ईशावास्योपनिषद Ishvasya Upanishad
ईशावास्योपनिषद परिचय : आत्मा और ब्रह्म का मिलन
ईशावास्योपनिषद, शुक्ल यजुर्वेद से जुड़ा, १०८ उपनिषदों में से एक, एक प्राचीन सूत्र शैली का संस्कृत पाठ है। यह १८ श्लोकों में विभाजित है। इसकी रचना काल अज्ञात है, लेकिन कुछ विद्वानों का मानना है कि यह 8वीं शताब्दी ईस्वी पूर्व के आसपास का है।
भाष्यकारों ने शुक्ल यजुर्वेद के चालीसवें अध्याय का द्रष्टा ‘दध्यङाथर्वण’ को ऋषि बताया है। यजुः सर्वानुक्रमणी ने यजुर्वेद के अन्तिम पाँच अध्यायों का ऋषि ‘दध्यअथर्वा’ कहा है। अतः ‘दध्यअथर्वा’ को ही इन मंत्रों का प्रथम प्रस्तोता माना जा सकता है। यजुर्वेद के कुछ संस्करणों में चालीसवें अध्याय का ‘ऋषिः दीर्घतपा’ लिखा हुआ है।
ईशावास्योपनिषद् शुक्ल यजुर्वेद की माध्यन्दिन अन्तिम एवं काण्वसंहिता का प्रमुख उपनिषद् ग्रन्थ है। दोनों संहिताओं में चालीसवें अध्याय के रूप में इस उपनिषद् का उल्लेख हुआ है। इसमें आत्मज्ञान का विचार किया गया है। शुक्ल यजुर्वेद के अन्तिम अध्याय में उपनिबद्ध होने से इसकी वेदान्त संज्ञा सुप्रसिद्ध है। काण्वसंहिता का जो अन्तिम चालीसवाँ अध्याय है, वही इस समय ‘ईशोपनिषद्’ या ‘ईशावास्योपनिषद्’ के नाम से जाना जाता है। माध्यन्दिनशाखीय वाजसनेयी संहिता के चालीसवें अध्याय में सत्रह मन्त्र प्राप्त होते हैं, जबकि काण्वशाखीय संहिता में अठारह मंत्र उपलब्ध होते हैं। दोनों संहिताओं के कुछ पाठभेद निम्न है
यह उपनिषद, आत्मा और ब्रह्म (परम सत्ता) के बीच संबंध पर प्रकाश डालता है। यह सिखाता है कि आत्मा ब्रह्म का ही अंश है और जब तक यह अज्ञानता और मोह-माया के बंधनों में जकड़ी रहती है, तब तक वह दुःख और पीड़ा का अनुभव करती है।
लेकिन जब आत्मा इन बंधनों से मुक्त होकर अपनी वास्तविक स्वरूप को पहचान लेती है, तब वह ब्रह्म के साथ मिलकर परम आनंद और शांति का अनुभव करती है।
उपनिषद का सार
ईशावास्योपनिषद का मुख्य संदेश यह है कि “ईशावास्यं इदं सर्वं यत्किंच जगत्यं जगति” – “यह सारी सृष्टि, जो कुछ भी इस जगत में गतिशील है, ईश्वर की ही है।”
इसका अर्थ है कि ब्रह्म ही इस सृष्टि का आधार और स्रोत है।
यह उपनिषद, कर्म और ज्ञान के महत्व पर भी बल देता है।
- कर्म: कर्मों को निस्वार्थ भाव से और फल की इच्छा के बिना करना चाहिए।
- ज्ञान: आत्मा को अपने वास्तविक स्वरूप को समझने का प्रयास करना चाहिए। यह अध्ययन, चिंतन और ध्यान के माध्यम से प्राप्त किया जाता है।
आत्मा और ब्रह्म का मिलन
ईशावास्योपनिषद में, आत्मा और ब्रह्म को एक ही सत्ता के दो पहलुओं के रूप में वर्णित किया गया है।
आत्मा, ब्रह्म का सूक्ष्म अंश है, और ब्रह्म, आत्माओं का समग्र रूप है।
जब तक आत्मा अपनी अहंकार-भावना और भौतिक सुखों की इच्छाओं से ग्रस्त रहती है, तब तक वह ब्रह्म से अलग रहती है।
लेकिन जब आत्मा इन बंधनों से मुक्त होकर आत्म-ज्ञान प्राप्त करती है, तब वह ब्रह्म के साथ मिलकर परम आनंद और शांति का अनुभव करती है।