“रश्मिरथी” के द्वितीय सर्ग के भाग 7 में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने कर्ण की सामाजिक पीड़ा, उसके आत्मसंघर्ष और समाज की रूढ़ियों पर एक गहरा और मार्मिक चित्र खींचा है। प्रस्तुत अंश न केवल कर्ण की भावनाओं को उजागर करता है, बल्कि उस समय की सामाजिक व्यवस्था और जातिवाद की कुरूपता को भी सामने लाता है।

रश्मिरथी – द्वितीय सर्ग – भाग 7 | Rashmirathi Second Sarg Bhaag 7
हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?
कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?
धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?
जाति-गोत्र के बल से ही आदर पाते हैं जहाँ सुजान?
नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?
मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।
मैं कहता हूँ, अगर विधाता नर को मुट्ठी में भरकर,
कहीं छींट दें ब्रह्मलोक से ही नीचे भूमण्डल पर,
तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?
कौन जन्म लेता किस कुल में? आकस्मिक ही है यह बात,
छोटे कुल पर, किन्तु यहाँ होते तब भी कितने आघात!
हाय, जाति छोटी है, तो फिर सभी हमारे गुण छोटे,
जाति बड़ी, तो बड़े बनें, वे, रहें लाख चाहे खोटे।’
गुरु को लिए कर्ण चिन्तन में था जब मग्न, अचल बैठा,
तभी एक विषकीट कहीं से आसन के नीचे पैठा।
वज्रदंष्ट वह लगा कर्ण के उरु को कुतर-कुतर खाने,
और बनाकर छिद्र मांस में मन्द-मन्द भीतर जाने।
कर्ण विकल हो उठा, दुष्ट भौरे पर हाथ धरे कैसे,
बिना हिलाये अंग कीट को किसी तरह पकड़े कैसे?
पर भीतर उस धँसे कीट तक हाथ नहीं जा सकता था,
बिना उठाये पाँव शत्रु को कर्ण नहीं पा सकता था।

कर्ण की आत्मव्यथा और समाज की विडंबना
अंश की शुरुआत एक तीव्र भावनात्मक प्रश्न से होती है:
“हाय, कर्ण, तू क्यों जन्मा था? जन्मा तो क्यों वीर हुआ?”
यह सवाल एक गहरे आत्मचिंतन से उपजा है – कि जब समाज किसी की पहचान उसकी योग्यता, वीरता या चरित्र से नहीं बल्कि केवल जाति और वंश से करता है, तो कर्ण जैसा महावीर जन्म लेकर भी अभिशप्त क्यों है?
“कवच और कुण्डल-भूषित भी तेरा अधम शरीर हुआ?”
यह पंक्ति दर्शाती है कि चाहे कर्ण में दिव्य गुण हों – जैसे जन्मजात कवच-कुण्डल, वीरता, दानशीलता – फिर भी समाज उसे ‘अधम’ मानता है क्योंकि वह एक सूतपुत्र है। यह एक गहरी सामाजिक विडंबना है कि गुणी व्यक्ति को केवल उसके जन्म के आधार पर तिरस्कार झेलना पड़ता है।
जातिवाद पर तीखा प्रहार
कवि यहाँ जाति व्यवस्था की तीव्र आलोचना करते हैं:
“धँस जाये वह देश अतल में, गुण की जहाँ नहीं पहचान?”
दिनकर यहां उस समाज की भर्त्सना करते हैं जो गुणों की नहीं, वंश और जाति की पहचान करता है। वह कहते हैं कि अगर समाज में योग्यता की पहचान न हो और केवल जाति के बल पर आदर-सम्मान मिले, तो ऐसे समाज का अंत हो जाना चाहिए।
“नहीं पूछता है कोई तुम व्रती, वीर या दानी हो?
सभी पूछते मात्र यही, तुम किस कुल के अभिमानी हो?”
यहाँ यह स्पष्ट किया गया है कि समाज व्यक्ति के आचरण, परिश्रम या बलिदान को नहीं, केवल उसकी जातीय पहचान को देखता है। कर्ण, जो स्वयं दानवीर है, महान योद्धा है, फिर भी उससे बार-बार केवल यही पूछा जाता है कि वह किस कुल का है।
जन्म और जाति का विवेकपूर्ण विवेचन
“मगर, मनुज क्या करे? जन्म लेना तो उसके हाथ नहीं,
चुनना जाति और कुल अपने बस की तो है बात नहीं।”
यहाँ कर्ण के विचार दर्शनात्मक बन जाते हैं। वह कहता है कि किसी मनुष्य के पास यह विकल्प ही नहीं होता कि वह कहाँ जन्म लेगा, किस जाति में जन्मेगा। यह विधाता के हाथ की बात है। फिर भी समाज उसी को सबसे बड़ा मापदंड बनाकर चलता है।
प्रकृति से उदाहरण
“तो भी विविध जातियों में ही मनुज यहाँ आ सकता है;
नीचे हैं क्यारियाँ बनीं, तो बीज कहाँ जा सकता है?”
दिनकर यहाँ एक सुंदर रूपक का प्रयोग करते हैं जैसे खेतों की अलग-अलग क्यारियों में बीज अलग-अलग पड़ते हैं, वैसे ही जन्म भी विविध कुलों में होता है। लेकिन बीज की गुणवत्ता उसकी क्यारी से तय नहीं होती।