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सोमवार, जून 2, 2025

रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 2 | Rashmirathi Third Sarg Bhaag 2

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“रश्मिरथी” के तृतीय सर्ग का यह भाग 2 महाकवि रामधारी सिंह ‘दिनकर’ द्वारा रचित एक अद्वितीय प्रेरणास्पद खंड है, जिसमें कर्ण की संघर्षशीलता, त्याग, पुरुषार्थ, और निडरता को गहराई से उकेरा गया है। यह अंश पाठक को साहस, संयम और कर्मयोग का सन्देश देता है।

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रश्मिरथी – तृतीय सर्ग – भाग 2 | Rashmirathi Third Sarg Bhaag 2

वसुधा का नेता कौन हुआ,
भूखण्ड-विजेता कौन हुआ,
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ,
नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ,
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।

जब विप्र सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
तन को झाँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।

वाटिका और वन एक नहीं,
आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।

कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।

बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है।

वर्षो तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विप्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।

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पंक्तियों का विस्तार से अर्थ एवं भावार्थ:

1. आत्मबल और महापुरुष का चित्रण:

“वसुधा का नेता कौन हुआ,
भूखण्ड-विजेता कौन हुआ,
अतुलित यश क्रेता कौन हुआ,
नव-धर्म प्रणेता कौन हुआ,
जिसने न कभी आराम किया,
विघ्नों में रहकर नाम किया।”

इस अंश में कवि समाज से प्रश्न पूछते हैं – आखिर धरती का सच्चा नेता कौन है? क्या वह जो राजमहलों में रहता है या वह जो अपने श्रम और तप से भूमि को जीतता है? कवि कर्ण जैसे वीर का गुणगान करते हैं, जो बिना किसी शाही सुविधा के, केवल पुरुषार्थ से यश और सम्मान अर्जित करता है। वह नव-धर्म का प्रवर्तक है – यानी नए मूल्यों का स्थापक, जो जाति, जन्म और भाग्य से नहीं, कर्म से मनुष्य का मूल्य आंकता है।

2. ब्राह्मणों और आत्मबोध की भूमिका:

“जब विप्र सामने आते हैं,
सोते से हमें जगाते हैं,
मन को मरोड़ते हैं पल-पल,
तन को झाँझोरते हैं पल-पल।
सत्पथ की ओर लगाकर ही,
जाते हैं हमें जगाकर ही।”

यहाँ कवि विप्र (ब्राह्मण/गुरु/बुद्धिजीवी वर्ग) की भूमिका को रेखांकित करते हैं। वे केवल धार्मिक अनुष्ठानकर्ता नहीं बल्कि समाज को जागृत करने वाले होते हैं। वे मनुष्य की आत्मा और शरीर को झकझोरकर उसे कर्तव्य-पथ पर लगाते हैं। उनके विचार व्यक्ति को आत्मनिरीक्षण के लिए मजबूर करते हैं, जिससे वह सोई हुई चेतना से जागकर कर्म के लिए तैयार होता है।

3. सुख और संघर्ष का भेद:

“वाटिका और वन एक नहीं,
आराम और रण एक नहीं।
वर्षा, अंधड़, आतप अखंड,
पौरुष के हैं साधन प्रचण्ड।
वन में प्रसून तो खिलते हैं,
बागों में शाल न मिलते हैं।”

इन पंक्तियों में आलस्य और पुरुषार्थ का अंतर स्पष्ट किया गया है। वाटिका (उद्यान) यानी आराम का स्थान, जबकि वन – तप, त्याग और कठिन संघर्ष का प्रतीक है। कवि कहते हैं कि सच्चा वीर वन में तप कर बनता है, क्योंकि बागों में केवल नाजुक फूल खिलते हैं, मगर शाल जैसे मजबूत वृक्ष वन में ही उगते हैं। यह प्रतीक है – सच्ची शक्ति और व्यक्तित्व का विकास कठिनाइयों में ही होता है।

4. संघर्षशील जीवन की प्रशंसा:

“कङ्करियाँ जिनकी सेज सुघर,
छाया देता केवल अम्बर,
विपदाएँ दूध पिलाती हैं,
लोरी आँधियाँ सुनाती हैं।
जो लाक्षा-गृह में जलते हैं,
वे ही शूरमा निकलते हैं।”

यहाँ कवि कर्ण और पांडवों जैसे योद्धाओं के जीवन संघर्ष को काव्यात्मक रूप में महिमामंडित करते हैं। उनकी शय्या पत्थरों की होती है, सिर पर आकाश छत होता है, दु:ख-दर्द ही उनकी शिक्षिका बनती हैं। विपत्तियाँ उन्हें दूध पिलाती हैं यानी उन्हें पोषित करती हैं, और आँधियाँ उन्हें सुलाती नहीं बल्कि सशक्त बनाती हैं। लाक्षा-गृह की घटना का उल्लेख करके यह भी दिखाया गया है कि जो विपत्ति की अग्नि में तपते हैं, वही असली शूरवीर बनते हैं।

5. नवयुवकों के लिए प्रेरणा:

“बढ़कर विपत्तियों पर छा जा,
मेरे किशोर! मेरे ताजा!
जीवन का रस छन जाने दे,
तन को पत्थर बन जाने दे।
तू स्वयं तेज भयकारी है,
क्या कर सकती चिनगारी है।”

कवि यहाँ युवाओं को संघर्ष के लिए प्रेरित करते हैं। वे उन्हें चुनौती देते हैं कि आसान रास्ते छोड़कर कठिनाइयों पर विजय प्राप्त करें। जीवन का रस यानी सुख भोग छोड़ें और अपने तन को पत्थर बना लें – अर्थात् कठोरता, दृढ़ता और सहिष्णुता को अपनाएं। युवा स्वयं तेजस्वी हैं, इसलिए उन्हें किसी भी छोटी बाधा (चिनगारी) से भयभीत नहीं होना चाहिए।

6. पांडवों का उदाहरण और समय की प्रतीक्षा:

“वर्षो तक वन में घूम-घूम,
बाधा-विप्नों को चूम-चूम,
सह धूप-घाम, पानी-पत्थर,
पांडव आये कुछ और निखर।
सौभाग्य न सब दिन सोता है,
देखें, आगे क्या होता है।”

अंत में कवि पांडवों के वनवास की चर्चा करते हैं। उन्होंने वर्षों तक कठिनाइयों को झेला, मगर उस संघर्ष ने उन्हें और निखार दिया, परिष्कृत कर दिया। यह भी कहा गया है कि भाग्य हर समय नहीं सोता – यानी समय बदलता है, और संघर्ष का फल अंततः सफलता होता है। इस प्रकार कवि आशावाद का संदेश देते हैं।

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