“रश्मिरथी” में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने कर्ण के चरित्र को नायकत्व के उस शिखर पर पहुँचाया है, जहाँ वह केवल एक योद्धा नहीं, बल्कि त्याग, व्रत, दान और मानवीय आदर्शों का मूर्तिमान रूप बन जाता है। चतुर्थ सर्ग का यह प्रथम भाग कर्ण के त्याग, व्रत और आत्म-बलिदान की महानता को उजागर करता है, और यह दिखाता है कि किस प्रकार वह जीवन के कठोरतम निर्णयों में भी अपने मूल्यों पर अडिग रहता है।

रश्मिरथी – चतुर्थ सर्ग – भाग 1 | Rashmirathi Fourth Sarg Bhaag 1
प्रेमयज्ञ अति कठिन कुण्ड में कौन वीर बलि देगा ?
तन, मन, धन, सर्वस्व होम कर अतुलनीय यश लेगा ?
हरि के सन्मुख भी न हार जिसकी निष्ठा ने मानी,
धन्य-धन्य राधेय ! बन्धुता के अद्भुत अभिमानी ।
पर जाने क्यों नियम एक अद्भुत जग में चलता है,
भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है ।
हरिआली है जहाँ, जलद भी उसी खण्ड के वासी,
मरु की भूमि मगर। रह जाती है प्यासी की प्यासी ।
और, वीर जो किसी प्रतिज्ञा पर आकर अड़ता है,
सचमुच, उसके लिए उसे सब-कुछ देना पड़ता है |
नहीं सदा भीषिका दौड़ती द्वार पाप का पाकर,
दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर ।
पर, तब भी रेखा प्रकाश की जहाँ कहीं हँसती है,
वहाँ किसी प्रज्वलित वीर नर की आभा बसती है;
जिसने छोड़ी नहीं लीक विपदाओं से घबराकर ।
दो जग को रोशनी टेक पर अपनी जान गँवाकर ।
नरता का आदर्श तपस्या के भीतर पलता है,
देता वही प्रकाश, आग में जो अभीत जलता है ।
आजीवन झेलते दाह का दंश वीर व्रतथारी,
हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी ।
प्रण करना है सहज, कठिन है लेकिन, उसे निभाना,
सबसे बडी जांचच है व्रत का अन्तिम मोल चुकाना ।
अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या ?
करने लगे मोह प्राणों का तो फिर प्रण लेना क्या ?
सस्ती कीमत पर बिकती रहती जबतक कुर्बानी,
तबतक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी ।
पर, महँगी में मोल तपस्या का देना दुष्कर है,
हँस कर दे यह मूल्य, न मिलता वह मनुष्य घर-घर है ।
जीवन का अभियान दान-बल से अजस्त्र चलता है,
उतनी बढ़ती ज्योति, खेह जितना अनल्प जलता है,
और दान मे रोकर या हसकर हम जो देते हैं,
अहंकार-वश उसे स्वत्व का त्याग मान लेते हैं।
यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
रखना उसको रोक, मृत्यु के पहले ही मरना है।
किस पर करते कृपा वृक्ष यदि अपना फल देते हैं,
गिरने से उसको सँँभाल, क्यों रोक नही लेते हैं?
ऋतु के बाद फलों का रुकना, डालों का सडना है।
मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।
देते तरु इसलिए की मत रेशों मे कीट समाए,
रहें डालियां स्वस्थ और फिर नये-नये फल आएं।
सरिता देती वारी कि पाकर उसे सुपूरित घन हो,
बरसे मेघ भरे फिर सरिता, उदित नया जीवन हो।
आत्मदान के साथ जगज्जीवन का क्रजु नाता है,
जो देता जितना बदले मे उतना ही पता है
दिखलाना कार्पण्य आप, अपने धोखा खाना है,
रखना दान अपूर्ण, रिक्ति निज का ही रह जाना है,
व्रत का अंतिम मोल चुकाते हुए न जो रोते हैं,
पूर्ण-काम जीवन से एकाकार वही होते हैं।
जो नर आत्म-दान से अपना जीवन-घट भरता है,
वही मृत्यु के मुख मे भी पड़कर न कभी मरता है,
जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,
वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला।
व्रत का अंतिम मोल राम ने दिया, त्याग सीता को,
जीवन की संगिनी, प्राण की मणि को, सुपुनीता को।
दिया अस्थि देकर दधीचि नें, शिवि ने अंग कुतर कर,
हरिश्चन्द्र ने कफ़न माँगते हुए सत्य पर अड़ कर।
ईसा ने संसार-हेतु शूली पर प्राण गँवा कर,
अंतिम मूल्य दिया गाँधी ने तीन गोलियाँ खाकर।
सुन अंतिम ललकार मोल माँगते हुए जीवन की,
सरमद ने हँसकर उतार दी त्वचा समूचे तन की।
हँसकर लिया मरण ओठों पर, जीवन का व्रत पाला,
अमर हुआ सुकरात जगत मे पीकर विष का प्याला।
मारकर भी मनसूर नियति की सह पाया ना ठिठोली,
उत्तर मे सी बार चीखकर बोटी-बोटी बोली।
दान जगत का प्रकृत धर्म है, मनुज व्यर्थ डरता है,
एक रोज तो हमें स्वयं सब-कुछ देना पड़ता है।
बचते वही, समय पर जो सर्वस्व दान करते हैं,
ऋतु का ज्ञान नही जिनको, वे देकर भी मरते हैं

व्रत, दान और आत्मबलिदान की महत्ता
1. वीरता और व्रत की कसौटी:
“प्रेमयज्ञ अति कठिन कुण्ड में कौन वीर बलि देगा?
तन, मन, धन, सर्वस्व होम कर अतुलनीय यश लेगा?”
यहाँ कर्ण को उस व्यक्ति के रूप में चित्रित किया गया है जो प्रेम, निष्ठा और व्रत के लिए स्वयं को समर्पित करने को तैयार है। प्रश्न है कि प्रेम के कठिन यज्ञ में कौन बलिदान देगा? कर्ण ही वह है, जो सब कुछ होम करने को तत्पर है।
2. तपस्वी का जलना और भोगी का सुख:
“भोगी सुख भोगता, तपस्वी और अधिक जलता है।”
यह शाश्वत सत्य है कि जीवन में तप करने वालों को ही अधिक परीक्षा से गुजरना होता है। त्यागी और वीर व्यक्ति का जीवन हमेशा कठिन होता है।
3. कर्म का फल और पुण्य का दुःख:
“दुःख भोगता कभी पुण्य को भी मनुष्य अपनाकर।”
यहाँ दिनकर इस भ्रम को तोड़ते हैं कि केवल पाप ही दुःख का कारण होता है। कभी-कभी पुण्यात्मा भी कष्ट झेलते हैं, क्योंकि उनका व्रत उन्हें कठिनाइयों से डरने नहीं देता।
4. अमरत्व का मार्ग – अग्निपरीक्षा:
“आजीवन झेलते दाह का दंश वीर व्रतथारी,
हो पाते तब कहीं अमरता के पद के अधिकारी।”
यहाँ कर्ण के जीवन-संघर्ष की तुलना की जाती है उस अग्निपरीक्षा से, जिसमें तपकर ही एक व्यक्ति अमर हो सकता है। यह केवल बाहरी युद्ध नहीं, बल्कि आत्मसंघर्ष की भी बात है।
5. व्रत का अंतिम मूल्य:
“अन्तिम मूल्य न दिया अगर, तो और मूल्य देना क्या?
करने लगे मोह प्राणों का तो फिर प्रण लेना क्या?”
सच्चा त्याग तब सिद्ध होता है, जब मनुष्य अपने प्रण के अंतिम मूल्य को चुका सके। यदि वह प्राणों से भी मोह करने लगे, तो उसका व्रत अधूरा है।
6. सस्ता और महँगा त्याग:
“सस्ती कीमत पर बिकती रहती जबतक कुर्बानी,
तबतक सभी बने रह सकते हैं त्यागी, बलिदानी।”
त्याग तब तक सरल लगता है, जब तक वह सस्ती कीमत पर मिलता है। कठिन तप और बलिदान की कीमत चुकाना सभी के बस की बात नहीं होती।
7. दान – जीवन का झरना:
“यह न स्वत्व का त्याग, दान तो जीवन का झरना है,
रखना उसको रोक, मृत्यु के पहले ही मरना है।”
दान को एक प्रवाह की तरह देखा गया है – जीवन का ऐसा प्रवाह जो रुक जाए तो मृत्यु जैसी स्थिति उत्पन्न हो जाती है। दान स्वत्व नहीं, स्वभाव है।
8. प्रकृति का दृष्टांत:
“ऋतु के बाद फलों का रुकना, डालों का सडना है।
मोह दिखाना देय वस्तु पर आत्मघात करना है।”
जैसे पेड़ समय पर फल देकर ही स्वस्थ रहते हैं, वैसे ही मनुष्य का धर्म भी है कि वह समय पर त्याग करे। मोह करना आत्मघात जैसा है।
9. आत्मदान और समाज:
“आत्मदान के साथ जगज्जीवन का गहरा नाता है,
जो देता जितना, बदले में उतना ही पाता है।”
दान केवल व्यक्तिगत कृत्य नहीं, यह समाज से भी गहरा जुड़ा है। आत्मदान करने वाला ही समाज में प्रकाश फैलाने वाला बनता है।
10. ऐतिहासिक उदाहरण – अंतिम मूल्य चुकाने वाले:
दिनकर यहाँ अनेक ऐतिहासिक व धार्मिक व्यक्तित्वों का उल्लेख करते हैं जिन्होंने अपने व्रत का अंतिम मूल्य चुकाया:
- राम – सीता का त्याग कर।
- दधीचि – अस्थियाँ दान कर।
- हरिश्चंद्र – सत्य की रक्षा के लिए।
- ईसा मसीह – सूली पर चढ़कर।
- महात्मा गांधी – गोलियाँ खाकर।
- सरमद – त्वचा उतार कर।
- सुकरात – विष पीकर।
- मंसूर – चीख-चीखकर अंतिम सत्य बोलते हुए।
इन सबका उदाहरण देकर कवि यह सिद्ध करते हैं कि बलिदान ही अमरता का मार्ग है।
“जहाँ कहीं है ज्योति जगत में, जहाँ कहीं उजियाला,
वहाँ खड़ा है कोई अंतिम मोल चुकानेवाला।”
व्रत का अंतिम मूल्य चुकाना ही असली महानता है। जो व्यक्ति हँसते हुए अपने प्राणों को भी अर्पण कर देता है, वही मृत्यु को भी जीत सकता है। कर्ण की कथा इस दर्शन की चरम परिणति है।