कल्किकृतं शिव स्तोत्रम् एक प्रसिद्ध स्तोत्र है, जो भगवान शिव की स्तुति में रचा गया है। इसे कल्कि अवतार द्वारा रचित माना जाता है, जो विष्णु के दसवें और अंतिम अवतार माने जाते हैं। कल्कि अवतार के रूप में भगवान विष्णु ने भविष्य में अधर्म का नाश करने और धर्म की पुनः स्थापना के लिए अवतार लेने का वचन दिया है। इस स्तोत्र में भगवान शिव की महानता, उनके दैवीय स्वरूप और उनके शक्तिशाली गुणों का गुणगान किया गया है।
कल्कि अवतार के संदर्भ में यह स्तोत्र विशेष है क्योंकि भगवान विष्णु के इस अवतार में शिव के प्रति गहरी भक्ति और उनके सर्वशक्तिमान स्वरूप की स्वीकृति दर्शाई गई है। कल्कि ने इस स्तोत्र में भगवान शिव को सृष्टि के पालनहार, संहारक और पुनः निर्माणकर्ता के रूप में पूजा है। भगवान शिव को त्रिनेत्रधारी, त्रिलोकीनाथ, और कालों के भी काल महाकाल के रूप में दर्शाया गया है।
कल्किकृतं शिव स्तोत्रम् में भगवान शिव के विभिन्न रूपों और उनके कार्यों का वर्णन किया गया है, जैसे:
- शिव को सृष्टि के संहारक के रूप में माना जाता है, जो समय के अंत में संहार करते हैं और नई सृष्टि की स्थापना करते हैं।
- वे करुणामय हैं, जो अपने भक्तों की सभी इच्छाओं को पूरा करते हैं और उनकी रक्षा करते हैं।
- शिव को योगियों के योगी और समस्त ज्ञान के स्रोत के रूप में पूजा जाता है।
- वे दुष्टों का विनाश करते हैं और धर्म की रक्षा करते हैं।
इस स्तोत्र का नियमित पाठ भक्तों को भगवान शिव की कृपा प्राप्त करने, आत्मिक शांति और मोक्ष की प्राप्ति में सहायक माना जाता है। शिव की स्तुति में इस स्तोत्र का उच्चारण भक्तों के लिए शक्ति, साहस और समर्पण की भावना को बढ़ाता है।
कल्किकृतं शिव स्तोत्रम् भक्तों के जीवन में सकारात्मकता और भगवान शिव के प्रति अद्वितीय भक्ति का संचार करने वाला एक पवित्र पाठ है। यह शिव की महिमा का विस्तार से वर्णन करता है और उन्हें संपूर्ण ब्रह्मांड का आदि और अंत मानकर उनकी आराधना करता है।
कल्किकृतं शिव स्तोत्रम् Kalkikritam Siva Stotram Lyrics
श्रीगणेशाय नमः ।
गौरीनाथं विश्वनाथं शरण्यं भूतावासं वासुकीकण्ठभूषम् ।
त्र्यक्षं पञ्चास्यादिदेवं पुराणं वन्दे सान्द्रानन्दसन्दोहदक्षम् ॥१॥
योगाधीशं कामनाशं करालं गङ्गासङ्गक्लिन्नमूर्धानमीशम् ।
जटाजूटाटोपरिक्षिप्तभावं महाकालं चन्द्रभालं नमामि ॥२॥
श्मशानस्थं भूतवेतालसङ्गं नानाशस्त्रैः सङ्गशूलादिभिश्च ।
व्यग्रात्युग्रा बाहवो लोकनाशे यस्य क्रोधोद्भूतलोकोऽस्तमेति ॥३॥
यो भूतादिः पञ्चभूतैः सिसृक्षुस्तन्मात्रात्मा कालकर्मस्वभावैः ।
प्रहृत्येदं प्राप्य जीवत्वमीशो ब्रह्मानन्दे क्रीडते तं नमामि ॥४॥
स्थितौ विष्णुः सर्वजिष्णुः सुरात्मा लोकान्साधून् धर्मसेतून्बिभर्ति ।
ब्रह्माद्यंशे योऽभिमानी गुणात्मा शब्दाद्यङ्गैस्तं परेशं नमामि ॥५॥
यस्याज्ञया वायवो वान्ति लोके ज्वलत्यग्निः सविता याति तप्यन् ।
शीतांशुः खे तारकासङ्ग्रहश्च प्रवर्तन्ते तं परेशं प्रपद्ये ॥६॥
यस्य श्वासात्सर्वधात्री धरित्री देवो वर्षत्यम्बुकालः प्रमाता ।
मेरुर्मध्ये भूवनानां च भर्ता तमीशानं विश्वरूपं नमामि ॥७॥
इति श्रीकल्किपुराणे कल्किकृतं शिवस्तोत्रं सम्पूर्णम् ।