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शुक्रवार, अगस्त 15, 2025

श्री गङ्गाष्टकम्

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Ganga Ashtakam In Hindi

श्री गङ्गाष्टकम् एक प्रसिद्ध संस्कृत स्तोत्र है, जिसमें भगवती गंगा की महिमा का गुणगान किया गया है। यह स्तोत्र आदि शंकराचार्य द्वारा रचित माना जाता है। इसमें गंगा नदी की दिव्यता, उसकी पवित्रता तथा उसके जल के आध्यात्मिक और सांसारिक लाभों का वर्णन किया गया है। इस स्तोत्र का पाठ करने से व्यक्ति को पापों से मुक्ति मिलती है और जीवन में शुद्धता, सुख और समृद्धि प्राप्त होती है।

श्री गङ्गाष्टकम् का महत्त्व

गंगा केवल एक नदी नहीं, बल्कि एक पवित्र देवी के रूप में पूजनीय है। इसे भागीरथी भी कहा जाता है क्योंकि राजा भागीरथ के कठोर तप के कारण यह धरती पर अवतरित हुई थी। गङ्गाष्टकम् में यह बताया गया है कि गंगा का जल कैसे आत्मशुद्धि करने वाला है, उसके दर्शन मात्र से पुण्य फल प्राप्त होता है और उसकी आराधना से मोक्ष संभव है।

गङ्गाष्टकम् के अनुसार, गंगा का जल सभी पापों को धोने वाला और भगवान विष्णु के चरणों से निकला हुआ अमृत तुल्य माना जाता है। यह न केवल भौतिक रूप से जीवनदायिनी है, बल्कि आध्यात्मिक रूप से भी कल्याणकारी है।

गङ्गाष्टकम् पाठ करने के लाभ

  1. पापों से मुक्ति: गंगा की महिमा का गुणगान करने से व्यक्ति को अपने पूर्व जन्मों के पापों से छुटकारा मिलता है।
  2. मोक्ष प्राप्ति: मृत्यु के समय यदि कोई गंगा जल ग्रहण कर ले या गंगा का स्मरण करे, तो उसे मोक्ष की प्राप्ति होती है।
  3. शरीरिक और मानसिक शुद्धि: गंगा के जल का उपयोग करने से न केवल शरीर शुद्ध होता है, बल्कि मन भी शांत रहता है।
  4. धार्मिक एवं आध्यात्मिक लाभ: इस स्तोत्र का पाठ करने से ईश्वर की कृपा प्राप्त होती है और मनुष्य का आध्यात्मिक उत्थान होता है।
  5. सकारात्मक ऊर्जा: गंगा का नाम लेने मात्र से व्यक्ति के जीवन में सकारात्मकता आती है और वह शुभ कार्यों में प्रवृत्त होता है।

गङ्गाष्टकम् का पाठ करने की विधि

  1. प्रातःकाल स्नान कर स्वच्छ वस्त्र धारण करें।
  2. गंगा जी के चित्र या प्रतिमा के सामने दीप जलाएं।
  3. श्री गङ्गाष्टकम् का श्रद्धा और भक्ति भाव से पाठ करें।
  4. यदि संभव हो तो गंगा जल का आचमन करें।
  5. पाठ के उपरांत गंगा मैया से अपने कष्टों के निवारण और मोक्ष की प्रार्थना करें।

श्री गङ्गाष्टकम्

भगवति भवलीलामौलिमाले तवाम्भः
कणमणुपरिमाणं प्राणिनो ये स्पृशन्ति ।
अमरनगरनारीचामरग्राहिणीनां
विगतकलिकलङ्कातङ्कमङ्के लुठन्ति ॥ १ ॥

ब्रह्माण्डं खण्डयन्ती हरशिरसि जटावल्लिमुल्लासयन्ती
स्वर्लोकादापतन्ती कनकगिरिगुहागण्डशैलात् स्खलन्ती ।
क्षोणीपृष्टे लुठन्ती दुरितचयचमूर्निर्भरं भर्त्सयन्ती
पाथोधिं पूरयन्ती सुरनगरसरित्पावनी नः पुनातु ॥ २ ॥

मज्जन्मातङ्गकुम्भच्युतमदमदिरामोदमत्तालिजालं
स्नानैः सिद्धाङ्गनानां कुचयुगविगलत्कुङ्कुमासङ्गपिङ्गम् ।
सायं प्रातर्मुनीनां कुशकुसुमचयैश्छिन्नतीरस्थनीरं
पायान्नो गाङ्गमम्भः करिकरमकराक्रान्तरहस्तरङ्गम् ॥ ३ ॥

आदावादिपितामहस्य नियमव्यापारपात्रे जलं
पश्चात्पन्नगशायिनो भगवतः पादोदकं पावनम् ।
भूयः शम्भुजटाविभूषणमणिर्जह्नोर्महर्षेरियं
कन्या कल्मषनाशिनी भगवती भागीरथी पातु माम् ॥ ४ ॥

शैलेन्द्रादवतारिणी निजजले मज्जज्जनोत्तारिणी
पारावारविहारिणी भवभयश्रेणीसमुत्सारिणी ।
शेषाङ्गैरनुकारिणी हरशिरोवल्लीदलाकारिणी
काशीप्रान्तविहारिणी विजयते गङ्गा मनोहारिणी ॥ ५ ॥

कुतो वीची वीचिस्तव यदि गता लोचनपथं
त्वमापीता पीताम्बरपुरवासं वितरसि ।
त्वदुत्सङ्गे गङ्गे पतति यदि कायस्तनुभृतां
तदा मातः शान्तक्रतवपदलाभोऽप्यतिलघुः ॥ ६ ॥

भगवति तव तीरे नीरमात्राशनोऽहं
विगतविषयतृष्णः कृष्णमाराधयामि ।
सकलकलुषभङ्गे स्वर्गसोपानसङ्गे
तरलतरतरङ्गे देवि गङ्गे प्रसीद ॥ ७ ॥

मातर्जाह्नवि शम्भुसङ्गमिलिते मौलौ निधायाञ्जलिं
त्वत्तीरे वपुषोऽवसानसमये नारायणाङ्घ्रिद्वयम् ।
सानन्दं स्मरतो भविष्यति मम प्राणप्रयाणोत्सवे
भूयाद्भक्तिरविच्युता हरिहराद्वैतात्मिका शाश्वती ॥ ८ ॥

गङ्गाष्टकमिदं पुण्यं यः पठेत्प्रयतो नरः ।
सर्वपापविनिर्मुक्तो विष्णुलोकं स गच्छति ॥ ९ ॥

इति श्रीमत्परमहंसपरिव्राजकाचार्यस्य श्रीगोविन्दभगवत्पूज्यपादशिष्यस्य श्रीमच्छङ्करभगवतः कृतौ गङ्गाष्टकं सम्पूर्णम् ।

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