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गुरूवार, अप्रैल 24, 2025

श्री किरातवाराही शत्रु नाशक स्तोत्र

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Kiraata Varahi Stotram

श्री किरातवाराही शत्रु नाशक स्तोत्र हिंदू धर्म की पुरानी धार्मिक परंपराओं में एक महत्वपूर्ण स्थान रखता है। यह स्तोत्र विशेष रूप से उन व्यक्तियों के लिए है जो शत्रुओं और विरोधियों से सुरक्षा और विजय की कामना करते हैं। इसे भक्तिपूर्वक सुनने या पढ़ने से व्यक्ति के जीवन में आने वाली शत्रुओं की बाधाओं को दूर किया जा सकता है। यह स्तोत्र विशेष रूप से भगवान शिव की पूजा से संबंधित है, जो शत्रुओं को नष्ट करने वाले और समस्त कठिनाइयों को दूर करने वाले देवता माने जाते हैं।

स्तोत्र का महत्व

श्री किरातवाराही शत्रु नाशक स्तोत्र भगवान शिव की एक महत्वपूर्ण आराधना है। यह स्तोत्र उन भक्तों के लिए बहुत ही लाभकारी होता है जो अपने जीवन में शत्रुओं की निरंतरता से परेशान हैं। शत्रु केवल शारीरिक ही नहीं, बल्कि मानसिक और आध्यात्मिक भी हो सकते हैं। यह स्तोत्र व्यक्ति को हर प्रकार के शत्रुओं से विजय दिलाने का आश्वासन देता है।

स्तोत्र का विश्लेषण

स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक में भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों का वर्णन होता है और उनका आशीर्वाद प्राप्त करने की प्रार्थना की जाती है। विशेष रूप से, इस स्तोत्र में भगवान शिव के किरात स्वरूप की पूजा की जाती है, जो कि एक तामसी और सशक्त रूप है। इस स्वरूप में भगवान शिव युद्ध और शत्रु नाशक होते हैं, इसलिए इस स्तोत्र का नाम ‘शत्रु नाशक’ पड़ा है।

स्तोत्र के श्लोक

स्तोत्र के प्रत्येक श्लोक में भगवान शिव की महिमा का बखान किया जाता है। श्लोकों में भगवान शिव के विभिन्न गुणों का उल्लेख होता है, जैसे उनकी शक्ति, वीरता और दया। भक्त इन श्लोकों का जाप करके भगवान शिव से अपने शत्रुओं के खिलाफ मदद की प्रार्थना करते हैं।

श्री किरातवाराही शत्रु नाशक स्तोत्र का प्रभाव

इस स्तोत्र का नियमित पाठ और ध्यान व्यक्ति की मानसिक स्थिति को सुदृढ़ बनाता है और शत्रुओं के खिलाफ उसकी लड़ाई को सशक्त करता है। यह व्यक्ति को आत्म-विश्वास प्रदान करता है और उसकी मानसिक स्थिति को संतुलित करता है। जब व्यक्ति शत्रुओं से परेशान होता है, तो यह स्तोत्र उसे आंतरिक शांति और शक्ति प्रदान करता है, जिससे वह अपने विरोधियों का सामना दृढ़ता से कर सकता है।

स्तोत्र का पाठ विधि

श्री किरातवाराही शत्रु नाशक स्तोत्र का पाठ सुबह और शाम दो बार किया जा सकता है। पाठ के समय शांतिपूर्वक और एकाग्रता के साथ भगवान शिव की उपासना करनी चाहिए। इस स्तोत्र के पाठ के दौरान, भक्त को भगवान शिव की विभिन्न छवियों की कल्पना करनी चाहिए और उन्हें अपने शत्रुओं को नष्ट करने के लिए प्रार्थना करनी चाहिए।

Shri Kirata Varahi Stotram

अस्य श्री किरातवराही स्तोत्रमन्त्रस्य
किरातवराह ऋषिः

अनुष्टुप् छन्दः

शत्रुनिवारिणी वाराही देवता
तदनुग्रहेण सर्वोपद्रवशान्त्यर्थे जपे विनियोगः

उग्ररूपां महादेवीं शत्रुमारणतत्पराम् ।
क्रूरां किरातवाराहीं वन्देऽहं कार्यसिद्धये ॥१॥

स्वापहीनां मदालस्यां तां मातां मदतामसीं ।
दंष्ट्राकरालवदनां विकृतास्यां महाबलाम् ॥२॥

उग्रकेशीं उग्रकरांसोमसूर्याग्निलोचनाम् ।
लोचनाग्निस्फुलिङ्गाभिर्भस्मीकृतजगत्त्रयीम् ॥३॥

जगत्त्रयं क्षोभयन्तीं भक्षयन्तीं मुहुर्मुहुः ।
खड्गं च मुसलं चैव हलं शोणितपात्रकम् ॥४॥

दधतीं च चतुर्हस्तां सर्वाभरण्भूषिताम् ।
गुंजामालां शंखमालां नानारत्नैर्वराटकैः ॥५॥

हारनूपुरकेयूरकटकैरुपशोभिताम् ।
वैरिपत्निकण्ठसूत्रच्छेदिनीं क्रूररूपिणीम् ॥६॥

क्रुद्धोद्धतां प्रजाहन्तृक्षुरिकेवस्थिताम् सदा ।
देवतार्धोरुयुगलां रिपुसंहारताण्डवां ॥७॥

रुद्रशक्तिं सदोद्युक्तां ईश्वरीं परदेवताम् ।
विभज्य कण्ठनेत्राभ्यां पिबन्तीं असृजं रिपोः ॥८॥

गोकण्ठे मदशार्दूलो गजकण्ठे हरिर्यथा ।
कुपितायां च वाराह्यां पतन्तीं नाशयन् रिपून् ॥९॥

सर्वे समुद्राः शुष्यन्ति कंपन्ते सर्वदेवताः ।
विधिविष्णुशिवेन्द्राद्या मृत्युभीताः पलायिताः ॥१०॥

एवं जगत्त्रयक्षोभकारकक्रोधसंयुताम् ।
साधकस्य पुरः स्थित्वा प्रद्रवन्तीं मुहुर्मुहुः ॥११॥

लेलिहानां बृहद्जिह्वां रक्तपानविनोदिनीम् ।
त्वगसृङ्मांसमेदोस्थिमज्जाशुक्राणि सर्वदा ॥१२॥

भक्षयन्तीं भक्तशत्रून् रिपूणां प्राणहारिणीम्
एवं विधां महादेवीं ध्यायेऽहं कार्यसिद्धये ॥१३॥

शत्रुनाशनरूपाणि कर्माणि कुरु पञ्चमि ।
मम शत्रून् भक्षयाशु घातयाऽसाधकान् रिपून् ॥१४॥

सर्वशत्रुविनाशार्थं त्वामेव शरणं गतः ।
तस्मादवश्यं वाराहि शत्रूणां कुरु नाशनम् ॥१५॥

यथा नश्यन्ति रिपवस्तथा विद्वेषणं कुरु ।
यस्मिन् काले रिपून् तुभ्यं अहं वक्ष्यामि तत्त्वतः ॥१६॥

मां दृष्ट्वा ये जना नित्यं विद्विषन्ति हनन्ति च ।
दुष्यन्ति च निन्दन्ति वाराहि तांश्च मारय ॥१७॥

मा हन्तु ते मुसलः शत्रून् अशनेः पतनादिव ।
शत्रुग्रामान् गृहान्देशान् राष्ट्रान् प्रविश सर्वशः ॥१८॥

उच्चाटय च वाराहि काकवद्भ्रमयाशु तान् ।
अमुकाऽमुक संज्ञानां शत्रूणां च परस्परम् ॥१९॥

दारिद्र्यं मे हन हन शत्रून् संहर संहर ।
उपद्रवेभ्यो मां रक्ष वाराहि भक्तवत्सले ॥२०॥

एतत्किरातवाराह्या स्तोत्रमापन्निवारणम् ।
मारकः सर्वशत्रूणां सर्वाभीष्टफलप्रदम् ॥२१॥

त्रिसन्ध्यं पठते यस्तु स्तोत्रोक्तफलमश्नुते ।
मुसलेनाऽथ शत्रूंश्च मारयन्तीं स्मरन्तिये ॥२२॥

तार्क्ष्यारूढां सुवर्णाभां जपेत्तेषां न संशयः ।
अचिराद्दुस्तरं साध्यं हस्तेनाऽऽकृष्य दीयते ॥२३॥

एवं ध्यायेज्जपेद्देवीं जनवश्यमवाप्नुयात् ।
दंष्ट्राधृतभुजां नित्यं प्राणवायुं प्रयच्छति ॥२४॥

दूर्वाभां संस्मरेद्देवीं भूलाभं याति बुद्धिमान् ।
सकलेष्टार्थदा देवी साधक स्तोत्र दुर्लभः ॥२५॥


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