 ॥
पुनश्च भस्म संमंत्र्य तदंगं सर्वतोऽस्पृशत् ।
गजानां षट्सहस्रस्य द्विगुणं च बलं ददौ ॥ 8 ॥
भस्मप्रभावात्संप्राप्य बलैश्वर्यधृतिस्मृतिः ।
स राजपुत्रः शुशुभे शरदर्क इव श्रिया ॥ 9 ॥
तमाह प्रांजलिं भूयः स योगी राजनंदनम् ।
एष खड्गो मया दत्तस्तपोमंत्रानुभावतः ॥ 10 ॥
शितधारमिमं खड्गं यस्मै दर्शयसि स्फुटम् ।
स सद्यो म्रियते शत्रुः साक्षान्मृत्युरपि स्वयम् ॥ 11 ॥
अस्य शंखस्य निह्रादं ये शृण्वंति तवाहिताः ।
ते मूर्छिताः पतिष्यंति न्यस्तशस्त्रा विचेतनाः ॥ 12 ॥
खड्गशंखाविमौ दिव्यौ परसैन्यविनाशिनौ ।
आत्मसैन्यस्वपक्षाणां शौर्यतेजोविवर्धनौ ॥ 13 ॥
एतयोश्च प्रभावेन शैवेन कवचेन च ।
द्विषट्सहस्रनागानां बलेन महतापि च ॥ 14 ॥
भस्मधारणसामर्थ्याच्छत्रुसैन्यं विजेष्यसि ।
प्राप्य सिंहासनं पैत्र्यं गोप्तासि पृथिवीमिमाम् ॥ 15 ॥
इति भद्रायुषं सम्यगनुशास्य समातृकम् ।
ताभ्यां संपूजितः सोऽथ योगी स्वैरगतिर्ययौ ॥ 16 ॥
इति श्रीस्कांदमहापुराणे ब्रह्मोत्तरखंडे शिवकवच प्रभाव वर्णनं नाम द्वादशोऽध्यायः संपूर्णः ॥
शिव कवचम् भगवान शिव की असीम कृपा प्राप्त करने का एक दिव्य साधन है। यह न केवल शारीरिक और मानसिक रूप से सुरक्षा प्रदान करता है, बल्कि साधक के आध्यात्मिक उत्थान में भी सहायक होता है। जो भी श्रद्धा और विश्वास से इसका नियमित पाठ करता है, उसे जीवन में सफलता, शांति और समृद्धि प्राप्त होती है।