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मंगलवार, जुलाई 15, 2025

रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 6 | Rashmirathi Fourth Sarg Bhaag 6

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यह अंश रामधारी सिंह ‘दिनकर’ की अमर काव्यकृति “रश्मिरथी” के चतुर्थ सर्ग के छठे खंड से है, जो कर्ण के त्याग, महानता, और उसकी वीरता का चरम बिंदु है। यह दृश्य अत्यंत मार्मिक है, जब देवताओं के राजा इंद्र, ब्राह्मण का वेश धारण करके, कर्ण से उसका दिव्य कवच और कुण्डल माँगने आते हैं ताकि अर्जुन को युद्ध में एक बढ़त मिल सके। यह कर्ण की दानशीलता और विराट मानवीय मूल्य का जीवंत उदाहरण है।

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रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 6 | Rashmirathi Fourth Sarg Bhaag 6

‘भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का,
बड़ा भरोसा था, लेकिन, इस कवच और कुण्डल का,
पर, उनसे भी आज दूर सम्बन्ध किये लेता हूँ,
देवराज! लीजिए खुशी से महादान देता हूँ।

‘यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की,
कनक-रचित निःश्रेणि अनूपम निज सुत की उन्नति की।
हेतु पांडवों के भय का, परिणाम महाभारत का,
अंतिम मूल्य किसी दानी जीवन के दारुण व्रत का।

‘जीवन देकर जय खरीदना, जग मे यही चलन है,
विजय दान करता न प्राण को रख कर कोई जन है।
मगर, प्राण रखकर प्रण अपना आज पालता हूँ मैं,
पूर्णाहुति के लिए विजय का हवन डालता हूँ मैं।

‘देवराज! जीवन में आगे और कीतिं क्या लूँगा?
इससे बढ़कर दान अनूपम भला किसे, क्या दूँगा?
अब जाकर कहिए कि ‘पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ,
अर्जुन! तेरे लिए कर्ण से विजय माँग लाया हूँ।’

‘एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को,
दें दें यह सूचना सत्य के हित में, चतुरानन को,
‘उद्वेलित जिसके निमित्त पृथ्वीतल का जन-जन है,
कुरुक्षेत्र में अभी शुरू भी हुआ नही वह रण है।

‘दो वीरों ने कितु, लिया कर, आपस में निपटारा,
हुआ जयी राधेय और अर्जुन इस रण मे हारा।’
यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में,
कवच और कुण्डल उतार, धर दिया इंद्र के कर में।

चकित, भीत चहचहा उठे कुंजी में विहग बिचारे,
दिशा सन्न रह गयी देख यह दृश्य भीति के मारे।
सह न सके आघात, सूर्य छिप गये सरक कर घन में,
‘साधु-साधु!’ की गिरा मंद्र गूँजी गंभीर गगन में।

अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला,
देवराज का मुखमंडल पड़ गया ग्लानि से काला।
क्लिन्न कवच को लिए किसी चिंता में मगे हुए-से।
ज्यों-के-त्यों रह गये इंद्र जड़ता में ठगे हुए-से।

‘पाप हाथ से निकल मनुज के सिर पर जब छाता है,
तब सत्य ही, प्रदाह प्राण का सहा नही जाता है,
अहंकारवश इंद्र सरल नर को छलने आए थे,
नहीं त्याग के माहतेज-सम्मुख जलने आये थे।

मगर, विशिख जो लगा कर्ण की बलि का आन हृदय में,
बहुत काल तक इंद्र मौन रह गये मग्न विस्मय में।
झुका शीश आख़िर वे बोले, ‘अब क्या बात कहूँ मैं?
करके ऐसा पाप मूक भी कैसे, किन्तु रहूं मैं?

‘पुत्र! सत्य तूने पहचाना, मैं ही सुरपति हूँ,
पर सुरत्व को भूल निवेदित करता तुझे प्रणति हूँ,
देख लिया, जो कुछ देखा था कभी न अब तक भू पर,
आज तुला कर भी नीचे है मही, स्वर्ग है ऊपर।

‘क्या कह करूँ प्रबोध? जीभ काँपति, प्राण हिलते हैं,
माँगूँ क्षमादान, ऐसे तो शब्द नही मिलते हैं।
दे पावन पदधूलि कर्ण! दूसरी न मेरी गति है,
पहले भी थी भ्रमित, अभी भी फँसी भंवर में मति है

‘नहीं जानता था कि छ इतना संहारक होगा,
दान कवच-कुण्डल का – ऐसा हृदय-विदारक होगा।
मेरे मन का पाप मुझी पर बन कर धूम घिरेगा,
वज्र भेद कर तुझे, तुरत मुझ पर ही आन गिरेगा।

‘तैरे माहतेज के आगे मलिन हुआ जाता हूँ,
कर्ण! सत्य ही, आज स्वयं को बड़ा क्षुद्र पाता हूँ।
आह! खली थी कभी नहीं मुझको यों लघुता मेरी,
दानी! कहीं दिव्या है मुझसे आज छाँह भी तेरी।

‘तृण-सा विवश डूबता, उगता, बहता, उतराता हूँ,
शील-सिंधु की गहराई का पता नहीं पाता हूँ।
घूम रही मन-ही-मन लेकिन, मिलता नहीं किनारा,
हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा।

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1. कवच और कुण्डल का त्याग – दानवीरता की पराकाष्ठा

“भुज को छोड़ न मुझे सहारा किसी और सम्बल का…”

यहाँ कर्ण कहते हैं कि उनके जीवन में सहारा केवल उनकी बाहुबल (बलशाली भुजाएँ) ही हैं। उन्हें अपने शरीर पर जन्म से मिले दिव्य कवच और कुण्डलों पर भी भरोसा था – ये वे रक्षक कवच थे जिन्हें भगवान सूर्य ने उन्हें जन्म के समय प्रदान किया था। लेकिन अब वे स्वयं स्वेच्छा से इन्हें इंद्र को दान कर रहे हैं। यह एक ऐसा “महादान” है, जो उनके प्राणों की सुरक्षा को समाप्त कर देता है – और फिर भी वे इस कार्य को बिना किसी संकोच के करते हैं।


2. दान का अर्थ और उसका मूल्य

“यह लीजिए कर्ण का जीवन और जीत कुरूपति की…”

कर्ण इस दान को मात्र कवच-कुण्डल का दान नहीं मानते, बल्कि इसे अपना जीवन, पांडवों की संभावित हार की कुंजी, और महाभारत के युद्ध की दिशा बदलने वाला क्षण कहते हैं। वे जानते हैं कि इस दान का प्रभाव कितना गहरा और भविष्य में निर्णायक होगा, फिर भी वे इसे देने को तैयार हैं।


3. विजय की पूर्णाहुति – हवन में आहुति समान

“जीवन देकर जय खरीदना…”

कर्ण यहाँ कहते हैं कि संसार में लोग विजय के लिए दूसरों के प्राणों का हवन करते हैं, परंतु वे स्वयं अपने प्राण देकर विजय को संभव बना रहे हैं – न कि अर्जुन के, बल्कि धर्म की विजय के लिए। वे इसे एक आहुति के रूप में प्रस्तुत करते हैं – पूर्णाहुति, जैसे यज्ञ में अंतिम समर्पण होता है।


4. स्वार्थहीन भेंट – पिता को संतान का वरदान

“अब जाकर कहिए कि ‘पुत्र! मैं वृथा नहीं आया हूँ…”

कर्ण स्वयं ही इंद्र को सांत्वना देते हैं कि वह अर्जुन के लिए यह विजय माँगने में सफल हुए। कर्ण, जिनके हृदय में कोई ईर्ष्या नहीं, न किसी छल का भाव – वे अपने शत्रु के पक्ष में पिता को संतुष्ट करके भेजते हैं।


5. सत्य का आग्रह – चतुरानन तक संदेश

“एक विनय है और, आप लौटें जब अमर भुवन को…”

कर्ण की सोच केवल लौकिक नहीं है, वह ब्रह्मा तक संदेश भेजने की विनती करता है कि यह युद्ध (महाभारत) अभी तो शुरू भी नहीं हुआ, और दो महान योद्धाओं – कर्ण और अर्जुन – के बीच युद्ध पहले ही कर्ण की विजय से निर्णीत हो चुका है।


6. कवच-कुण्डल त्याग – दृश्य का भावनात्मक चरम

“यह कह, उठा कृपाण कर्ण ने त्वचा छील क्षण भर में…”

कर्ण बिना किसी पीड़ा के, एक योद्धा की तरह, अपने शरीर से कवच-कुण्डल निकालकर इंद्र को अर्पण कर देता है। यह दृश्य इतना असहनीय और असाधारण है कि प्रकृति भी काँप जाती है – पक्षी चहचहाना बंद कर देते हैं, दिशाएँ मौन हो जाती हैं, सूर्य बादलों में छिप जाता है, और आकाश से ‘साधु-साधु’ की आवाज़ आती है।


7. इंद्र की ग्लानि – देवत्व की पराजय

“अपना कृत्य विचार, कर्ण का करतब देख निराला…”

इंद्र कर्ण के इस कृत्य को देखकर मौन हो जाते हैं – वे स्तब्ध, लज्जित और आत्मग्लानि से भर जाते हैं। उनके हाथ में अब वह कवच है जिसे छलपूर्वक माँगा गया, और वह भी एक ऐसे व्यक्ति से जिसने दिव्यत्व से भी ऊपर उठकर मानवीय चरित्र का श्रेष्ठतम रूप दिखा दिया।


8. कर्ण की महानता – देवताओं से भी ऊपर

“अहंकारवश इंद्र सरल नर को छलने आए थे…”

इंद्र कर्ण को छलने आए थे, पर उनकी त्याग की महानता ने इंद्र को भस्म कर दिया। वे मानते हैं कि उन्होंने पाप किया है, और यह कार्य इतना विनाशकारी है कि उसका प्रभाव स्वयं इंद्र पर ही पड़ेगा। वे कहते हैं कि आज धरती स्वर्ग से भी ऊँची हो गई है।


9. अंतिम स्वीकृति – इंद्र की क्षमा याचना

“दे पावन पदधूलि कर्ण! दूसरी न मेरी गति है…”

इंद्र हाथ जोड़कर क्षमा माँगते हैं, यह स्वीकार करते हुए कि वे स्वर्ग का राजा होते हुए भी कर्ण की छाया के सामने भी स्वयं को तुच्छ महसूस कर रहे हैं। वे स्वीकारते हैं कि उन्होंने ऐसा त्याग पहले कभी न देखा था।


10. मानवता की विजय – देवत्व की हार

“हुई परीक्षा पूर्ण, सत्य ही नर जीता सुर हारा।”

यह अंतिम पंक्ति इस पूरे अंश का सार है। कर्ण, एक मनुष्य, जिन्होंने जन्म से ही अन्याय और तिरस्कार सहा, आज अपने चरित्र और त्याग से देवताओं तक को परास्त कर देते हैं। यह केवल कर्ण की नहीं, मानवता की विजय है।

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