गणाध्यक्ष स्तोत्रं – भरद्वाज उवाच Ganaadhyaksha Stotra – Bharadwaja uvacha
गणाध्यक्ष स्तोत्र एक महत्वपूर्ण स्तोत्र है जो भगवान गणेश को समर्पित है। इसे ऋषि भरद्वाज द्वारा रचित माना जाता है। यह स्तोत्र भगवान गणेश की महिमा का वर्णन करता है और उनकी आराधना का एक माध्यम है। गणाध्यक्ष स्तोत्र में भगवान गणेश को ‘गणाध्यक्ष’ या ‘गणों के अधिपति’ के रूप में वर्णित किया गया है, जो सभी बाधाओं को दूर करने वाले और नई शुरुआत के देवता माने जाते हैं।
भरद्वाज ऋषि का योगदान:
भरद्वाज एक महान ऋषि थे और उन्हें वेदों तथा शास्त्रों का गहरा ज्ञान था। उनकी कई रचनाएँ हैं जो हिंदू धर्म में महत्वपूर्ण स्थान रखती हैं। उन्होंने भगवान गणेश की आराधना और स्तुति में इस स्तोत्र की रचना की, जिसे भक्तगण विशेष अवसरों पर, जैसे कि गणेश चतुर्थी या किसी नए कार्य के प्रारंभ में, पाठ करते हैं।
गणाध्यक्ष स्तोत्र की विशेषताएँ:
- भगवान गणेश की स्तुति: इस स्तोत्र में भगवान गणेश को समस्त विध्नों का नाशक बताया गया है। उनकी कृपा से साधक को जीवन के सभी संकटों से मुक्ति मिलती है।
- शक्ति और बुद्धि का प्रतीक: भगवान गणेश को बुद्धि, ज्ञान, और समृद्धि का प्रतीक माना जाता है। इस स्तोत्र के पाठ से भक्त की मानसिक और बौद्धिक क्षमता में वृद्धि होती है।
- आध्यात्मिक शांति: गणाध्यक्ष स्तोत्र का पाठ करने से मानसिक शांति प्राप्त होती है और जीवन में सकारात्मकता आती है।
- विघ्नों का नाश: गणपति को विघ्नहर्ता कहा जाता है। इस स्तोत्र का पाठ करने से कार्य में आने वाली बाधाएँ दूर होती हैं और सफलता मिलती है।
स्तोत्र का पाठ:
गणाध्यक्ष स्तोत्र का पाठ शुद्ध और शांति के वातावरण में करना चाहिए। इसके पाठ से व्यक्ति को मानसिक, शारीरिक और आध्यात्मिक लाभ प्राप्त होते हैं। नियमित पाठ करने से जीवन में शुभता का संचार होता है और व्यक्ति की समस्त मनोकामनाएँ पूरी होती हैं।
धार्मिक महत्व:
गणाध्यक्ष स्तोत्र का हिंदू धर्म में विशेष धार्मिक महत्व है। यह स्तोत्र भगवान गणेश की महिमा का गुणगान करता है और भक्तों के जीवन से सभी प्रकार के विघ्नों को दूर करने का आशीर्वाद प्रदान करता है। इसे विशेष रूप से किसी नए कार्य के आरंभ, विवाह, या अन्य शुभ अवसरों पर पढ़ा जाता है।
गणाध्यक्ष स्तोत्रं – भरद्वाज उवाच
भरद्वाज उवाच
कथं स्तुतो गणाध्यक्षस्तेन राज्ञा महात्मना ।
यथा तेन तपस्तप्तं तन्मे वद महामते ॥१॥
सूत उवाच
चतुर्थीदिवसे राजा स्नात्वा त्रिषवणं द्विज ।
रक्ताम्बरधरो भूत्वा रक्तगन्धानुलेपनः ॥२॥
सुरक्तकुसुमैर्हृद्यैर्विनायकमथार्चयत् ।
रक्तचन्दनतोयेन स्नानपूर्वं यथाविधि ॥३॥
विलिप्य रक्तगन्धेन रक्तपुष्पैः प्रपूजयत् ।
ततोऽसौ दत्तवान् धूपमाज्ययुक्तं सचन्दनम् ।
नैवेद्यं चैव हारिद्रं गुडखण्डघृतप्लुतम् ॥४॥
एवं सुविधिना पूज्य विनायकमथास्तवीत् ।
इक्ष्वाकुरुवाच नमस्कृत्य महादेवं स्तोष्येऽहं तं विनायकम् ॥५॥
महागणपतिं शूरमजितं ज्ञानवर्धनम् ।
एकदन्तं द्विदन्तं च चतुर्दन्तं चतुर्भुजम् ॥६॥
त्र्यक्षं त्रिशूलहस्तं च रक्तनेत्रं वरप्रदम् ।
आम्बिकेयं शूर्पकर्णं प्रचण्डं च विनायकम् ॥७॥
आरक्तं दण्डिनं चैव वह्निवक्त्रं हुतप्रियम् ।
अनर्चितो विघ्नकरः सर्वकार्येषु यो नृणाम् ॥८॥
तं नमामि गणाध्यक्षं भीममुग्रमुमासुतम् ।
मदमत्तं विरूपाक्षं भक्तिविघ्ननिवारकम् ॥९॥
सूर्यकोटिप्रतीकाशं भिन्नाञ्जनसमप्रभम् ।
बुद्धं सुनिर्मलं शान्तं नमस्यामि विनायकम् ॥१०॥
नमोऽस्तु गजवक्त्राय गणानां पतये नमः ।
मेरुमन्दररूपाय नमः कैलासवासिने ॥११॥
विरूपाय नमस्तेऽस्तु नमस्ते ब्रह्मचारिणे ।
भक्तस्तुताय देवाय नमस्तुभ्यं विनायक ॥१२॥
त्वया पुराण पूर्वेषां देवानां कार्यसिद्धये ।
गजरूपं समास्थाय त्रासिताः सर्वदानवाः ॥१३॥
ऋषीणां देवतानां च नायकत्वं प्रकाशितम् ।
यतस्ततः सुरैरग्रे पूज्यसे त्वं भवात्मज ॥१४॥
त्वामाराध्य गणाध्यक्षं सर्वज्ञं कामरूपिणम् ।
कार्यार्थं रक्तकुसुमै रक्तचन्दनवारिभिः ॥१५॥
रक्ताम्बरधरो भूत्वा चतुर्थ्यामर्चयेज्जपेत् ।
त्रिकालमेककालं वा पूजयेन्नियताशनः ॥१६॥
राजानं राजपुत्रं वा राजमन्त्रिणमेव वा ।
राज्यं च सर्वविघ्नेश वशं कुर्यात् सराष्ट्रकम् ॥१७॥
अविघ्नं तपसो मह्यं कुरु नौमि विनायक ।
मयेत्थं संस्तुतो भक्त्या पूजितश्च विशेषतः ॥१८॥
यत्फलं सर्वतीर्थेषु सर्वयज्ञेषु यत्फलम् ।
तत्फलं पूर्णमाप्नोति स्तुत्वा देवं विनायकम् ॥१९॥
विषमं न भवेत् तस्य न च गच्छेत् पराभवम् ।
न च विघ्नो भवेत् तस्य जातो जातिस्मरो भवेत् ॥२०॥
य इदं पठते स्तोत्रं षड्भिर्मासैर्वरं लभेत् ।
संवत्सरेण सिद्धिं च लभते नात्र संशयः ॥२१॥
सूत उवाच एवं स्तुत्वा पुरा राजा गणाध्यक्षं द्विजोत्तम ।
तापसं वेषमास्थाय तपश्चर्तुं गतो वनम् ॥२२॥
उत्सृज्य वस्त्रं नागत्वक्सदृशं बहुमूल्यकम् ।
कठिनां तु त्वचं वाक्षीं कट्यां धत्ते नृपोत्तमः ॥२३॥
तथा रत्नानि दिव्यानि वलयानि निरस्य तु ।
अक्षसूत्रमलङ्कारं फलैः पद्मस्य शोभनम् ॥२४॥
तथोत्तमाङ्गे मुकुटं रत्नहाटकशोभितम् ।
त्यक्त्वा जटाकलापं तु तपोऽर्थे विभृयान्नृपः ॥२५॥
इति । नरसिंहपुराण अध्याय २५ श्लोकसंख्या ७२
श्रीनरसिंहपुराणे इक्ष्वाकुचरिते पञ्चविंशोऽध्यायः ॥२५॥
गणाध्यक्ष स्तोत्र का लाभ:
-> कार्यों में सफलता प्राप्त होती है।
-> मानसिक शांति और संतुलन प्राप्त होता है।
-> बाधाओं और विघ्नों से मुक्ति मिलती है।
-> बुद्धि और विवेक की वृद्धि होती है।