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मंगलवार, फ़रवरी 4, 2025

सरस्वती सूक्तम्

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Saraswati Suktam in Hindi

सरस्वती सूक्तम्(Saraswati Suktam) ऋग्वेद का एक महत्वपूर्ण भाग है, जिसमें देवी सरस्वती की महिमा और उनका स्तवन किया गया है। सरस्वती भारतीय संस्कृति और वैदिक परंपरा में ज्ञान, वाणी, संगीत और कला की देवी मानी जाती हैं। उनका स्वरूप ज्ञान और विद्या का प्रतीक है। यह सूक्तम् ऋग्वेद के पहले मंडल में सम्मिलित है और इसे ऋषि अत्रि के द्वारा रचा गया माना जाता है।

सरस्वती सूक्तम् का महत्व Saraswati Suktam Importance

  1. ज्ञान और विद्या का स्त्रोत: सरस्वती सूक्तम् का पाठ करते समय व्यक्ति को अद्वितीय ज्ञान और आंतरिक प्रज्ञा की प्राप्ति होती है। इसे पढ़ने और समझने से मानसिक शांति और आत्मिक उन्नति होती है।
  2. सांस्कृतिक महत्व: देवी सरस्वती भारतीय संस्कृति और परंपरा में विद्या, वाणी और कला की अधिष्ठात्री देवी मानी जाती हैं। सरस्वती सूक्तम् का नियमित पाठ करने से वाणी में मधुरता और विद्या में निखार आता है।
  3. यज्ञ और अनुष्ठान: वैदिक काल से ही सरस्वती सूक्तम् का उपयोग यज्ञ, पूजा और धार्मिक अनुष्ठानों में होता आया है। इसे विशेष रूप से वसंत पंचमी के अवसर पर पढ़ा जाता है, जब देवी सरस्वती की पूजा की जाती है।

सरस्वती सूक्तम् के लाभ Saraswati Suktam Benifits

  1. बौद्धिक विकास: इस सूक्त का पाठ करने से स्मरणशक्ति और बौद्धिक क्षमता में वृद्धि होती है।
  2. मानसिक शांति: सरस्वती सूक्तम् के मंत्र ध्यान और योग के लिए आदर्श माने जाते हैं।
  3. कलात्मक अभिव्यक्ति: जो लोग कला, संगीत, लेखन और वाणी के क्षेत्र में कार्यरत हैं, उनके लिए यह अत्यंत फलदायक है।
  4. शिक्षार्थियों के लिए लाभकारी: छात्र-छात्राओं को विशेष रूप से इस सूक्त का पाठ करने की सलाह दी जाती है, ताकि उनकी पढ़ाई में एकाग्रता और सफलता प्राप्त हो।

पाठ विधि और सरस्वती मंत्र जप

  • सरस्वती सूक्तम् का पाठ प्रातःकाल स्नान के बाद शुद्ध मन और पवित्र वातावरण में करना चाहिए।
  • ध्यान के समय देवी सरस्वती के श्वेत वस्त्र धारण किए हुए और वीणा धारण किए हुए स्वरूप की कल्पना करनी चाहिए।
  • सरस्वती बीज मंत्र “ॐ ऐं सरस्वत्यै नमः” का जप भी साथ में किया जा सकता है।

सरस्वती सूक्तम् Saraswati Suktam

-(ऋ.वे.६.६१)
इ॒यम्॑ददाद्रभ॒समृ॑ण॒च्युत॒-न्दिवो᳚दासं-वँद्र्य॒श्वाय॑ दा॒शुषे᳚ ।
या शश्व᳚न्तमाच॒खशदा᳚व॒स-म्प॒णि-न्ता ते᳚ दा॒त्राणि॑ तवि॒षा स॑रस्वति ॥ १ ॥

इ॒यं शुष्मे᳚भिर्बिस॒खा इ॑वारुज॒त्सानु॑ गिरी॒णा-न्त॑वि॒षेभि॑रू॒र्मिभिः॑ ।
पा॒रा॒व॒त॒घ्नीमव॑से सुवृ॒क्तिभि॑स्सर॑स्वती॒ मा वि॑वासेम धी॒तिभिः॑ ॥ २ ॥

सर॑स्वति देव॒निदो॒ नि ब॑र्​हय प्र॒जां-विँश्व॑स्य॒ बृस॑यस्य मा॒यिनः॑ ।
उ॒त क्षि॒तिभ्यो॒-ऽवनी᳚रविन्दो वि॒षमे᳚भ्यो अस्रवो वाजिनीवति ॥ ३ ॥

प्रणो᳚ दे॒वी सर॑स्वती॒ वाजे᳚भिर्वा॒जिनी᳚वती ।
धी॒नाम॑वि॒त्र्य॑वतु ॥ ४ ॥

यस्त्वा᳚ देवि सरस्वत्युपब्रू॒ते धने᳚ हि॒ते ।
इन्द्र॒-न्न वृ॑त्र॒तूर्ये᳚ ॥ ५ ॥

त्व-न्दे᳚वि सरस्व॒त्यवा॒ वाजे᳚षु वाजिनि ।
रदा᳚ पू॒षेव॑ न-स्स॒निम् ॥ ६ ॥

उ॒त स्या न॒-स्सर॑स्वती घो॒रा हिर᳚ण्यवर्तनिः ।
वृ॒त्र॒घ्नी व॑ष्टि सुष्टु॒तिम् ॥ ७ ॥

यस्या᳚ अन॒न्तो अह्रु॑तस्त्वे॒षश्च॑रि॒ष्णुर᳚र्ण॒वः ।
अम॒श्चर॑ति॒ रोरु॑वत् ॥ ८ ॥

सा नो॒ विश्वा॒ अति॒ द्विष॒-स्स्वसॄ᳚र॒न्या ऋ॒ताव॑री ।
अत॒न्नहे᳚व॒ सूर्यः॑ ॥ ९ ॥

उ॒त नः॑ प्रि॒या प्रि॒यासु॑ स॒प्तस्व॑सा॒ सुजु॑ष्टा ।
सर॑स्वती॒ स्तोम्या᳚ भूत् ॥ १० ॥

आ॒प॒प्रुषी॒ पार्थि॑वान्यु॒रु रजो᳚ अ॒न्तरि॑क्षम् ।
सर॑स्वती नि॒दस्पा᳚तु ॥ ११ ॥

त्रि॒ष॒धस्था᳚ स॒प्तधा᳚तुः॒ पञ्च॑ जा॒ता व॒र्धय᳚न्ती ।
वाजे᳚वाजे॒ हव्या᳚ भूत् ॥ १२ ॥

प्र या म॑हि॒म्ना म॒हिना᳚सु॒ चेकि॑ते द्यु॒म्नेभि॑र॒न्या अ॒पसा᳚म॒पस्त॑मा ।
रथ॑ इव बृह॒ती वि॒भ्वने᳚ कृ॒तोप॒स्तुत्या᳚ चिकि॒तुषा॒ सर॑स्वती ॥ १३ ॥

सर॑स्वत्य॒भि नो᳚ नेषि॒ वस्यो॒ माप॑ स्फरीः॒ पय॑सा॒ मा न॒ आ ध॑क् ।
जु॒षस्व॑ न-स्स॒ख्या वे॒श्या᳚ च॒ मा त्व-त्क्षेत्रा॒ण्यर॑णानि गन्म ॥ १४ ॥

–(ऋ.वे.७.९५)
प्र क्षोद॑सा॒ धाय॑सा सस्र ए॒षा सर॑स्वती ध॒रुण॒माय॑सी॒ पूः ।
प्र॒बाब॑धाना र॒थ्ये᳚व याति॒ विश्वा᳚ अ॒पो म॑हि॒ना सिन्धु॑र॒न्याः ॥ १५ ॥

एका᳚चेत॒त्सर॑स्वती न॒दीनां॒ शुचि᳚र्य॒ती गि॒रिभ्य॒ आ स॑मु॒द्रात् ।
रा॒यश्चेत᳚न्ती॒ भुव॑नस्य॒ भूरे᳚र्घृ॒त-म्पयो᳚ दुदुहे॒ नाहु॑षाय ॥ १६ ॥

स वा᳚वृधे॒ नर्यो॒ योष॑णासु॒ वृषा॒ शिशु᳚र्वृष॒भो य॒ज्ञिया᳚सु ।
स वा॒जिन᳚-म्म॒घव॑द्भ्यो दधाति॒ वि सा॒तये᳚ त॒न्व᳚-म्मामृजीत ॥ १७ ॥

उ॒त स्या न॒-स्सर॑स्वती जुषा॒णोप॑ श्रवत्सु॒भगा᳚ य॒ज्ञे अ॒स्मिन्न् ।
मि॒तज्ञु॑भिर्नम॒स्यै᳚रिया॒ना रा॒या यु॒जा चि॒दुत्त॑रा॒ सखि॑भ्यः ॥ १८ ॥

इ॒मा जुह्वा᳚ना यु॒ष्मदा नमो᳚भिः॒ प्रति॒ स्तोमं᳚ सरस्वति जुषस्व ।
तव॒ शर्म᳚न्प्रि॒यत॑मे॒ दधा᳚ना॒ उप॑ स्थेयाम शर॒ण-न्न वृ॒क्षम् ॥ १९ ॥

अ॒यमु॑ ते सरस्वति॒ वसि॑ष्ठो॒ द्वारा᳚वृ॒तस्य॑ सुभगे॒ व्या᳚वः ।
वर्ध॑ शुभ्रे स्तुव॒ते रा᳚सि॒ वाजा॑न्यू॒य-म्पा᳚त स्व॒स्तिभि॒-स्सदा᳚ नः ॥ २० ॥

(ऋ.वे.७.९६)
बृ॒हदु॑ गायिषे॒ वचो᳚-ऽसु॒र्या᳚ न॒दीना᳚म् ।
सर॑स्वती॒मिन्म॑हया सुवृ॒क्तिभि॒स्स्तोमै᳚र्वसिष्ठ॒ रोद॑सी ॥ २१ ॥

उ॒भे यत्ते᳚ महि॒ना शु॑भ्रे॒ अन्ध॑सी अधिक्षि॒यन्ति॑ पू॒रवः॑ ।
सा नो᳚ बोध्यवि॒त्री म॒रुत्स॑खा॒ चोद॒ राधो᳚ म॒घोना᳚म् ॥ २२ ॥

भ॒द्रमिद्भ॒द्रा कृ॑णव॒त्सर॑स्व॒त्यक॑वारी चेतति वा॒जिनी᳚वती ।
गृ॒णा॒ना ज॑मदग्नि॒वत्स्तु॑वा॒ना च॑ वसिष्ठ॒वत् ॥ २३ ॥

ज॒नी॒यन्तो॒ न्वग्र॑वः पुत्री॒यन्तः॑ सु॒दान॑वः ।
सर॑स्वन्तं हवामहे ॥ २४ ॥

ये ते᳚ सरस्व ऊ॒र्मयो॒ मधु॑मन्तो घृत॒श्चुतः॑ ।
तेभि᳚र्नो-ऽवि॒ता भ॒व ॥ २५ ॥

पी॒पि॒वांसं॒ सर॑स्वत॒-स्स्तनं॒-योँ वि॒श्वद॑र्​शतः ।
भ॒क्षी॒महि॑ प्र॒जामिषम्᳚ ॥ २६ ॥

(ऋ.वे.२.४१.१६)
अम्बि॑तमे॒ नदी᳚तमे॒ देवि॑तमे॒ सर॑स्वति ।
अ॒प्र॒श॒स्ता इ॑व स्मसि॒ प्रश॑स्तिमम्ब नस्कृधि ॥ २७ ॥

त्वे विश्वा᳚ सरस्वति श्रि॒तायूं᳚षि दे॒व्याम् ।
शु॒नहो᳚त्रेषु मत्स्व प्र॒जा-न्दे᳚वि दिदिड्ढि नः ॥ २८ ॥

इ॒मा ब्रह्म॑ सरस्वति जु॒षस्व॑ वाजिनीवति ।
या ते॒ मन्म॑ गृत्सम॒दा ऋ॑तावरि प्रि॒या दे॒वेषु॒ जुह्व॑ति ॥ २९ ॥

(ऋ.वे.१.३.१०)
पा॒व॒का न॒-स्सर॑स्वती॒ वाजे᳚भिर्वा॒जिनी᳚वती ।
य॒ज्ञं-वँ॑ष्टु धि॒याव॑सुः ॥ ३० ॥

चो॒द॒यि॒त्री सू॒नृता᳚ना॒-ञ्चेत᳚न्ती सुमती॒नाम् ।
य॒ज्ञ-न्द॑धे॒ सर॑स्वती ॥ ३१ ॥

म॒हो अर्ण॒-स्सर॑स्वती॒ प्र चे᳚तयति के॒तुना᳚ ।
धियो॒ विश्वा॒ वि रा᳚जति ॥ ३२ ॥

(ऋ.वे.१०.१७.७)
सर॑स्वती-न्देव॒यन्तो᳚ हवन्ते॒ सर॑स्वतीमध्व॒रे ता॒यमा᳚ने ।
सर॑स्वतीं सु॒कृतो᳚ अह्वयन्त॒ सर॑स्वती दा॒शुषे॒ वार्य᳚-न्दात् ॥ ३३ ॥

सर॑स्वति॒ या स॒रथं᳚-यँ॒याथ॑ स्व॒धाभि॑र्देवि पि॒तृभि॒र्मद᳚न्ती ।
आ॒सद्या॒स्मिन्ब॒र्​हिषि॑ मादयस्वानमी॒वा इष॒ आ धे᳚ह्य॒स्मे ॥ ३४ ॥

सर॑स्वतीं॒-याँ-म्पि॒तरो॒ हव᳚न्ते दक्षि॒णा य॒ज्ञम॑भि॒नक्ष॑माणाः ।
स॒ह॒स्रा॒र्घमि॒लो अत्र॑ भा॒गं रा॒यस्पोषं॒-यँज॑मानेषु धेहि ॥ ३५ ॥

(ऋ.वे.५.४३.११)
आ नो᳚ दि॒वो बृ॑ह॒तः पर्व॑ता॒दा सर॑स्वती यज॒ता ग᳚न्तु य॒ज्ञम् ।
हव᳚-न्दे॒वी जु॑जुषा॒णा घृ॒ताची᳚ श॒ग्मा-न्नो॒ वाच॑मुश॒ती शृ॑णोतु ॥ ३६ ॥

(ऋ.वे.२.३२.४)
रा॒काम॒हं सु॒हवां᳚ सुष्टु॒ती हु॑वे शृ॒णोतु॑ न-स्सु॒भगा॒ बोध॑तु॒ त्मना᳚ ।
सीव्य॒त्वपः॑ सू॒च्याच्छि॑द्यमानया॒ ददा᳚तु वी॒रं श॒तदा᳚यमु॒क्थ्यम्᳚ ॥ ३७ ॥

यास्ते᳚ राके सुम॒तयः॑ सु॒पेश॑सो॒ याभि॒र्ददा᳚सि दा॒शुषे॒ वसू᳚नि ।
ताभि᳚र्नो अ॒द्य सु॒मना᳚ उ॒पाग॑हि सहस्रपो॒षं सु॑भगे॒ ररा᳚णा ॥ ३८ ॥

सिनी᳚वालि॒ पृथु॑ष्टुके॒ या दे॒वाना॒मसि॒ स्वसा᳚ ।
जु॒षस्व॑ ह॒व्यमाहु॑त-म्प्र॒जा-न्दे᳚वि दिदिड्ढि नः ॥ ३९ ॥

या सु॑बा॒हु-स्स्व᳚ङ्गु॒रि-स्सु॒षूमा᳚ बहु॒सूव॑री ।
तस्यै᳚ वि॒श्पत्न्यै᳚ ह॒वि-स्सि॑नीवा॒ल्यै जु॑होतन ॥ ४० ॥

या गु॒ङ्गूर्या सि॑नीवा॒ली या रा॒का या सर॑स्वती ।
इ॒न्द्रा॒णीम॑ह्व ऊ॒तये᳚ वरुणा॒नीं स्व॒स्तये᳚ ॥ ४१ ॥

ॐ शान्ति॒-श्शान्ति॒-श्शान्तिः॑ ॥

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