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सोमवार, सितम्बर 16, 2024

हिमालयकृत स्तोत्रम्

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हिमालयकृत स्तोत्रम् और उसके महत्व Himalaya Kritam Shiva Stotram

संस्कृत साहित्य में स्तोत्रों का अत्यंत महत्वपूर्ण स्थान है, जिनमें से एक अद्वितीय स्तोत्र है “हिमालयकृत स्तोत्रम्”। यह स्तोत्र विशेष रूप से पर्वतराज हिमालय द्वारा भगवान शिव की स्तुति के रूप में प्रसिद्ध है। इसका साहित्यिक और आध्यात्मिक महत्व अत्यंत उच्च है, और इसका पाठ श्रद्धालुओं के लिए एक आत्मिक अनुभूति का स्रोत है। इस स्तोत्र का गान विशेषकर उन भक्तों के लिए लाभकारी माना जाता है, जो भगवान शिव के प्रति अपनी श्रद्धा और भक्ति को प्रगाढ़ करना चाहते हैं। इस लेख में, हम इस स्तोत्र के विभिन्न पहलुओं पर विचार करेंगे और इसके धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व को विस्तार से समझने का प्रयास करेंगे।

हिमालयकृत स्तोत्रम् की रचना

हिमालयकृत स्तोत्रम् का उल्लेख श्री ब्रह्मवैवर्तपुराण के श्रीकृष्णजन्मखण्डे में मिलता है, जिसमें यह वर्णित है कि यह स्तोत्र स्वयं पर्वतराज हिमालय द्वारा रचा गया था। हिमालय पर्वत का शास्त्रों में एक महत्वपूर्ण स्थान है, क्योंकि इसे विश्व की धुरी और तपस्यास्थल माना जाता है। ऐसा कहा जाता है कि यह स्तोत्र हिमालय की आत्मा की स्तुति के रूप में प्रकट हुआ, जिसमें पर्वतराज ने भगवान शिव के अद्वितीय और असीम गुणों की प्रशंसा की। इस स्तोत्र का पाठ करने से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है और साधक को जीवन के कठिनाइयों से मुक्ति मिलती है।

स्तोत्र का संरचना और स्वरूप Structure of Himalaya Kritam Shiva Stotram

हिमालयकृत स्तोत्रम् संस्कृत भाषा में रचित एक संक्षिप्त और सारगर्भित स्तुति है। इसके श्लोकों में भगवान शिव के विभिन्न स्वरूपों, उनके गुणों, शक्तियों और कार्यों का वर्णन किया गया है। श्लोकों की भाषा अत्यंत शुद्ध और साहित्यिक है, जो इसके पाठकों और श्रोताओं को एक गहन आध्यात्मिक अनुभव प्रदान करती है। इसके अलावा, श्लोकों की संरचना में प्रयुक्त छंदों की लयात्मकता और सटीकता इसे एक उत्कृष्ट काव्य रचना के रूप में प्रस्तुत करती है।

धार्मिक और सांस्कृतिक महत्व Himalaya Kritam Shiva Stotram Importance

हिमालयकृत स्तोत्रम् का धार्मिक महत्व अत्यंत व्यापक है। भारतीय परंपरा में भगवान शिव को आदि देव, संहारक और सृष्टिकर्ता के रूप में पूजा जाता है। इस स्तोत्र के माध्यम से, हिमालय पर्वत ने भगवान शिव की स्तुति की और उनकी अनन्त शक्तियों और गुणों की प्रशंसा की। इसे गाने या सुनने से न केवल भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है, बल्कि साधक को आत्मिक शांति और संतोष की प्राप्ति होती है। इस स्तोत्र का पाठ विशेषकर शिवरात्रि, सोमवार या अन्य पवित्र अवसरों पर किया जाता है, जिससे साधक की भक्ति और श्रद्धा में वृद्धि होती है।

इसके अतिरिक्त, हिमालयकृत स्तोत्रम् का सांस्कृतिक महत्व भी अत्यंत महत्वपूर्ण है। यह स्तोत्र भारतीय संस्कृति और परंपरा में पर्वतों के महत्व को दर्शाता है। भारतीय धर्मशास्त्रों में हिमालय पर्वत को ज्ञान और तपस्या का प्रतीक माना गया है, और इस स्तोत्र के माध्यम से पर्वतराज हिमालय ने भगवान शिव की स्तुति की है, जो यह दर्शाता है कि प्रकृति के सभी अंग भी परमात्मा की भक्ति में लीन होते हैं। यह स्तोत्र इस बात का प्रतीक है कि केवल मानव ही नहीं, बल्कि संपूर्ण सृष्टि भगवान शिव की आराधना में लीन है।

हिमालयकृत स्तोत्रम् का पाठ और उसके लाभ Himalaya Kritam Shiva Stotram Benifits

हिमालयकृत स्तोत्रम् का नियमित पाठ भक्तों के लिए अत्यंत लाभकारी माना जाता है। इसके पाठ से मानसिक शांति और आत्मिक उन्नति प्राप्त होती है। यह स्तोत्र व्यक्ति के भीतर सकारात्मक ऊर्जा का संचार करता है और उसे जीवन की कठिनाइयों से लड़ने की शक्ति प्रदान करता है। इसके अलावा, इस स्तोत्र के माध्यम से भगवान शिव की कृपा प्राप्त होती है, जिससे साधक के जीवन में सुख, समृद्धि और सफलता का मार्ग प्रशस्त होता है। इसके पाठ के दौरान भगवान शिव के प्रति श्रद्धा और भक्ति का अनुभव होता है, जो साधक को भगवान के समीप ले जाता है और उसे जीवन के समस्त दुखों से मुक्ति दिलाता है।


हिमालयकृत स्तोत्रम् Himalaya Kritam Shiva Stotram

॥ हिमालय उवाच ॥

त्वं ब्रह्मा सृष्टिकर्ता च त्वं विष्णुः परिपालकः।
त्वं शिवः शिवदोSनन्तः सर्वसंहारकारकः ॥ १ ॥

त्वमीश्र्वरो गुणातीतो ज्योतीरूपः सनातनः ।
प्रकृतिः प्रकृतीशश्र्च प्राकृतः प्रकृतेः परः ॥ २ ॥

नानारूपविधाता त्वं भक्तानां ध्यानहेतवे।
येषु रूपेषु यत्प्रीतिस्तत्तद्रूपं बिभर्षि च ॥ ३ ॥

सूर्यस्त्वं सृष्टिजनक आधारः सर्व तेजसाम् ।
सोमस्त्वं शस्य पाता च सततं शीतरश्मिना ॥ ४ ॥

वायुस्त्वं वरुणस्त्वं च त्वमग्निः सर्वदाहकः।
इन्द्रस्त्वं देवराजश्र्च कालो मृत्युर्यमस्तथा ॥ ५ ॥

मृत्युञ्जयो मृत्युमृत्युः कालकालो यमान्तकः ।
वेदस्त्वं वेदकर्ता च वेदवेदाङ्गपारगः ॥ ६ ॥

विदुषां जनकस्त्वं च विद्वांश्र्च विदुषां गुरुः ।
मंत्रस्त्वं हि जपस्त्वं हि तपस्त्वं तत्फलप्रदः ॥ ७ ॥

वाक् त्वं वागधिदेवि त्वं तत्कर्ता तद्गुरुः स्वयम्
अहो सरस्वतीबीजं कस्त्वां स्तोतुमिहेश्र्वरः ॥ ८ ॥

इत्येवमुक्त्वा शैलेन्द्रस्तस्थौ धृत्वा पदाम्बुजम्।
तत्रोवास तमाबोध्य चावरुह्य वृषाच्छिवः ॥ ९ ॥

स्तोत्रमेतन्महापुण्यं त्रिसंध्यं यः पठेन्नरः।
मुच्यते सर्वपापेभ्यो भयेभ्यश्र्च भवार्णवे ॥ १० ॥

अपुत्रो लभते पुत्रं मासमेकं पठेद् यदि ।
भार्याहिनो लभेद् भार्यां सुशीलां सुमनोहराम् ॥ ११ ॥

चिरकालगतं वस्तु लभते सहसा ध्रुवम् ।
राज्यभ्रष्टो लभेद् राज्यं शङ्करस्य प्रसादतः ॥ १२ ॥

कारागारे श्मशाने च शत्रुग्रस्तेSतिसङ्कटे।
गभीरेSतिजलाकीर्णे भग्नपोते विषादने ॥ १३ ॥

रणमध्ये महाभीते हिन्स्रजन्तुसमन्विते ।
सर्वतो मुच्यते स्तुत्वा शङ्करस्य प्रसादतः ॥ १४ ॥

॥ इति श्री ब्रह्मवैवर्तपुराणे श्रीकृष्णजन्मखण्डे हिमालयकृतं शिवस्तोत्रम् ॥


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