“रश्मिरथी” के प्रथम सर्ग के भाग 5 में रामधारी सिंह ‘दिनकर’ ने महाभारत के उस अत्यंत महत्वपूर्ण क्षण को काव्यात्मक और भावनात्मक विस्तार दिया है, जब दुर्योधन कर्ण को अंगदेश का राजा घोषित करता है। यह न केवल कर्ण के जीवन का निर्णायक मोड़ है, बल्कि महाभारत की कथा में भी एक नई दिशा का सूत्रपात है। इस भाग में दुर्योधन की राजनीति, कर्ण की कृतज्ञता, और जनता की वीरपूजा की प्रवृत्ति को अत्यंत प्रभावशाली ढंग से प्रस्तुत किया गया है।

रश्मिरथी – प्रथम सर्ग – भाग 5 | Rashmirathee Pratham Sarg Bhaag 5
करना क्या अपमान ठीक है इस अनमोल रतन का,
मानवता की इस विभूति का, धरती के इस धन का।
बिना राज्य यदि नहीं वीरता का इसको अधिकार,
तो मेरी यह खुली घोषणा सुने सकल संसार।
अंगदेश का मुकुट कर्ण के मस्तक पर धरता हूँ।
एक राज्य इस महावीर के हित अर्पित करता हूँ।
रखा कर्ण के सिर पर उसने अपना मुकुट उतार,
गूँजा रंगभूमि में दुर्योधन का जय-जयकार।
कर्ण चकित रह गया सुयोधन की इस परम कृपा से,
फूट पड़ा मारे कृतज्ञता के भर उसे भुजा से।
दुर्योधन ने हृदय लगा कर कहा-‘बन्धु! हो शान्त,
मेरे इस क्षुद्रोपहार से क्यों होता उद्भ्रान्त?
‘किया कौन-सा त्याग अनोखा, दिया राज यदि तुझको!
अरे, धन्य हो जायँ प्राण, तू ग्रहण करे यदि मुझको ।’
कर्ण और गल गया,’ हाय, मुझ पर भी इतना स्नेह!
वीर बन्धु! हम हुए आज से एक प्राण, दो देह।
‘भरी सभा के बीच आज तूने जो मान दिया है,
पहले-पहल मुझे जीवन में जो उत्थान दिया है।
उक्रण भला होऊंगा उससे चुका कौन-सा दाम?
कृपा करें दिनमान कि आऊं तेरे कोई काम।’
घेर खड़े हो गये कर्ण को मुदित, मुग्ध पुरवासी,
होते ही हैं लोग शूरता-पूजन के अभिलाषी।
चाहे जो भी कहे द्वेष, इर्ष्या, मिथ्या अभिमान,
जनता निज आराध्य वीर को, पर लेती पहचान।
इस भाग में ‘रश्मिरथी’ की काव्य-गाथा नायक के जीवन के उस मोड़ को चित्रित करती है जहाँ उसकी योग्यता को सामाजिक स्वीकृति मिलती है। यह केवल कर्ण के उत्थान की नहीं, बल्कि दुर्योधन के मानवीय पक्ष की भी विजयगाथा है। यद्यपि बाद में यह मित्रता महाभारत युद्ध में विध्वंस का कारण बनी, पर यह क्षण दोनों के जीवन में निष्ठा, विश्वास और सम्मान का शिखर बन जाता है।
यह अंश हमें यह भी सिखाता है कि समाज के नियम अगर अन्यायपूर्ण हों, तो उन्हें चुनौती देने के लिए कोई न कोई दुर्योधन खड़ा होता है और कोई न कोई कर्ण उस चुनौती से जीवन को नया अर्थ देता है।